कांग्रेस : चिंतन शिविर की चिंताएं ?

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प्रमोद भार्गव

यह अच्छी बात है कि देश का सबसे बढ़ा और सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक दल जयपुर में आयोजित दो दिवसीय चिंतन शिविर में अपना आत्ममंथन करने उतर रहा है। चिंतन के लिए अजेंडे में जो विषय शामिल किए गए हैं, वे मौजूं होने के साथ जनाधार खो रहे राजनीतिक दल के लिए नर्इ दिशा देने का काम कर सकते हैं। क्योंकि इस समय कांग्रेस नेतृत्व विहिनता के दौर से गुजर रही है। भारत की साख को भीतरी व बाहरी स्तर पर बटटा लगा है। सीमा पर पाकिस्तानी सेना चुनौती दे रही है। इस परिप्रेक्ष्य में हमारी कूटनीतिक सार्थकता सामने नहीं आ पा रही है। कर्इ मर्तबा तो झकझोर देने वाली ऐसी अनुभूति होती है कि हम पाकिस्तान के बरक्ष आदमकद होते हुए भी बौने साबित हो रहे हैं। माओवादियों, नक्सलवादियों और आतंकवादियों का आंतरिक संकट न केवल बरकरार है, बलिक ऐसा लगता है कि उनके हौसले और बुलंद हो रहे हैं। अर्थव्यवस्था की जो संरचना बन रही है, उसकी परछार्इं में हम अपनी आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक परिस्थितियों के अनुसार अर्थव्यवस्था को ढालने की बजाए, विदेशी कंपनियों को लाभ पहुंचाने पर आमादा हैं। जनता और खुदरा व्यापारियों के भारी विरोध के बावजूद प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेष को मंजूरी दी गर्इ। जाहिर है, देश के सामने विषम परिस्थितियां मुहंबाए खड़ी हैं और देश के किंकर्तव्यविमूढ़ प्रधानमंत्री दिल्ली में घटी सामूहिक बलात्कार और सीमा पर सैनिकों के सर कलम कर लेने जैसी जघन्य घटनाओं पर मुंह खोलने में हफता-दस दिन लगा देते हैं। ये चंद सवाल हैं जो जनता में आंदोलित हो रहे हैं और जनता इनका माकूल जवाब चाहती है।

इस शिविर में भाग ले रहे 350 प्रतिनिधियों में से 160 युवक कांग्रेस और एनएसयूआर्इ के हैं। जबकि 1998 में पचमढ़ी और 2003 में शिमला में आयोजित चिंतन शिविरों बमुश्किल दर्जन भर युवाओं ने शिरकत की थी। युवाओं की लगभग आधी भागीदारी इस बात का स्पष्ट संकेत है कि 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़े जाने की भूमिका रच दी गर्इ है। हालांकि कांग्रेस के मीडिया प्रभारी जनार्दन द्विवेदी पहले ही साफ कर चुके हैं कि राहुल पार्टी में सोनिया गांधी के बाद नंबर दो की हैसियत रखते हैं, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। राहुल को पार्टी की सबसे शकितशाली चुनाव समिति का प्रभारी पहले ही बना दिया गया है। केंद्रीय मंत्री मनीश तिवारी भी खुला ऐलान कर चुके हैं कि राहुल हमारे नेता हैं और 2014 के चुनावी युद्ध की कमान संभालने के लिए हम उनकी ओर ताक रहे हैं। इस शिविर में शायद सर्वसम्मति से राहुल को चुनावी दायित्व सौंप दिया जाएगा। युवाओं की ज्यादा भागीदारी भी इस बात की ओर इशारा कर रही है कि कांग्रेस की भविष्य की राजनीति में अब पीढ़ीगत बदलाव होने जा रहा है।

चुनाव की कमान राहुल गांधी पर थोपना आसान है। कांग्रेस जिस तरह से नेतृत्व विहिनता के मुहाने पर खड़ी है, उसमें राहुल को नेतृत्व सौंपने की निर्विवाद सहमति बना लेना कोर्इ कठिन काम नहीं है, लेकिन इसके आगे का काम जटिल, चतुरार्इ और चुनौती से भरा है। राहुल अभी तक संप्रग सरकार और कांग्रेस के सामने आ रहे किसी भी संकट या समस्या का समाधान तलाशने में अपनी प्रतिभा नहीं दिखा पाए हैं। दिल्ली की सड़कों की सड़कों पर अन्ना हजारे आंदोलन से लेकर गैंगरेप के प्रतिकार स्वरुप युवाओं में जो गुस्सा फूटा, उससे युवा होने के नाते रुबरु होने की हिम्मत राहुल कभी नहीं जुटा पाए। ऐसे में युवा-कांग्रेसियों के कंधों पर बिठाकर राहुल को सत्ता के शिखर पर पहुंचाने की कोशिशे कैसे सफल हो सकती हैं ? राहुल की अभी तक जो कार्यशैली सामने आर्इ है, उससे यही प्रमाणित होता है कि नेतृत्व करने की चाहत भले ही हरेक इंसान में होती हो, लेकिन किसी राहुल को नेता बनाया नहीं जा सकता ? नेतागिरी के लक्षण तो पैदाइशी होते है। हालिया हुए एक अध्ययन से भी वैज्ञानिकों ने यह साबित किया है कि व्यक्ति में विशेष जीन की मौजूदगी उसमें नेतृत्व क्षमता पैदा करती है। लंदन विश्व विधालय के एक वैज्ञानिक दल ने चार हजार लोगों के डीएनए परीक्षण के बाद यह निष्कर्ष निकाला है। व्यक्ति में इस जीन की मौजूदगी से यह पता चलता है कि व्यक्ति नेतृत्व करेगा अथवा किसी के नेतृत्व की अधीनता स्वीकारेगा। इस जीनोटाइप को आरएस 4950 नाम दिया गया है।

जयपुर चिंतन शिविर में पांच प्रमुख विषयों पर चर्चा होनी है। जिनमें उभरती राजनीतिक चुनौतियां और संगठनात्मक शक्ति की समीक्षा प्रमुख है। अन्य विषयों में बदलती सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां, भारत और विश्व तथा महिला सशक्तिकरण शामिल हैं। महिला सशक्तिकरण पर होने वाली बहस में दिल्ली दुष्कर्म घटना के बाद देश में इस मुददे को लेकर चली बहस का असर निश्चित पड़ेगा। घटना को गुजरे एक माह बीत चुका है, लेकिन प्रशासनिक स्तर पर ऐसी कोर्इ ठोस व्यवस्था देखने नहीं आर्इ, जिसके तहत देश अथवा दिल्ली की महिलाएं सुरक्षित व निडर आएं। दिल्ली की मुख्यमंत्री शिला दीक्षित ने कमजोर कानून व्यवस्था के लिए प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिंदबरम को कटघरे में खड़ा किया है। जाहिर है विपक्ष तो छोडि़ये कांग्रेस ही कांग्रेस के नेतृत्व पर लांक्षण लगा रही है। ये हालात कमजोर नेतृत्व और केंद्र की अक्षम सरकार के चलते बने हैं और इनके निराकरण की कोर्इ ठोस पहल सामने नहीं आ रही है। महिला सशक्तिकरण के लिहाज से महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराने का मुददा भी सामने आ सकता है।

कांग्रेस संगठन का मुददा भी अहम है। बिहार व उत्तरप्रदेश में मिली हार के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने खुद कहा था कि पार्टी संगठन कमजोर होने के कारण कांग्रेस को शिकस्त झेलनी पड़ी। तमाम हथकंडों के बावजूद गुजरात में कांग्रेस नरेन्द्र मोदी को लगातार तीसरी पारी खेलने से नहीं रोक पार्इ। इस चिंतन शिविर में कांग्रेस की चिंता हो सकती है कि कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा तो मजबूत किया ही जाए, कुछ ऐसे उपाय भी किए जाएं, जिससे नाराज युवाओं का विघटन न हो। कांग्रेस के एक तबके की मंशा यह भी है कि उसे गठबंधन की राजनीति से छुटकारा दिला दिया जाए और अकेले चुनाव लड़कर पूर्ण बहुमत हासिल किया जाए। 2009 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस को 206 सीटें मिली थीं, तब उम्मीद जगी थी कि 2014 का लोकसभा चुनाव यदि राहुल के नेतृत्व में लड़ा जाता है तो कांग्रेस 272 के जादुर्इ लक्ष्य को पार कर सकती है। लेकिन बीते चार साल में राहुल की जो भूमिका सामने आर्इ है, वह इस उम्मीद पर पानी फेरने वाली है। कांग्रेस अब थोथी धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता जैसे रुढ़ हो चुके नारों के साथ चुनावी वैतरणी पार नहीं कर सकती।

मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्री होने के कमाल की भी अब हवा निकल चुकी है। 2जी स्पेक्टम, कोयला, राष्ट्रमण्डल खेल, विमान खरीद और आदर्ष सोसायटी जैसे घोटालों को जनता मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था की ही देन मान रही है। करीब चार लाख करोड़ के घोटाले हुए और सरकार अपनी तरफ से निश्पक्ष जांच के लिए भी तैयार नहीं हुर्इ। इन घोटालों ने वैशिवक परिदृष्य में मनमोहन सिंह सरकार को बटटा लगाया और देश की घरेलू विकास दर घटकर पांच फीसदी की शर्मनाक स्थिति पर आ अटकी। इससे भुगतान संतुलन का खतरा बड़ा है और विदेशी मुद्रा लगातार घट रही है। मंहगार्इ आसमान छू रही है। ये हालात संप्रग -2 की दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों के कारण बने हैं। एफडीआर्इ को खुदरा व्यापार में मंजूरी दिए जाने के बाद सरकार को उम्मीद थी कि विदेशी पूंजी की बढ़ी तादाद में आमद होगी और सरकार आर्थिक समस्याओं के निदान के साथ जीडीपी दर भी बढ़ा लेगी। लेकिन नतीजे रहे वही ढांक के तीन पांत।चिंतन शिविर में अर्थव्यस्था सुदृढ़ करने के देशज उपाय तलाशे जाते हैं तो भारत के भविष्य की शुभकामना की जा सकती है।

आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक स्तर पर कमजोर वर्गों के उत्थान व समावेषी विकास की अवधारणा सामने आनी चाहिए। लेकिन यह विडंबना ही है कि अक्सर ऐसे उपायों पर कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति व अकुशल प्रशासनिक क्षमता के कारण सटीक अमल नहीं होता। सच्चर समिति और शिक्षा अधिकार कानून का यही हश्र हुआ है। मुसिलम अल्पसंख्यकों के आर्थिक व शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कर्इ उपाय किए गए, लेकिन कारगर नतीजे सामने नहीं आए। जाहिर है, केवल योजना और नीतियां बनाने से जब तक कोर्इ हल निकलने वाला नहीं है, तब तक इनके कि्रयान्वयन की जवाबदेही सुनिशिचत नहीं की जाती।

चिंतन के अजेंडे में पाकिस्तान और बांग्लादेश से जुड़े मुददे भले ही शामिल न हों, लेकिन इनका असर शिविर में दिखना चाहिए। क्योंकि नियंत्रण रेखा पर जो कुछ घटा है और हम पाकिस्तान के बाद अब बांग्लादेश के नागरिकों को भी जिस तरह आवाजाही के लिए वीजा समझौता करने जा रहे हैं, उनके परिणाम घुसपैठियों और आतंकवादियों के लिए ही ज्यादा कारगर होंगे। लिहाजा इन पड़ोसी देशों से जुड़ी विदेश नीति में व्यापक कूटनीतिक बदलाव लाने की जरुरत है। अन्यथा देश बार-बार मुहं की खाता रहेगा।कांग्रेस यदि दो मुंही नीतियों से इस शिविर में निजात पा लेने का रास्ता खोज लेती है तो उसे अंतर कलह से जूझ रही और बिखराव के अंतिम छोर पर खड़ी भाजपा से लड़ने में कोर्इ मुश्किल पेश नहीं आएगी।

 

 

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