सांप्रदायिक हिंसा निषेध विधेयक और कांग्रेस का चुनावी घोषणा पत्र

0
221

राकेश कुमार आर्य
कांग्रेस ने अपने 2014 के आम चुनावों के समय जारी किए गए घोषणा पत्र में सांप्रदायिकता विरोधी बिल का जो स्वरूप तैयार किया था , उसकी देश के कई विशेषज्ञों और विद्वानों ने यह कहकर आलोचना की थी कि यह घोषणापत्र देश के सामाजिक स्वरूप को विकृत करने वाला अभिलेख है । वास्तव में यह विधेयक कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के मस्तिष्क की उपज था । जिन्होंने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद एन ए सी से इस विधेयक का स्वरूप तैयार कराया था ।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने 14 जुलाई 2010 को सांप्रदायिकता विरोधी विधेयक का यह स्वरूप तैयार किया था । इसके लिए एक प्रारूप समिति का भी गठन किया गया था । जिसने इसको लिखित स्वरूप प्रदान किया था । 28 अप्रैल 2011 की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक के पश्चात 9 अध्याय और 138 धाराओं में तैयार किए गए इस विधेयक को हिंदी में भी अनुवादित किया गया । जब इसे जारी किया गया तो इस पर तुरंत लोगों की नकारात्मक प्रतिक्रिया आनी आरंभ हो गई थी । सरकार ने इसे 2011 के शीतकालीन सत्र में लाने की तैयारी की थी और सोनिया गांधी के निर्देश पर चल रही मनमोहन सरकार ने भरपूर प्रयास किया था कि इसे यथावत अर्थात सोनिया गांधी की इच्छा के अनुरूप संसद के शीतकालीन सत्र में ही पारित करा लिया जाए । इस पर देश के कई राजनीतिक दलों ने भी आपत्ति की शिवसेना व भाजपा जैसी कई पार्टियों ने इस विधेयक के प्रारूप पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की । 
इसके पश्चात इस विधेयक को कांग्रेस संसद में पारित तो नहीं करा सकी , परंतु उसने अपने घोषणापत्र में इसे स्थान देकर यह अवश्य सिद्ध करने का प्रयास किया कि वह अपने द्वारा लाए गए इस विधेयक को जनादेश में परिवर्तित कर देना चाहती हैं । कांग्रेस चुनावों के समय इस विधेयक पर जनता के न्यायालय में उपस्थित हुई और अपने घोषणा पत्र में स्थान देकर उसने प्रयास किया कि यदि जनता उसे फिर से एक बार देश की बागडोर सौंप दे तो उसका अर्थ होगा कि देश की जनता इस विधेयक के पक्ष में है । कांग्रेस का यह सपना साकार नहीं हो सका और 2014 में देश के मतदाताओं ने उसे सत्ता से दूर कर दिया। हम इस विधेयक के कुछ विशिष्ट प्रावधानों पर यहां चर्चा करेंगे । जिससे कि यह स्पष्ट हो सके कि कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी का 2014 के आम चुनावों के समय इस विधेयक संबंधी प्रस्ताव को अपने घोषणापत्र में डालने का उद्देश्य क्या था ? 
इस विधेयक में पहले से ही यह बात मान ली गई थी कि हिंसा केवल बहुसंख्यक वर्ग की ओर से ही हो सकती हैं। इस प्रावधान या विचार से या मान्यता से यह स्पष्ट था कि श्रीमती सोनिया गांधी और उनकी पार्टी कांग्रेस की तत्कालीन सरकार यह मानकर चल रही थी कि हिंसक केवल बहुसंख्यक ही होते हैं , अल्पसंख्यक नहीं। यह सोच सोनिया गांधी को कहां से मिली ? – यदि इस पर चिंतन करें तो पता चलता है कि उन्हें यह सोच यूरोप से मिली । क्योंकि वहां पर बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करने वाला ही होता है। सोनिया गांधी को नहीं पता कि भारत और भारत के लोग बहुसंख्यक होकर भी अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करने वाले नहीं होते । इसका कारण यह है कि भारत के लोगों के मन मस्तिष्क में अहिंसा के प्रति श्रद्धा भाव कूट कूट कर भरा होता है । उनके मानवतावाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उनकी अपनी अनोखी अवधारणा उन्हें किसी भी अल्पसंख्यक के प्रति अत्याचारी , दमनकारी या हिंसाचार वाला बनने ही नहीं देती । अतः भारत के बहुसंख्यकों के प्रति सोनिया गांधी का यह दुराग्रह और पूर्वाग्रह नितांत भ्रामक अवधारणाओं पर आधारित था । इसके पीछे कोई तर्क नहीं था , कोई सत्य नहीं था ,कोई तथ्य नहीं था । भारत के बहुसंख्यकों को ऐसा मानना उनके साथ अत्याचार करना है । देश अल्पसंख्यकों ने बँटवाया और कई बार अल्पसंख्यकों के नेताओं की ओर से आज भी ऐसे वक्तव्य आ जाते हैं जो देश तोड़ने वाले हो सकते हैं । ऐसी परिस्थितियों में विधेयक की यह गुप्त मान्यता निश्चित ही निंदनीय थी । यदि कांग्रेस इस धारणा को अपने चुनावी घोषणा पत्र में ला रही थी तो यह निश्चित ही देश के लिए घातक सिद्ध हो सकता था।

विधेयक में समूह की परिभाषा
इस विधेयक में समूह से तात्पर्य है पंथिक या भाषाई अल्पसंख्यकों से है । जिसमें आज की परिस्थितियों के अनुरूप अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को भी सम्मिलित किया जा सकता है । पूरे विधेयक में सबसे अधिक आपत्तिजनक बिंदु यही था कि इसमें बहुसंख्यक समुदाय को समूह की भाषा से अलग रखा गया था । निश्चित रूप से इस पर आपत्ति करना उचित ही था । देश के बहुसंख्यक वर्ग को समूह न मानना राजनीतिक और नैतिक किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता । इसमें राजनीतिक दूरदर्शिता का अभाव था और समाज को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दो वर्गों में बांटकर रख देने की एक ऐसी अवधारणा थी जो भविष्य में इस देश के पुनः टुकड़े करा सकती थी । कांग्रेस को चाहिए था कि वह अतीत से कुछ शिक्षा लेती और यह मानती कि जिन अनुचित , अतार्किक और अप्राकृतिक तथ्यों ने भारत का पूर्व में विभाजन कराया उन्हें पुनः नहीं दोहराया जाएगा । कॉंग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को ऐसे विधेयक में अपराधों के और अपराधियों के ऐसे प्रत्येक वर्ग या समूह को दंडित करने का विधान करना चाहिए था जो किसी भी प्रकार से देश की एकता और अखंडता को विकृत करने के प्रयासों में लगे हुए दिखते हैं । इसमें वह जातीय और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर सोचने का प्रयास करती और समूह में उन लोगों को रखती जो देश की मुख्यधारा में विश्वास रखते हैं , देश की एकता और अखंडता के प्रति समर्पित हैं और देश को किसी भी प्रकार से क्षतिग्रस्त न तो करना चाहते हैं और न करने वालों का साथ देते हैं । 

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति संबंधित अपराध 
श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा तैयार कराए गए इस विधेयक के खंड 6 में यह स्पष्ट किया गया था कि इस विधेयक के अंतर्गत अपराध उन अपराधों के अतिरिक्त है जो ‘ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण ) अधिनियम 1989 ,’ – के अधीन आते हैं । 
इस विधेयक के विरोधी इस बात पर भी आपत्ति व्यक्त कर रहे थे । उनका कहना था कि क्या किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित किया जा सकता है ? वर्तमान में लोकतांत्रिक समाज में ऐसी व्यवस्था किसी भी देश में स्वीकार नहीं की जा सकती । दुर्भाग्य से सोनिया गांधी भारत देश के लिए ऐसी व्यवस्था लाना चाहती थी । लोकतंत्र के नाम पर जब मानवाधिकारवादी संगठन हमारे देश में भी और विश्व के अन्य देशों में भी बहुत सक्रियतापूर्ण भूमिका निभा रहे हो और किसी भी व्यक्ति को अपेक्षा से अधिक दंड दिए जाने पर अपनी आपत्ति व्यक्त करते हैं । तब ऐसा कैसे हो सकता था कि किसी व्यक्ति को दो बार एक ही अपराध में दंड दिया जा सकता था या दिया जा सकता है । अतः यह आपत्ति भी उचित ही कही जाएगी।

यौन संबंधी अपराध
इस विधेयक के खंड 7 में किसी व्यक्ति को उन परिस्थितियों में यौन संबंधी अपराध के लिए दोषी माना जाएगा यदि वह किसी समूह से संबंध रखने वाले व्यक्ति के जो उस समूह का सदस्य है , विरुद्ध कोई यौन अपराध करता है । परंतु यदि पीड़ित उस समूह का सदस्य नहीं है तो यह अपराध नहीं माना जाएगा । श्रीमती सोनिया गांधी की एनएसी के द्वारा विधेयक में यह प्रावधान भी बहुत ही कष्टकारी था। क्योंकि विधेयक के इस प्रावधान का सीधा प्रभाव यह होना था कि यदि सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में किसी हिंदू महिला के साथ कोई यौन अपराध अथवा बलात्कार अल्पसंख्यकों के द्वारा होता है तो यह अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा ।
श्रीमती सोनिया गांधी स्वयं एक महिला हैं । ऐसे में उन से यही अपेक्षा की जा सकती है कि उन्हें महिलाओं के प्रति पूर्ण सहानुभूति का प्रदर्शन करना चाहिए था । इस देश का इतिहास क्या बताता है ? और ऐसे लोग कौन रहे हैं जिन्होंने छोटे-मोटे दंगों के दौरान भी इस देश के बहुसंख्यक वर्ग की माता बहनों के साथ घृणास्पद अपराध किए हैं ,उन्हें अमानवीय यातनाएं दी हैं और अपने पाशविक अत्याचारों से इतिहास के पृष्ठों को काला किया है ? – यदि श्रीमती सोनिया गांधी यह समझ लेती और वर्तमान में भी जम्मू कश्मीर में हो रहे महिलाओं पर अत्याचारों के पीछे किस संप्रदाय के लोगों का मस्तिष्क काम कर रहा है ? – इस पर भी थोड़ा विचार लेतीं तो वह ऐसा प्रस्ताव कभी भी अपने उस विधेयक में न डालतीं । उन्होंने बहुसंख्यक वर्ग की महिलाओं के प्रति कितना उपेक्षा पूर्ण प्रावधान या प्रस्ताव इस विधेयक में डाला , इससे उनकी बहुत आलोचना हुई । उन्होंने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि वह हिंदू महिला जो ऐसे बलात्कार का शिकार हो सकती थी वह समूह की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आती थी । इस प्रकार सोनिया गांधी का यह विधेयक देश की बहुसंख्यक महिलाओं को किसी भी सांप्रदायिक उन्माद का बहुत सहजता से शिकार बनाने के लिए पर्याप्त था। इसे वह 2014 के आम चुनावों के समय अपने दल के चुनावी घोषणा पत्र में स्थान दे रही थीं तो स्पष्ट था कि वह देश की बहुसंख्यक महिलाओं के साथ क्या करने जा रही थी ? – निश्चय ही वह उनके साथ अन्याय , अत्याचार ,दमन ,उत्पीड़न और पाशविकता की उसी श्रृंखला को पुनः खोल देना चाहती थीं जो यहां पर तुर्कों , यवनों, मुगलों और अंग्रेजों के शासन काल में उन्होंने झेंली थी। 

कांग्रेस के उपरोक्त विधेयक में आठवें खंड में यह निर्धारित किया गया था कि घृणा संबंधी प्रचार उन परिस्थितियों में अपराध माना जाएगा जब कोई व्यक्ति मौखिक रूप से या लिखित रूप से या स्पष्टतया अभ्यावेदन करके किसी समूह या किसी समूह में संबंध रखने वाले व्यक्ति के विरुद्ध घृणा फैलाता है । पुनश्च समूह द्वारा बहुसंख्यकों के विरुद्ध घृणा फैलाने की स्थिति में यह विधेयक मौन था।
स्पष्ट था कि यहां पर भी कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ( एनएसी ) द्वारा लाए गए इस विधेयक में दोष् था । विधेयक का यह प्रावधान भी बहुसंख्यको पर अत्याचार करता हुआ स्पष्ट दिखाई दे रहा था । उसका बहुसंख्यको के प्रति मौन रहना यह स्पष्ट करता था कि एनएसी की सारी टीम ही बहुसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर कार्य कर रही थी । उन्होंने यह मान लिया था कि भारत का बहुसंख्यक ही प्रत्येक परिस्थिति में दोषी हो सकता है । विश्व के किसी भी देश की ऐसी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्यों का देश के बहुसंख्यक समाज के प्रति इतना पूर्वाग्रही चेहरा और चिंतन संभवत: देखने को नहीं मिल सकता , जितना भारत में यूपीए-2 की सरकार के समय उसकी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्यों का चिंतन हमें अपने ही देश के बहुसंख्यक वर्ग के लोगों के प्रति दिखाई दे रहा था।

यातना दिए जाने संबंधी अपराध
कांग्रेस द्वारा लाए जाने वाले उपरोक्त विधेयक के खंड 12 में यातना दिए जाने संबंधी अपराध का वर्णन किया गया था । कोई सरकारी कर्मचारी किसी समूह से संबंध रखने वाले व्यक्ति को यदि पीड़ा पहुंचाता है या मानसिक या शारीरिक चोट पहुंचाता है तो उसके साथ कैसा व्यवहार कानून करेगा इस पर इस खंड में विचार किया गया था । 
इस खंड पर विचार करते हुए विरोधी पक्ष का कहना था कि यदि कोई अल्पसंख्यक किसी बहुसंख्यक को पीड़ा पहुंचाता है या मानसिक या शारीरिक चोट पहुंचाता है तो उस संबंध में इस विधेयक का मौन रहना आपत्तिजनक है । एक लोकतांत्रिक देश में लोकतांत्रिक चिंतन के अनुरूप ही शासन चलता है । शासन की नीतियों में अल्पसंख्यक – बहुसंख्यक या जातीय और सांप्रदायिक समूह अथवा वर्ग नहीं होते । उनकी दृष्टि में समदर्शिता का भाव होता है । ऐसी न्यायपूर्ण समदर्शिता का भाव प्रत्येक राजनीतिज्ञ को और शासक को इस बात के लिए प्रेरित करता है कि वह अपने देश के नागरिकों के बीच न्याय करते हुए केवल अपराध और अपराधी को देखेगा । वह बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के चक्कर में नहीं पड़ेगा । जहां पर शासक वर्ग की ऐसी समदर्शी भावना होती है , वहीं पर विधि का शासन स्थापित होता है । इसी को हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में ‘धर्म का शासन ‘ कहा गया है । कितना अच्छा होता कि कांग्रेस अपने इस विधेयक के माध्यम से भारत के प्राचीन ‘धर्म के शासन ‘ संबंधी सूत्रों को समाविष्ट करती और देश के लोगों को यह विश्वास दिलाती कि वह धर्म का शासन स्थापित करने की दिशा में ठोस कार्य करेगी । जिसमें वह केवल और केवल अपराध और अपराधी को ही देखने का प्रयास करेगी और अपने इस धर्म के शासन के माध्यम से देश के सभी नागरिकों को समदर्शी न्याय प्रदान करने का हर संभव प्रयास करेगी।
खंड 13 में किसी सरकारी व्यक्ति को इस विधेयक में उल्लिखित अपराधों के संबंध में अपने कर्तव्य निर्वाह में शिथिलता के प्रदर्शन के लिए दंडित किए जाने का प्रावधान रखा गया । इसका अभिप्राय था कि सरकारी व्यक्ति को इस विधेयक में उल्लिखित अपराधों को उसी भाषा और उसी दृष्टिकोण से लागू करना अनिवार्य था जिस भाषा और दृष्टिकोण से सरकार उसे लागू करना चाह रही थी । एक प्रकार से यहां पर सरकारी व्यक्तियों के विवेक पर भी पहरा बैठा दिया गया था । उन्हें वही करना था जो सरकार उनसे कराने जा रही थी । 
ऐसी सोच निश्चय ही तानाशाही प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाली होती है । इससे शासन के साथ – साथ प्रशासन में बैठे लोग अपने मन – मस्तिष्क को गिरवी रख कर और आत्मा को बेचकर कार्य करने की शैली में ढल जाते हैं । ऐसी कार्यशैली को अपनाना उनके लिए अनिवार्य कर दिया जाता है । ऐसी स्थिति को आप किसी भी रूप में लोकतांत्रिक नहीं कह सकते , और कांग्रेस थी कि इसी प्रकार की कार्यशैली को लागू करने के लिए अपने चुनावी घोषणा पत्र में इस विधेयक को लाने का वायदा लोगों से कर रही थी।
इस विधेयक के खंड 14 में उन सरकारी व्यक्तियों को दंड देने का प्रावधान रखा गया था जो सशस्त्र सेनाओं अथवा सुरक्षाबलों पर नियंत्रण रखते हैं और अपनी कमान के लोगों पर प्रभावी ढंग से अपने कर्तव्य निर्वाह हेतु नियंत्रण रखने में असफल रहते हैं ।इस खंड का समीक्षकों ने इस आधार पर विरोध किया कि इससे सशस्त्र बलों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। 
खंड 15 में प्रत्यायोजित दायित्व का सिद्धांत रखा गया है । किसी संगठन का कोई वरिष्ठ व्यक्ति अथवा पदाधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर नियंत्रण रखने में यदि असफल रहता है तो यह उस द्वारा किया गया एक अपराध माना जाएगा । वह उस अपराध के लिए प्रत्यायोजित रूप से उत्तरदाई होगा , जो कुछ अन्य लोगों द्वारा किया गया है ।इस प्रकार यदि किसी संगठन का एक भी व्यक्ति अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध किसी अपराध में लिप्त पाया जाता है तो पूरे संगठन को दंडित किया जा सकता है।
निश्चय ही इस प्रकार की सोच यदि शासक वर्ग के द्वारा या प्रशासन के लोगों के द्वारा किसी एक वर्ग के प्रति अपनाई जाती है तो इसे पूर्णतया अलोकतांत्रिक ही कहा जाएगा । लोकतंत्र में निष्पक्ष न्याय कार्य करता है और निष्पक्ष न्याय ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया का मूलाधार होता है । यदि कोई शासक या प्रशासनिक अधिकारी लोकतंत्र के इस सिद्धांत की उपेक्षा कर अपने निर्णयों को नागरिकों पर बलात थोपता है तो वह अपने देश के नागरिकों पर अन्याय ही करता है । निश्चय ही लोकतंत्र के इस सिद्धांत को एनएसी की उपरोक्त बैठक में विचारित किया जाना अपेक्षित था और उसी के अनुसार निर्णय लेकर इस विधेयक में उसे स्थान दिया जाना चाहिए था।
इस अधिनियम का प्रारूप श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में 22 सदस्यों वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने तैयार किया था। इस विधेयक के प्रारूप के बनाने वाली समिति के सदस्य गोपाल सुब्रमण्यम , मजा दारूवाला , नजमी वजीरी ,पी आई जोसे ,प्रसाद श्री वेल्ला , तीस्ता सीतलवाड़ , उषा रामनाथन ,वृंदा ग्रोवर ,फरहा नकवी , हर्ष मंदर थे ।
जबकि सलाहकार समिति के सदस्यों में अबू सलेम शरफ़ ,असगर अली इंजीनियर , गगन सेठी , एचएस फुल्का, जॉन दयाल ,न्यायमूर्ति हॉस्बेत , सुरेश आदि सहित कुल 19 सदस्य थे । विधेयक के अनुसार संगठित , सांप्रदायिक और लक्षयित हिंसा का होना भारत के संविधान के अनुच्छेद 355 के अर्थ के अंतर्गत आंतरिक अशांति गठित करेगा और केंद्र सरकार के अधीन उल्लेखित कर्तव्यों के अनुसार ऐसे उपाय कर सकेगी जो प्रकरण की प्रकृति और परिस्थितियों के संबंध में इस प्रकार अपेक्षित हो । इसी आधार पर दिल्ली में हुई मुख्यमंत्रियों की बैठक में अधिकांश गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने इस विधेयक का यह कहकर विरोध किया था कि इसका भविष्य में कोई भी राजनीतिक दल राजनीतिक दुरुपयोग कर सकता है ।
जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने उस समय इस विधेयक का विरोध करते हुए दिल्ली पुलिस में 24 अक्टूबर 2011 को एक प्राथमिकी दर्ज कराई । जिसमें सोनिया गांधी और राष्ट्रीय सलाहकार समिति के विरुद्ध आरोप लगाया गया कि सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा निवारण विधेयक बनाकर भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को क्षतिग्रस्त करने का प्रयास उनके द्वारा किया गया है। उन्होंने कहा कि हिंदुओं और मुस्लिमों के मध्य सांप्रदायिक सौहार्द को समाप्त करने का प्रयास इस विधेयक के माध्यम से किया जा रहा है । डॉ स्वामी ने अपने कथन में यह भी कहा था कि कार्यवाही ना होने की स्थिति में वह उच्च न्यायालय भी जाएंगे ।बात स्पष्ट थी कि डॉक्टर स्वामी किसी भी स्थिति में इस विधेयक को भारत की राजनीतिक परंपरा और लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत मानते थे । वह श्रीमती सोनिया गांधी के राजनीतिक उद्देश्यों को समझ रहे थे और उनके अनुसार शासन चलाने के विरोधी थे।
भारत के निर्वाचन आयोग को यह नियम प्रतिपादित करना चाहिए कि वह किसी भी राजनीतिक दल के द्वारा जारी होने वाले चुनावी घोषणा पत्र को स्वयं अवलोकित करेगा । इस संबंध में भारत के निर्वाचन आयोग को एक विशेषज्ञों की समिति भी गठित करनी चाहिए । जिस में संविधानविदों और लोकतांत्रिक मूल्यों को गहराई से समझने वाले विद्वानों को स्थान दिया जाए । भारत का निर्वाचन आयोग इस समिति से किसी भी राजनीतिक दल के चुनावी घोषणापत्र का सम्यक विवेचन ,समीक्षा और अध्ययन कराए ।वह तभी किसी राजनीतिक दल को अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी करने की अनुमति दे जब वह चुनावी घोषणा पत्र भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों के सर्वथा अनुकूल हो और भारत के लोगों के मध्य जातीय , सांप्रदायिक या किसी भी प्रकार की विभेदकारी नीति को प्रोत्साहित करने वाला नहीं होगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here