सफलता की नई शर्त-गोरेपन का अहसास

हरिकृष्ण निगम 

ऐसा अनेक बार देखा गया है कि जब भी कोई देश की एक कड़वी सच्चाई भरी हमारी इस कमजोरी को सामने रखता है कि हम स्वभाव से गोरी चमड़ी को महत्व देते हैं और उस अर्थ में रंगभेद की भेदभाव भरी नस्लवादी मानसिकता से ग्रस्त रहते हैं, इस आरोप का हम तुरंत प्रतिरोध करने लग जाते हैं। यह एक ऐसा क टु सत्य है जो राजनीतिक रूप से हम सबके लिए अप्रिय, असुविधाजनक और असहनीय भी बन जाता है। कोई भी भारतीय अपने को नस्लवादी नहीं कहलाना चाहेगा। देखा गया है कि व्यवहार में में हम सब श्वेत चेहरे का ही अभिनंदन करते हैं और यदि हम गेंहुए या श्याम वर्ण को भी हों तो भी प्रसाधन के उत्पादनों के प्रचारतंत्र द्वारा गोरे दिखने की अघोषित प्रतिद्वंदिता में हर प्रकार की दौड़ लगाने को सदा तैयार रहते हैं।

हाल में जब बॉलीबुड की अभिनेत्री फ्रीडा पिंटो ने एक वक्तव्य में कहा है कि अपने देश के लोगों के सामाजिक मानदंड आज भी ‘गोरेपन के अहसास से लिप्त हैं और जाने-अनजाने हम इसके ऊपर उठना नहीं चाहते हैं तब नैतिकता के उच्चासन पर बैठने वालों के अहंकार को गहरी चोट पहुंची थी। यह सच है कि मनोरंजन की दुनियां में सभी अपने चेहरे-मोहरे के लिए असुरक्षित महसूस करते हैं तथा फिल्म उद्योगों की व्यवसायिकता के दबाव के कारण हर कोई अलग और विशेष रूप से अपने को प्रस्तुत करना चाहता है। चेहरे की झुरियां मिटाने, अधरों, नितंबों, उन्नत उरोजों, कटि-प्रदेश या आंखों के लिए आवश्यक प्रसाधन व शल्य चिकित्सा आदि का सहारा आज आम बात है। पर फ्रीडा पिंटो का आरोप है कि भारतीय गोरे रंग के प्रति अपना पक्षपात व आकर्षण जिस तरह दिखाते हैं वह बहुधा चर्चित नहीं होता है सच होने पर भी अनकहा रह जाता है। गोरे रंग के लिए प्रसाधन के उपकरण जिसमें बोटोक्स-झुर्रियां मिटाने की महंगी दवाएं और इंजेक्शन, क्रीम, लोशन, फेसपैक और न्यूनतम अवधि में बेहतर सफेद निखार की गारंटी देने वाले उत्पादनों के लिए कॉरपोरेट जगत द्वारा श्रव्य, दृश्य, मुद्रित आदि मीडिया के सैकड़ों करोड़ के प्रचारतंत्र के आधार से कौन अवगत नहीं है? दूसरा प्रमाण है कि महानगरों के सम्भ््राांत, धनाड्य, शिक्षित या उच्च मध्यवर्गीय परिवार से लेकर छोटी शहरों तक में लड़के के विवाह के लिए प्रकाशित विज्ञापनों में सभी को छरहरी, स्मार्ट और गोरी बहू चाहिए।

स्पष्ट है कि फ्रीडा पिंटो का यह आरोप है कि भारतीय रंगभेद के विश्वास करने वाले नस्लवादी है, गलत नहीं लगता। जीवन के हर मोड़ पर गोरी चमड़ी की खोज वस्तुतः आपत्तिजनक है जो हमें स्वीकार करने में कष्टकर प्रतीत होती है।

इस तरह का पक्षपात हर परिवार में बच्चों के शैशव से ही देखा जा सकता है। नवजात शिशु, विशेषकर यदि वह बालिका हुई और गोरी पैदा नही हुई तो मां-बाप और परिवार की सभी महिलाएं मन-मसोस कर रह जाती हैऔर उसकी मां पर विविध रूप से गुस्सा निकालती हैं। निकट संबंधी और अन्य परिजन भी काली या गेहुंए रंग की बच्ची के आगामी वर्षों में उसके लिए उचित वर के खोज का रोना शुरू कर देते हैं। लगभग शत-प्रतिशत खाते-पीते संपन्न घरों के वैवाहिक विज्ञापनों में भी गोरी लड़की की अनवरत खोज सामान्य बात है। जिसे दबे रंग की लड़की कहा जाता है चाहे वह कितनी शिक्षित, सुशील या स्मार्ट हो, हमारे देश के मां-बाप अपने बच्चों के लिए उसे पहला विकल्प कभी नहीं मानते हैं।

गोरी श्वेत काया व चेहरे के विषय में सारा देश एकजुट होकर अपनी प्राथमिकता तय करता है। इसी के पीछे निखरते रंग की सुंदरता का आश्वासन देने के लिए आज बड़ी से बड़ी कंपनियों ने दो हजार करोड़ से अधिक का बाजार खड़ा कर दिया है, सिर्फ युवतियों या महिलाएं ही नहीं अब तो पुरुषों के गोरे बनने के लिए अलग-अलग प्रसाधन उपकरणों के विपणन के लिए बॉलिबुड के अनेक महानायक भी प्रचारतंत्र से जुड़े दिखते हैं। पुरूषों को भी गोरा दिखने या बनने में कोई हीनता भाव न हो इसलिए मनोरंजन की दुनियां के बड़े रोल-मॉडलों का अनुमोदन भी जारी है। गोरी चमड़ी आपकी बेहतर जीवन-शैली की गारंटी है, यह दिनरात हमारे कानों में भरा जा रहा है।

हमें भूलना नही चाहिए कि अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब आई पी एल के मोहाली में खेले जाने वाले क्रिकेट मैच के दौरान दो अश्वेत ‘चियरलीडर’लड़कियों ने यह आरोप लगाया था कि उनके गोरे न होने की वजह से अधिकारियों ने उन्हें मैदान से बाहर कर दिया था। शायद इसीलिए देश में हर नगर में फलते-फूलते ब्यूटी या मसाज पार्लर या ब्राइबल मेकअप के अनेक पैकेजों के नाम पर या फेयरनेस क्रीम या ब्लीचेज के बहाने रंग में रूपांतरण का आश्वासन बेचा जा रहा है। मनोरंजन की हमारी दुनियां के केंद्र बॉलीबुड में गोरी सिने तारिकाएं स्वयं ऐसे उपकरणों के अनेक ब्राँडों के अनुमोदक या प्रायोजक के रूप में आज देखी जा सकती हैं। जोर शोर से अज्ञात और अनामी रिसर्च एंड डेवलपमेंट प्रयोगशालाओं के संदिग्ध शोध को उध्दृत करते हुए चाहे वे प्रसिध्द आई टी सी या हिन्दुस्थान लीवर जैसी कंपनियां हों, सभी गोरा बनाने का दावा करने में जुटी हैं। वर्षों तक फेयर एंड लवली का साठ प्रतिशत अधिक गोरा बनाने का दावा जनसाधारण को भ्रमित करता था। लक्स साबुन के प्रायोजक के रूप में जैसे कुछ सिने तारिकाओं ने सबको गोरापन बांटने की जिम्मेदारी ही ले ली थी। एडवर्टाईजिंग स्टैंड्स काउंसिल ऑफ इंडिया में बड़ी कंपनियों के विरूध्द शिकायतें आती रही पर उन्हें कौन सुनता है? आई टी सी को गोरे बनाने वाले नहाने का साबुनों को पहले पुरूषों के लिए फियामा डी विल्स और एक्वा पल्स बेदिंग बार जेल प्रचारित किया गया और अब विवेल एक्टिव फेयर और विवेल एक्टिव स्पिरिट की दिन रात हर चैनल पर बहार है।

जन संपर्क और छवि निर्माण उद्योग आज पश्चिम की नकल पर करोड़ों रूपये मात्र इस प्रकार के उत्पादों पर खर्च कर रहा है कि वस्तुतः लोगों की जिन चीजों की आवश्यकता नहीं है वे विश्वास कर लें कि उनकी जरूरत उन्हें है। सामाजिक संबंधों को तोड़ने में यह मानसिकता सहायक होती हैजैसे यदि पड़ोसी की लड़की की अपेक्षा आपकी बच्ची उतनी ही गोरी नहीं है, श्याम वर्णीं सीधी-सादी है तो उसे भी अहसास होना चाहिए कि प्रसाधन के उत्पाद उसे भी गोरा बना सकते हैं। चारों तरफ आवाभाषी, लूट और गोर बनने की दमित इच्छाओं की रेलमपेल है। मीडिया भी इस प्रचार को नए-नए छलों जैसे-फर्जी सर्वेक्षणों, क्लिनिकल ट्रायल आदि द्वारा सजाय-संवारा जाता है। प्रसाधन उद्योग के कर्णधारों की भी यह जिम्मेदारी बन जाती है। इसी को जनमानस का उपनिवेशीकरण भी कहा जा सकता है। आज प्रसाधन उद्योगों का अनगिनत सीधी-सादी साधारण युवतियों पर मीडिया का निरंतर दबाव अनैतिक भी है और नस्लवादी वर्णभेद को भी अप्रव्यक्ष बढ़ावा देता है। आज देश की टी.बी. चैनलों, पत्र-पत्रिकाओं, फिल्में, बड़ी विज्ञापन एजेंसियों, प्रसाधन व श्रंगार के उपकरणों के उत्पादक, फैशन-शो, मॉडलिंग, शराब, सिगरेट व इत्रों के निर्माता-इन सभी की मौलिक नीतियां एक जैसी है। सभी एक दूसरे के सम्मानित युवा और यौनविमुख पीढ़ी के संदेशों को मजबूत करती हैं। सेक्स व अश्लीलता को आधार बनाकर उसके लिए नए बाजार की पृष्ठभूमि तैयार करने में कभी-कभी प्रख्यात सिनेस्टार और खिलाड़ियों द्वारा इनके उत्पादों का अनुमोदन या सौंदर्य-प्रतियोगिताओं द्वारा उत्तेजक रूपतंत्र की खोज जारी है-इन सबसे समाज के प्रतिष्ठित व चर्चित लोग जुड़ते जा रहे हैं।

गोरेपन के सम्मोहन के साथ-साथ आज दृश्यरतिकों के लिए टीबी की अनेक चैनलों ने यौनाचार के अनेक आयामों में अश्लीलता के विपणन ने यौनाभिमुख नई पीढ़ी के अंतर्मन में छिपी कामुकता की जैसे सभी वर्णनाओं को एकाएक तिलांजली दे दी है। वैश्वीकरण ने शर्म की बेशर्म सीमाओं का उल्लंघन कब का कर लिया है। यद्यपि जातिवाद को जातीय श्रेष्ठता की बात देश में आज लगभग एक स्वर में दफनाई जा चुकी है पर गोरे रंग का वर्चस्व व उसके आधार पर बनाए भेदभाव का दबाव आज भी किसी न किसी रूप में स्वीकारा है।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं। 

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