भारतीयसंविधान का अनुच्छेद 370 बार फिर चर्चा में है। राष्ट्रीय स्तर पर यहचर्चा या बहस छिडऩा नितांत स्वाभाविक है। ऐसा इसलिए चूंकि इस देशविरोधीसंवैधानिक प्रावधान का खुल कर विरोध करती रही भारतीय जनता पार्टी का इस समयदेश में शासन है। अनुच्छेद तीन सौ सत्तर के अप्रासांगिक, अनुपयोगी और राज्यके विकास में बाधा होने की बात नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान हीइस विमर्श का बीजारोपण कर दिया था। उनके प्रधानमंत्री पद पर आसीन होते हीवह विमर्श आगे बढ़ चला है। संविधान का यह अनुच्छेद रहे या जाए ? इसे समाप्तहोना है तो किस विधि से ? इसके बने रहने से राज्य ने अब तक क्या खोया है औरक्या पाया? ऐसे तमाम सवालों पर उस अंदाज में तीव्र मंथन चल निकला है, जिसशैली में कांग्रेस व उसके मित्रदलों के शासन में कभी नहीं चला।
नई बहस और विमर्श का यह दौर इसअनुच्छेद को लेकर आमजन और यहां तक कि खुद को सियासत के दिग्गज मानने वालेलोगों के मनों में भी मौजूद कुछ भ्रांतियों को दूर करने के लिए उपयुक्तसमय है। भ्रांतियों के पिटारे में सबसे बड़ी भ्रांति तो खुद फारूख अब्दुल्लाके राजनीतिक कुनबे के दिलोदिमाग में बसी हुई नजर आती है जो इस अनुच्छेदका सीधा संबंध राज्य के भारत में विलय से बता रहा है।
प्रदेश की सत्ता पर उमर केनेतृत्व में काबिज पूर्ववर्ती मुस्लिम कांफ्रेंस के मौजूदा नेशनल कांफ्रेंस नामक अवतार रूपी इस कुनबे को प्रदेश की अधिकांश राजनीतिक गांठोंके लिए दोषी ठहराया जा सकता है। उमर के दादा शेख और तत्कालीन प्रधानमंत्रीजवाहरलाल नेहरू की अपवित्र सियासी सांठगांठ के चलते प्रदेश व देश ने बीतेकरीब पौने सात दशकों में बहुत कुछ झेला है, यह बात भी किसी से छिपी नहींहै।
उसी देशघाती विरासत का बोझकांधे पर उठाए फिर रहे मुख्यमंत्री उमर इस अनुच्छेद पर चर्चा की बात आते हीअपनी कुल परंपरा के अनुसार देशद्रोह की बोली बोलने लगे हैं। उमर ने तो यहांतक कहने का दुस्साहस कर डाला है कि अनुच्छेद तीन सौ सत्तर नहीं रहेगा तोकश्मीर भारत का अंग नहीं रहेगा। अभिप्राय यह कि यह शख्श सीधे तौर पर देश कीअखंडता और संवैधिानिक संप्रभुता को चुनौती दे रहा है।
इस संबंध में भ्रम उमर को भी हैऔर उन के अल्फाजों से किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि जम्मू कश्मीर काभारत में विलय इस अनुच्छेद की नींव पर टिका हुआ है। अर्थ यह कि अनुच्छेदतीन सौ सत्तर हटा नहीं कि प्रदेश भारत का अंग नहीं रहेगा। उमर से कुछ मिलतीजुलती शब्दावली पीडीपी नेता महबूबा मुफ़्ती और कुछ अन्य पाक-परस्तअलगाववादियों की भी है। जिन लोगों को स्वाधीनता प्राप्ति के समय प्रदेश केभारत में विलय के दौर के घटनाक्रम की जानकारी नहीं वे भी सहज ही इस बात परयकीन कर लेंगे कि विलय और अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को सीधा संबंध है औरअनुच्छेद समाप्त होते ही प्रदेश का भारत से विच्छेद स्वत: हो जाएगा।
इस प्रकार को आभास देने वालेऔर ऐसे किसी भ्रमजाल में जीने वाले उमर समेत तमाम लोगों को जान लेना चाहिए (अगर वे जानबूझ कर अनजान नहीं बने हुए हैं तो) कि भारत में जम्मू कश्मीर कीरियासत का विलय तो २६ अक्तूबर १९४७ को पूर्ण रूपेण उस समय हो गया था। इसदिन रियासत के तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह ने अपनी रियासत के भारत मेंविलय के लिए विलय पत्र पर दस्तखत कर दिए थे। अगले रोज माउंटबेटन ने विलय कोबतौर गर्वनर जनरल मंजूर भी कर लिया। इसके विपरीत विवादास्पद अनुच्छेदसंविधान के लागू होने अर्थात २६ जनवरी १९५० को प्रभाव में आया। जब विलयपत्र में इस अनुच्छेद का और इस अनुच्छेद में विलय पत्र का कोई जिक्र तकनहीं फिर उमर और उनके जैसे लोग कैसे दोनों के बीच अटूट रिश्ता जोड़ रहेहैं।
भारत के आम जन के मनों में कुछछद्म बुद्धिजीवियों ने यह भ्रामक बात भी बीते कुछ वर्षों के दौरान छलपूर्वकठूंसने की साजिश रची कि भारत में अपनी रियासत का विलय करते हुए महाराजा नेकोई शर्तें रखी थी। सपाट और निर्विवाद तथ्य यह है कि जम्मू कश्मीर का भारतमें विलय ठीक उसी प्रकार बिना ऐसी किसी शर्त के किया गया था जो इस राज्य कोकोई विशेष दर्जा देती हो। महाराजा एकमात्र शख्श थे जिन्हें विलय करने काकानूनी हक था। उन्होंने विलय ठीक वैसे किया जैसा दूसरी देसी रियासतों केराजाओं ने किया था।
भारत में राज्य के विलय पर आजसवाल उठाने का दुस्साहस करने वाले इस ऐतिहासिक घटनाचक्र को कतई झुठला नहींसकते। फिर कालचक्र वहीं तो नहीं थमा। कालांतर में जब प्रदेश की संविधानसमिति बनी तो उसने राज्य के संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट लिखा है किराज्य का भारत में विलय २६ अक्तूबर १९४७ को हो चुका। इस स्थान पर भी कहींअनुच्छेद तीन सौ सत्तर का कहीं उल्लेख नहीं है। फिर न जाने किस लिए यहसियासी छलिया बारंबार विलय का संबंध इस अनुच्छेद से जोड़ रहे हैं।
राज्य के संविधान की धारा तीनका उल्लेख भी यहां करना आवश्यक है। इसमें स्पष्ट रूप से अंकित है कि जम्मूकश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। इसी प्रांतीय संविधान मेंआगे यह साफ उल्लेख है कि प्रदेश की विधानसभा इस धारा में कोई संशोधन करनेमें सक्षम नहीं है।
ऐसे में यह कहना तर्कपूर्ण औरतथ्यपूर्ण होगा कि अगर अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को आज संविधान के संशोधन अथवाराष्ट्रपति के आदेश से समाप्त कर दिया जाए तो भी भारतीय संविधान काअनुच्छेद एक और राज्य के संविधान की धारा यथावत रहेंगे। ऐसे में संवैधानिकरूप से विलय पर भला कैसे कोई सवाल खड़ा कर सकता है। राम जाने उमर कैसे यहकहते घूम रहे हैं कि यह अनुच्छेद ही एकमात्र सूत्र है जो भारत को उसकेसिरमौर राज्य जम्मू कश्मीर से जोड़ता है।
यदि महज कानून और विधान की बातकी जाए तो भारत का जम्मू कश्मीर से सीधा और अटूट संबंध वह विलय पत्र जोड़ताहै जिस पर महाराजा हरि सिंह ने दस्तखत किए थे। विलय पत्र एक निर्विवादवैधानिक दस्तावेज है। उस पर आज तक किसी ने कोई प्रश्न खड़ा नहीं किया।सिवाय इस भ्रम के कि उसमें कोई शर्त या शर्तें थी जो राज्य के लोगों कोअपना भविष्य तय करने का हक देती हों। विलय निस्संदेह बिना ऐसी किसी शर्त केथा। जिस विलय पत्र पर महाराजा ने दस्तखत कर अपनी रियासत को भारत मेंमिलाया था वह उनके नाम और पदनाम को छोड़ कर हूबहू वैसा था जैसे प्रपत्र काउपयोग दूसरे राजाओं, नवाबों व महाराजाओं ने अपनी अपनी रियासत को भारत मेंमिलाने के लिए किया था।
जम्मू कश्मीर के भारत के साथवैधानिक रिश्ते का अगला बड़ा सूत्र भारत का संविधान है जिसके पहले हीअनुच्छेद में भारत के एक राज्य के रूप में इस प्रदेश का स्पष्ट उल्लेख है।वहां इस संबंध को जोडऩे में अनुच्छेद तीन सौ सत्तर की किसी भूमिका का कोईजिक्र नहीं। उमर अब्दुल्ला अगर स्वयं को भारत के संविधान से ऊपर मानते हैंतो उन्हें एक पल भी सत्ता में बने रहने का अधिकार नहीं है। इसी क्रम मेंतीसरी अहम और अटूट डोर राज्य का अपना संविधान है और उसकी प्रस्तावना वधारा तीन हैं जिसे बदलने का अधिकार राज्य की विधानसभा को भी नहीं है।
अंत में उमर को यह भी समझने कीआवश्यकता है कि राज्य से भारत का रिश्ता महज वैधानिकव संवैधानिक नहीं है।हजारों वर्ष की सांस्कृतिक चेतना की डोर जो भारत के दक्षिणी छोर परकन्याकुमारी को सुदूर उत्तर में हिमालय की गोद में स्थित महर्षि कश्यप कीतपस्थली कश्मीर से जोड़ती है, वह इतनी कमजोर नहीं कि कोई उसे यूं ही झटक कर तोड़ दे।
नेहरु ने देश को कई परेशानिया दी थी. धारा ३७० को निरस्त करने से किसी का बुरा नहीं होगी. जम्मू कश्मीर की प्रगति के लिए इसे निरस्त करना आवश्यक है. बहस का छिड़ना शुभ संकेत है.