कम्युनिज्म का अन्तर्द्वन्द्व, विरोधाभास और असफलता-२

विपिन किशोर सिन्हा

कार्ल मार्क्स के जीवन का अधिकांश भाग इंगलैन्ड में व्यतीत हुआ था। उन्होंने संपूर्ण अध्ययन वहीं किया था। उनके मन-मस्तिष्क पर वहां की पृष्ठभूमि का गहरा असर था। इंगलैन्ड की अर्थनीति कृषि पर आधारित नहीं थी। वहां पूरी तरह औद्योगिक क्रान्ति हो चुकी थी। मार्क्स की पूरी अवधारणा और सोच उद्योगों में काम कर रहे मज़दूरों पर ही केन्द्रित थी। इसके कारण कृषि प्रधान देशों की समस्याओं की कल्पना वे ठीक से नहीं कर सके।

मार्क्स ने कहा कि राष्ट्रीयता, धर्म, लिंग और क्षेत्र के आधार पर मनुष्यता का बंटवारा बिल्कुल गलत है। मनुष्य का विभाजन उन्होंने दो खेमों में किया – पहला खेमा है उत्पादन के साधन के मालिकों (Haves) का, दूसरा खेमा है वंचितजनों (Have nots) का। मार्क्स ने Haves और Have nots को बांटनेवाली जिस क्षैतिज रेखा (Horizontal line) की कल्पना की, वह आज तक परिभाषित नहीं हो पाई। उद्योगों में तो इसका वर्गीकरण किया जा सकता है, वह भी पूरी तरह नहीं। अगर किसी भी उद्योग के मालिक को Haves के खेमे में रखा जा सकता है, तो उसमें काम करने वाले मज़दूर से लेकर महाप्रबंधक को Have nots के खेमे में रखना पड़ेगा। क्या एक दैनिक वेतन भोगी मज़दूर और उसके महाप्रबंधक की आमदनी और सुविधाओं की तुलना की जा सकती है? जिन उद्योगों को दृष्टि में रखकर मार्क्स ने Haves और Have nots खेमे की कल्पना की, उन्हीं में इन दोनों खेमों को अलग करने वाली क्षैतिज रेखा खींचना मुश्किल ही नहीं असंभव है।

कृषि के क्षेत्र में तो यह और भी दुष्कर कार्य है। वह किसान जिसके पास एक बीघा जमीन है, वह मार्क्स के अनुसार Have nots नहीं हो सकता है क्योंकि उसके पास छोटा ही सही उत्पादन का एक साधन है। अतः वह Haves है। एक किसान एक बीघा जमीन का मालिक होने के बावजूद भी इसके सहारे अपने परिवार का भरण-पोषण नहीं कर सकता इसलिए वह दूसरे के यहां मज़दूरी भी करता है। वहां वह Have nots है। इस दुनिया में ऐसा कोई आदमी है क्या जिसके पास कुछ भी न हो? अगर किसानों की जोत के आधार पर वर्गीकरण किया जाय और पांच बीघे की जोत पर विभाजन की क्षैतिज रेखा रखी जाय, तो ४.९९९ बीघे वाला Have nots होगा और पांच बीघे वाला Haves के खेमे में आएगा। अपने देश की स्थिति में टाटा, बिड़ला, रिलायंस आदि निश्चित रूप से Haves के खेमे में होंगे और ५ बीघा जमीन जोतने वाला किसान तथा परचून की दूकान का मालिक भी Haves खेमे में ही होगा। क्या यह कही से भी व्यवहारिक और न्यायोचित होगा? मार्क्स के जीवन काल में ही पूर्वी यूरोप के कृषि प्रधान देशों के अनेक कम्युनिस्टों ने उनको पत्र लिखकर यह प्रश्न पूछा था कि कम्युनिस्ट सिद्धान्त सरणि में किसानों की स्थिति कहां आती है? मार्क्स अपने जीवन के अन्त तक इसका कोई उत्तर नहीं दे पाए। आज भी किसी कम्युनिस्ट विचारक के पास इसका उत्तर नहीं है। वस्तुतः मानव जाति को मात्र दो खेमों – Haves और Have nots में बांटना असंभव है।

कार्ल मार्क्स दो देशों के बीच सीमाओं को मान्यता नहीं देते थे। वे राष्ट्रीयता के प्रबल और पूर्ण विरोधी थे। उनका नारा था – दुनिया के मज़दूरों एक हो। लेकिन यह परिकल्पना मनुष्य के मौलिक स्वभाव के सर्वथा विपरीत है। एक समय आधी दुनिया में जब कम्युनिज्म का बोलबाला था, तब भी यह सिद्धान्त व्यवहारिक नही बन पाया। कम्युनिस्ट देशों ने आपस में कई युद्ध किए। रूस और चीन के बीच स्थित चेन माओ द्वीप पर प्रभुत्व के लिए माउत्से तुंग ने अपने संबंध युद्ध होने की स्थिति तक पहुंचा दिया। चीन ने रूस को कम्युनिस्ट देश मानने से इंकार कर दिया। माओ के ज़माने में रेडियो पेकिंग रूस को संशोधनवादी कहता था और रेडियो मास्को चीन को विस्तारवादी। चेकोस्लोवाकिया भी कम्युनिस्ट देश था और सोवियत रूस भी। चेकोस्लोवाकिया के राष्ट्रध्यक्ष एल्क्जेन्डर दुबचेक से ब्रेजनेव की अनबन हो गई। परिणाम हुआ सन १९६८ में सोवियत रूस द्वारा चेकोस्लोवाकिया पर सैनिक कार्यवाही। एलेक्ज़ेन्डर दुबचेक को गिरफ़्तार करके युद्ध अपराधी कि भांति ब्रेज़नेव के सामने पेश किया गया। मार्क्स को राष्ट्रीयता से घोर नफ़रत थी। वे अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के कट्टर पोषक और समर्थक थे। लेकिन कम्युनिज्म के चरम उत्कर्ष के दिनों में भी कम्युनिस्ट देश एक-दूसरे से लड़ते दिखाई दिए। चेकोस्लोवाकिया, युगोस्लाविया, रुमानिया, हंगरी, पोलैन्ड, सोवियत रूस और चीन के बीच सीमा-विवाद और संघर्षों का सिलसिला विश्व में कम्युनिज्म के पतन के बाद ही थम पाया। कम्युनिस्ट विस्तारवाद के सबसे बड़े भुक्त भोगियों में से एक हमारा भारतवर्ष भी रहा है। कम्युनिस्ट चीन ने पहले तिब्बत पर अनधिकृत कब्ज़ा किया, फिर हमारी ६० हज़ार वर्ग किलो मीटर जमीन भी बलात अपने कब्जे में कर ली। कम्युनिस्ट देश इस तरह एक ओर मार्क्स के अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के

सिद्धान्तों की सार्वजनिक रूप से धज्जियां उड़ाते रहे और दूसरी तरफ अपने को कम्युनिस्ट कहने का भी प्रचार करते रहे।

राष्ट्रीयता मनुष्य के मन में गौरव का भाव भरती है। इसका त्याग करके कोई देश आगे नहीं बढ़ सकता। दूसरे विश्व युद्ध के समय रूस में हिटलर की सेना अन्दर तक घुस गई और बढ़ती गई। फसलों को जलाते हुए रूसी सेना सिर्फ पीछे भाग रही थी। कम्युनिज्म और अन्तराष्ट्रीयता के नाम पर न सेना को लड़ने-मरने की प्रेरणा प्राप्त हो रही थी, न जनता को। ऐसे में स्टालिन ने अपने विचार और सिद्धान्त के विपरीत जनता और सेना से देश के लिए सबकुछ न्योछावर करने का आह्वान करते हुए कहा – अपनी पवित्र पितृभूमि की सीमाओं कि रक्षा के लिए अपना सबकुछ होम कर दो। मार्क्स ने कहा था कि आपके देश की दो ही सीमाएं हो सकती हैं – उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव। लेकिन किस कम्युनिस्ट देश ने इन सीमाओं को स्वीकार किया? स्टालिन ने द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान न सिर्फ पवित्र पितृभूमि की सीमाओं की बात की, बल्कि रूस के इतिहास पुरुष रहे पुराने वीरों के माध्यम से अपनी सेना और जनता में देशभक्ति का ज़ज़्बा भरा। उन सभी राष्ट्रपुरुषों, राष्ट्रनायकों और वीर पुरुषों कि विरुदावली फिर से गाई गई और सम्मानित किया गया जिन्हें सर्वहारा क्रान्ति के दौरान ‘फ्यूडल लार्ड्स’ कहकर बुरी तरह निन्दित किया गया था। मार्क्स, हेगेल, लेनिन और स्टालिन का नाम सैनिकों में जोश भरने में पूरी तरह नाकाम रहा। महान रूस के गुजरे जमाने के पीटर द ग्रेट जैसे राजाओं, कैथरीन द ग्रेट जै्सी रानियों और वीर सेनानायकों की यशोगाथा श्रद्धा-भक्ति से फिर दुहराई गई, उनके पुतले लगाए गए। रूसी सेना और जनता में पुनः उत्साह का संचार हुआ, रूस की भागती सेनाएं वापस लौट आईं और अन्ततः हिटलर की सेना को पराजय का मुख देखना पड़ा। राष्ट्रीयता मनुष्य का मूल स्वभाव है। युद्धभूमि से लेकर खेल के मैदान तक, शान्ति काल हो या युद्ध काल, बिना राष्ट्रवाद के कोई भी उपलब्धि हासिल नहीं की जा सकती। चीन द्वारा शून्य से आरंभ कर ओलंपिक में सबसे अधिक स्वर्ण पदक हासिल करने के पीछे उसका प्रबल राष्ट्रवाद ही मुख्य कारक है।

दुनिया के किसी भी हिस्से में अल्प अवधि के लिए भी, कभी भी राष्ट्रवाद का लोप नहीं हुआ। मार्क्सवाद की यह सबसे बड़ी सैद्धान्तिक और व्यवहारिक असफलता है। दुनिया के मज़दूरों को एक करने का नारा देने वाले किसी एक देश में भी मज़दूरों को संगठित नहीं कर सके। भारत में ही लगभग दो दर्ज़न मान्यताप्राप्त मज़दूर संगठन और एक दर्ज़न कम्युनिस्ट पार्टियां हैं। कोई हिंसा में विश्वास करता है, कोई संसदीय प्रणाली में। कोई संविधान को शौचालय में इस्तेमाल होनेवाले टिश्यू पेपर की संज्ञा देता है, तो कोई इसी संविधान की रक्षा करने की शपथ के साथ सालो साल मलाई खाता है। सभी मार्क्सवाद को अपने-अपने ढंग से परिभाषित कर रहे हैं। इसका कारण यह है कि पूरा कम्युनिस्ट वांगमय अस्पष्ट और विरोधाभासों से भरा है। मार्क्स ने कोई ब्लू प्रिन्ट नहीं दिया।

मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम कहा था। वे घोर नास्तिक थे तथा धर्म को बुर्जुआ वर्ग का संरक्षक मानते थे। इसी कारण रूस में लेनिन के आते ही चर्च गिराए गए। पुरातत्त्व अन्वेषण कि दृष्टि से जो चर्च बच गए, उनमें भी जनता का प्रवेश या प्रार्थना वर्जित थी। चीन में भी असंख्य बौद्ध मठ ध्वस्त किए गए लेकिन कुछ ही समय के बाद कम्युनिस्टों की समझ में आ गया कि आम जनता को सदा के लिए धर्म से विरत नहीं किया जा सकता। जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अधिकृत रूप से कहना शुरु कर दिया कि मार्क्स ने मज़हब के बारे में जो कहा था वह सब सामयिक चर्च नीति से प्रभावित चित्र था। वह उनके लिए तो सही हो सकता है, किन्तु उनके मन्तव्य को सार्वजनीन नहीं माना जा सकता। वे कहने लगे – ‘Culture, ethics and religion in their turn mould socio-economic conditions, both act and react upon each other.’ – मज़हब, संस्कृति और नीति आर्थिक और सामाजिक ढांचे को गढ़ती है और दोनों एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं। लगभग सभी कम्युनिस्ट धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. ज्योति बसु दुर्गा-पूजा के अवसर पर कलकत्ता के प्रमुख पंडालों में सार्वजनिक रूप से जाते थे और सपत्नीक पूजा करते थे। एकाध बार कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने फ़तवा जारी कर अपने कार्यकर्ताओं से पूजा में भाग न लेने की अपील की लेकिन किसी ने इस बेसिर-पैर के फ़तवे को नहीं माना। सभी कम्युनिस्ट पुत्री के विवाह में कन्यादान करते हैं। हिन्दू सात फेरे लेते हैं और मुसलमान निकाह करते हैं। जीवन भर ढकोसला की चादर ओढ़ने वाला हर कम्युनिस्ट मरने के बाद चिता पर जलाया ही जाता है या दफ़नाया जाता है। धर्म को अफ़ीम माननेवाले कार्ल मार्क्स ने मानव मन की जटिलताओं को समझने में भयंकर भूल की। उन्होंने मनुष्य को एक मशीन समझा।

मार्क्स परिवार नामक संस्था के घोर विरोधी थे। इस संबंध में उनके नकारात्मक निर्देशक सिद्धान्त स्पष्ट थे – जैसे विवाह संस्था की समाप्ति, परिवार की समाप्ति, निजी संपत्ति की समाप्ति और अन्त में इकाई के नाते राष्ट्र की समाप्ति। उनका मानना था कि जहां अपनापन होता है, वहां संपत्ति का केन्द्रीकरण होता है। इसीलिए विवाह संस्था को त्याज्य मान उन्होंने ‘कम्यून्स’ (सामूहिक जीवन) की वकालत की। वे परिवार को वे बुर्जुवा व्यवस्था मानते थे। उन्होंने ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें कोई किसी का पति नहीं, कोई किसी की पत्नी नहीं। संपूर्ण समाज एक है। सब लोग समूह में रहेंगे। पति नहीं, पत्नी नहीं, बच्चा नहीं, पिता नहीं, माता नहीं – सारे बुर्जुवा संबंधों को समाप्त करने के निर्देश दिए गए। कम्युनिस्ट देशों में कम्यून्स की स्थिति पशुओं के बाड़े के समान हो गई, सब एक-दूसरे से समागम करने लगे। प्रजनन उत्पादन का एक रूप हो गया। जो भी बच्चे पैदा हुए उनपर किसी का मातृत्व या पितृत्व नहीं माना गया। सबके सब राज्य की संपत्ति बन गए। बच्चे का सीधा संबंध राज्य से था। राज्य ही उसके लालन-पालन और भविष्य के लिए जिम्मेदार था। जब निज का परिवार ही नहीं तो निज की संपत्ति कहां से आएगी! इस तरह उत्पादन के साधन तो राज्य के हाथ में गए ही किसानों को भी जमीन, हल, बखर, पशु आदि का मालिक मानकर उन्हें भी अन्तिम बुर्जुआ मान लिया गया। इन सिद्धान्तों के क्रियान्यवन में दो काम मुख्य रूप से किए गए – पहला उद्योगों का सरकारीकरण और दूसरा खेती का सामूहिकीकरण। खेती के सामूहिकीकरण का प्रत्येक कम्युनिस्ट देश में प्रबल विरोध हुआ जिसे बड़ी निर्ममता से कुचला गया और इस प्रक्रिया में रूस में एक करोड़ तथा चीन में दो करोड़ किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया।

इस सारी प्रक्रिया में मानव जीवन की संवेदना और मौलिक सिद्धान्त को आंखों से ओझल कर दिया गया कि मनुष्य अपनों के लिए ही सारा कष्ट उठाता है। जिसके साथ अपनापन ही नहीं, उसके साथ कार्य करने की प्रेरणा ही नहीं होती। अतः कम्यून्स और सामूहिकीकरण की योजनाएं पूरी तरह असफल रहीं। जनता जमीन को परती छोड़ शहर की ओर भागी। रूस में एक लाख गांव उजड़ गए और अस्सी लाख हेक्टेयर जमीन परती छोड़ दी गई। रूमानिया में चाउसेस्कू ने ८००० गावों को उजाड़कर उन्हें शहरी आबादी में बदलने का प्रयत्न किया जिससे जनता पर अधिक और अच्छा नियंत्रण किया जा सके। किन्तु उसने खेती चौपट कर दी। भारत के प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता सी. राजेश्वर राव ने भी स्वीकार किया कि खेती का सामूहिकीकरण करने से मज़दूर नियमानुसार बेमन से केवल ७ घंटे काम करते थे और वह भी सप्ताह में ५ दिन। खेती का सामान्य जानकार भी यह स्वीकार करेगा कि इससे खेती के नष्ट होने के अतिरिक्त कोई परिणाम नहीं निकल सकता। रूस में ख्रुश्चेव के समय ही कृषि में उत्पादन इतना घट गया कि देश में भयंकर अन्न संकट उपस्थित हो गया। विदेशों से अन्न आयात करना पड़ा। सरकार ने घर के आस-पास की कुछ जमीन इच्छुक परिवारों को Kitchen land रूप में देकर एक नया प्रयोग शुरु किया। परिणाम आश्चर्यजनक थे। प्रथम वर्ष ही कुल राष्ट्रीय उत्पाद का ६०% Kitchen land से आया तथा शेष ४०% पूरे देश में बड़े स्तर पर स्थापित सामूहिक कृषि फार्मों से। रूस में ही kithen land के साथ Pocket money की भी शुरुआत हुई। बाज़ार पुनः अस्तित्व में आए। किसानों को यह स्वतंत्रता दी गई कि Kitchen land के अपने अतिरिक्त उत्पादों को वे बाज़ार में बेच सकते थे और इस तरह से प्राप्त धन को pocket money के रूप में उपयोग में ला सकते थे।

क्रमशः

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