सांप्रदायिक कौन है?

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-अब्दुल रशीद- communal-riots
संसद में व सड़क पर एक शब्द बार-बार उछाला जाता रहा है और वह शब्द है “सांप्रदायिक”। जब भी यह आवाज उठती है, चर्चा-ए-आम हो उठती है और आबोहवा के गर्म हो जाने का खतरा उठ जाता है। कांग्रेस हो या भाजपा, सपा हो, बसपा हो, या राजद, सभी ने इस शब्द का इस्तेमाल अवश्य किया है। सियासी चालों में इसका प्रयोग किया जाना भले ही सियासत के लिये मजबूरी हो, लेकिन रियाया के स्वास्थ्य के लिये खतरनाक विषाणू ही साबित हुआ है। धर्म व सम्प्रदाय की राजनीति नहीं करने का दावा देश के सभी राजनैतिक दलों का है। इस दावे के आधार पर ऐसा कोई भी राजनीतिक दल नहीं है जो सेक्यूलर न हो। इन सब दावों के बावजूद हिन्दूस्तान में धर्म और सम्प्रदाय की सियासत बढ़ती ही जा रही है। स्थिति अब यहां तक आ पहुंची है कि लगभग हर राजनैतिक दल खुलेआम एक दुसरे पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाने लगे हैं। शायद यही कारण है कि हर धर्म के सम्प्रदाय में बहुत से स्वयं-भू धार्मिक ठेकेदार पैदा हो चले हैं और पैदा होते जा रहे हैं। लगभग हर सरकार इन्हें लिफ्ट देती आई है। तथाकथित धर्म के ठेकेदार न केवल राजनैतिक दल को वोट के मायाजाल से प्रभावित कर अपना उल्लू सीधा करते हैं बल्कि भोली भाली जनता में से दिगभ्रमित लोगों को प्रभाव में लेकर उन्माद फैलाने से भी गुरेज नहीं करते. क्योंकि कोई भी स्वस्थ मानसिकता उन्माद का पक्षधर नहीं होता। ऐसे में यह सवाल उठना अब लाजिमी है कि “सांप्रदायिक” है कौन।
हिन्दू को हिन्दु, मुसलमान को मुसलमान तथा ईसाई को ईसाई होने का बोध कराया जाना ही सांप्रदायिकता है। एक क्षेत्र, एक देश में निवास करने वाले लोग बन्धुत्व भावना के साथ साथ अच्छे पड़ोसी के रूप में मानवीय दृष्टिकोण के साथ-साथ रहकर अनेकता में एकता का प्रदर्शन करते हुए जीवन-यापन करते हैं। समाजिकता की इस भावना को तोड़ना एवंं एक को पाकिस्तानी मूल का तथा दूसरे को हिन्दुस्तानी मूल के होने का एहसास कराया जाना ही सांप्रदायिकता है। निहित स्वार्थ में यह भावना तो इस देश में कई बार तोड़ा गया है और टूटा है। यह अखण्ड भारत चार हजार वर्षों तक गुलामी में जिया। द्रविड़, आर्य , मुगल व अंग्रेज इन सभी ने अपने-अपने प्रभाव काल में इस देश पर शासन किया। यहां जाजिया कर भी लगे व बलात धर्म परिवर्तन भी हुए, फिर भी धार्मिक उन्माद संक्रामक स्तर तक न पहुंच सका। आज जब सत्ता के लिए कुछ भी करने को आतुर राजनैतिक दल भावनाओं से खेल रहे हैं तो यह सवाल सभी के ज़ेहन में कौंध रहा है, आखिर “साम्प्रदायिक” है कौन।
काश, इस देश को सत्ता हस्तांतरण लोकतांत्रिक तरीके से मिल-बैठकर किया गया होता। हिन्दुस्तान ने महात्मा गांधी पर विश्वास किया और महात्मा गांधी ने जवाहर लाल नेहरू पर। लौहपुरूष सरदार गोविन्द वल्लभ भाई पटेल स्वराज मंत्री बने और 368 रियासतों का अखण्ड हिन्दुस्तान बनाया, परन्तु प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर को राष्ट्रसंघ में पहुंचा दिया। हिन्दुस्तान व पाकिस्तान का भवनात्मक झगड़ा बस यहीं से शुरू हो गया। कश्मीर को पाकिस्तान बनाने की हरसंभव कोशिश में पाकिस्तानी सियासतदानों के एजेन्टों ने भारतीय मुसलमानों के बीच धार्मिक ध्रुवीकरण व नफरत का बीज बो दिया। हिन्दुस्तान में बसे पाकिस्तानी मानसिकता के लोगों को नफरत फैलाने का सुनहरा मौका जा मिला और दोनों तरफ ध्रुवीकरण होता रहा। दो सगे भाइयों में भी लड़ाई झगड़ा व खूनी संघर्ष कभी-कभार होता रह सकता है तो हिन्दुस्तानी जमीन पर सह-अस्तित्व में रह रहे हिन्दू मुसलमान पड़ोसियों में इस तरह के झगड़ों को अस्वभाविक कैसे कहा जा सकता है। हां, शर्त यह कि हर हिन्दुस्तानी एक भाई-भाई, पड़ोसी व अपने को हिन्दुस्तानी मान ले। सियासतदान भाई-भाई के आपसी झगड़े को कोई और रंग देने में दिलचस्पी दिखाते हैं, कारण सत्ता सुख।
एफडीआई, 2-जी घोटाला अथवा न्युक्लियर डील जैसे जनहित के मुद्दे लोकसभा में भले ही उठे हों, सियासतदानों के लिये ये मुद्दे कभी देश हित के नहीं रहे। संसद में अविश्वास प्रस्तावों पर भले ही बहसें मुखर हुईं हों, परन्तु मतदान तो सियासती आधार पर ही हुए हैं। सियासत चालों की आड़ भी ‘सांप्रदायिकता’ ही हर बार बनी। आरएसएस विचारधारा से ओत-प्रोत भारतीय जनता पार्टी को न सिर्फ बसपा, बल्कि सपा ने भी सांप्रदायिक करार दिया है। यह ठीक है कि बसपा सरकार में दंगे न हो सके, परन्तु कथित इसी सांप्रदायिक पार्टी के साथ बसपा सरकार चला चुकी है। अपने कार्यकाल में कई दंगे झेल चुकी सपा भी तो भाजपा के साथ सरकार चला चुकी है। सपा सरकार में हुए दंगे क्या सपा को सांप्रदायिक नहीं दिखती ? कांग्रेस जब यह कहती है कि “भाजपा मुसलमानों को टिकट नहीं देती”तो यह कहकर क्या कांग्रेस अपने सम्प्रदायिक होने का प्रमाण नहीं दे रही होती।
सांप्रदायिक उन्माद का जो बीज अंग्रेजों ने बोया और जवाहर तथा जिन्ना ने जिसे हवापानी दिया उस लहलहाती फसल को हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में आज धड़ल्ले से काटा जा रहा है। आजादी मिलने की पृष्ठभूमि में सनसीन हो जाने की ललक ने हिन्दू मुसलमानो में इतनी नफरत भर दी गई कि खून से लथपथ अपनों की लाशों के बीच से निकलते हुए अपने इच्छित देशभूमि को जाने को मजबूर रहे। अधिकांश मुसलमान पाकिस्तान व अधिकांश हिन्दु हिन्दुस्तान गये, परन्तु कुछ ऐसे भी लोग थे जो न पाकिस्तान गये न हिन्दुस्तान आये। वो वहीं के बनकर रह गये जहां पहले आबाद थे व वहां की आवोहवा उन्हें वहीं रहने को मजबूर कर दी थी। आज ऐसे लोगों के बीच नफरत फैल रही है, आखिर क्यों ? आजादी के 6 दशक बाद भी ऐसे हालात क्यों? सियासतदान इस लोकतांत्रिक सियासत में भी “सांप्रदायिक सांप्रदायिक” खेल धड़ल्ले से खेल रहे हैं और अवाम इस नफ़रत की आग से झुलस रहा है। आज़ादी के 6 दशक तक वोटबैंक बनकर रहने वाले कौम के हालत इस सियासी सांप्रदायिक खेल के महज़ बानगी भर है।काश देशवासी यह समझने लगे कि सांप्रदायिकता के बयान केवल सियासी और चुनावी दांव-पेच होते हैं।

3 COMMENTS

  1. कमेन्ट देने के लिए शुक्रिया महेंद्र जी, राजेश जी
    मैं अपने कर्म करने में यकीं करता हूँ सो कर रहा हूँ.आपलोगों को साथ रहा तो और अच्छा लिखने की कोशिश करूँगा. रही बात औरों की सोंच का तो बदलेगी आज नहीं तो कल.क्योंकि सच्चाई से कोई ज्यादा देर तक मुंह नहीं फेर सकता.

  2. सही विश्लेषण किया है आपने। वस्तुतः वे सब सांप्रदायिक है जो दुसरे पर ये आरोप लगा अपना वोट बैंक बनाना चाहते है। हिन्दू मुसलमान ईसाई को याद दिल वे उन्हें अपने धर्म दायरे तक सीमित कर चुके है और उस से बाहर नहीं निकलने देना चाहते अनावश्यक हंगामा खड़ा कर देश को बाँटना घृणा फैलाना इन दलों का अपनी दूकान काबिज रखने का मात्र एक स्रोत बन गया है अब स्वयं लोगों को ही इस पर व्यापक सोच के साथ नजर डालनी चाहिए कि इन हिमायतदारों ने किस के लिए क्या किया?अन्यथा ये दल उन्हें अपनी पूंजी समझ विश्वासघात करते रहेंगे और ये मोहरे बन उनका , उनके स्वार्थों का पोषण करते रहेंगे

  3. Rashid ji sab aap jesi soch nahi rakate hai yahi karan ha ki desh me vikas ki bat koi nahi karta hai sab apne aap ko secular or dusre ko sampradayik ka certificate de rahe hai

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