राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी पर उलझी कांग्रेस

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प्रमोद भार्गव

ममता-मुलायम के पलटबार के बाद राष्ट्रपति चुनाव का पूरी तरह राजनीतिकरण हो गया है। ममता-मुलायम ने अपनी तरफ से जो तीन नाम राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए सार्वजनिक किए हैं, उससे तीन बातें तय हुर्इं हैं। एक संप्रग के घटक और सहयोगी दल संप्रग और कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी को चुनौती देते हुए ताल ठोक कर मैदान में उतर आए हैं। दो, मौजूदा प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का नाम राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावित करने का आशय है कि अब मनमोहन प्रधानमंत्री के रूप में संप्रग के सहयोगी दलों को स्वीकार नहीं हैं। तीन, कांग्रेस की ओर से पेश पहले नंबर के उम्मीदवार संप्रग के लिए भले ही संकटमोचक रहे हों, वे खुद घटक दलों द्वारा पैदा किए संकट से पार पाकर निर्विवाद उम्मीदवार मान लिए जाएंगे, इस बेहतर स्थिति का निर्माण मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में मुशिकल ही है ? बहरहाल व्यकितगत जीवन में पहलवान रहे मुलायम ने ममता बहिन को (अपनी ओर से राष्ट्रपति उम्मीदवार की घोषणा के समय से मुलायम ने ममता को बहिन कहना शुरू कर दिया है।) के साथ राजनीति गठबंधन की नर्इ गांठ बांधकर ऐसी लंगड़ी मारी है कि कांग्रेस चारों खाने चित्त नजर आए। यह पूरी कवायद इस बात का भी संकेत है कि अब 2014 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन की धुरी घूमेगी और गठबंधन के नेतृत्व की नाभि-नाल परिवर्तित होगी।

राष्ट्रपति जैसे गरिमामयी पद की उम्मीदवारी को लेकर राजनीतिक दलों ने मक्खी पर मक्खी बिठाने का सिलसिला शुरू कर दिया है। इन सियासी चालों से राष्ट्रपति पद की गरिमा गिरने के हालात निर्मित हो रहे हैं। इसके लिए पहली नजर में दोषी कांग्रेस मुखिया सोनिया गांधी और घटक दलों की अनुकंपा पर प्रधानमंत्री बने बैठे मनमोहन सिंह को सप्रंग के घटक और सहयोगी दलों से बैठक आहूत कर मंत्रणा करनी थी। यह मंत्रणा वर्तमान हालातों में इसलिए भी जरूरी थी क्योंकि कांग्रेस और संप्रग-2 सरकार इस समय राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही संकटों से जूझ रहे हैं। इस स्थिति ने उसे लाचारी के ऐसे चौराहे पर ला खड़ा किया है कि जैसे सत्तारूढ़ गठबंधन को सोनिया और मनमोहन नहीं बलिक घटक दल चला रहे हैं। इसका बड़ा और किसी एकल घटक दल तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी का वह उदाहरण है, जब ममता, बजट सत्र के दौरान तात्कालिक रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को एक झटके में बदलवाने के लिए प्रधानमंत्री को विवश देती हैं। मनमानी और दंभ की ऐसी ही स्थितियों पर दृढ़ इच्छाशकित न जता पाने के कारण संप्रग जहां घटक दलों के आगे जहां शरणागत हुर्इ, वहीं देश की अवाम के सामने उसकी छवि बौनी होती चली गर्इ। इस राजनीतिक लाचारी के परिणाम ही हैं कि जहां आदमकद बौने होते गए, वहीं बौनों ने आदमकद रूप धारण कर लिया। मुलायम और ममता की भार्इ-बहिन सी जोड़ी ने इसी आदमकद को हासिल करने के लिए कदमताल मिलाए हुए हैं। यदि प्रणव मुखर्जी का नाम मंत्रणा करके सार्वजनिक हुआ होता तो देश के भावी राष्ट्रपति पद के उम्मीवार को इस छीछीलेदर का शिकार होना नहीं पड़ता।

इस मसले पर कांग्रेस की नासमझी यह भी रही कि जब सोनिया और ममता की बात पूरी हो गर्इ तो कांग्रेस के किसी प्रवक्ता नहीं, बलिक ममता ने मीडिया को बताया कि कांग्रेस की पसंद प्रणव मुखर्जी और उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी हैं। कांग्रेस ने यहां एक भूल यह भी की कि उसे राष्ट्रपति के लिए दो नहीं, केवल एक नाम तय करना था। जब प्रतिभादेवी पाटिल राष्ट्रपति की उम्मीदवार बनी थीं, तब उन्हीं का एकल नाम कांग्र्रेस की ओर से आया था। यही नहीं मनमोहन सिंह जब पहली बार संप्रग के प्रधानमंत्री बने थे, तब भी केवल उनके ही नाम का ऐलान किया गया था। प्रणव मुखर्जी के साथ हामिद अंसारी का नाम दस जनपथ से बाहर आने का जो संदेश देश की सवा अरब जनता के बीच गया है, उसके दो अर्थ लोग निकाल रहे हैं। एक यह कि दस जनपथ प्रणव मुखर्जी पर शत-प्रतिशत सहमत नहीं है। दूसरे कांग्रेस मुसिलम कार्ड खेलने की कलाबाजी से अब भी बाज नहीं आ रही है। कांग्रेस की इस हरकत ने जहां राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार चयन में गरिमा खोर्इ, वहीं उसने प्रणव मुखर्जी जैसे योग्य और प्रभावशाली व्यकित की अंतरआत्मा को ठेस पहुंचा कर यह जाहिर कर दिया कि प्रणव दस जनपथ की एकमात्र पसंद नहीं हैं।

हालांकि कि ममता और मुलायम के बयान आने के करीब 20 घंटे बाद कांग्रेस प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने पत्रकारवार्ता आहूत कर उन तमाम आशंकओं का समाधान कर दिया जो ऊपर दर्शार्इ गर्इ हैं। द्विवेदी ने स्पष्ट किया कि मनमोहन सिंह राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार कतर्इ नहीं हैं और वे 2014 तक प्रधानमंत्री रहेंगे। यह भी साफ हुआ है कि कांग्रेस ने किसी भी उम्मीदवार का नाम तय नहीं किया है, केवल सहयोगी घटक दल होने के नाते ममता से बातचीत में सोनिया ने प्रणव और हामिद अंसारी के नाम सुझाए थे। साथ ही कांग्रेस ने मुलायम ममता के सुझाए अब्दुल कलाम आजाद और सोमनाथ चटर्जी के नामों को सिरे से खारिज कर दिया। ममता के कथन के 20 घंटे बाद सक्रिय हुर्इ कांग्रेस ने ममता और मुलायम के बीच फूट डालने की कोशिश भी की है। वैसे भी कांग्रेस की फूट डालो और राज करो नीति रही है। मुलायम और ममता के पैंतरों की शिकार कांग्रेस की अब मंशा है कि ममता से पल्ला झाड़ लिया जाए और मुलायम से अंतरंगता बढ़ार्इ जाए।

आशंका तो यह भी जतार्इ जा रही थी कि प्रणव, सोनिया की पसंद नहीं हैं, इसलिए कुटिल राजनीतिक चतुरार्इ बरतते हुए खुद सोनिया ने ममता-मुलायम की जोड़ी से मनमोहन सिंह का नाम राष्ट्रपति पद के लिए उछलवाया है। अव्बल तो यह शंका तर्क से परे थी और यदि यह शंका हकीकत है भी तो तय है कांग्रेस और मनमोहन के नेतृत्व वाली संप्रग ऐसे चक्रव्यूह में फंस गए हैं, जिससे सुरक्षित निकलना तो नामुमकिन है ही, देश को मध्यावधि चुनाव की गफलत में भी डाल दिया है। कारण मुलायम की सपा और ममता की तृणमूल उस स्वार्णिम अवसर के दौर से गुजर रहे हैं जहां से मुलायम के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता प्रशस्त होता है और वहीं दूसरी ओर ममता की ताकत में चौगुना इजाफा होता है। इस अवसर को ममता-मुलायम इसलिए भी भुनाना चाहते हैं, क्योंकि मध्यावधि चुनाव जितने जल्दी होंगे, उतनी ही ज्यादा लोकसभा सीटों ममता-मुलायम को सफलता हासिल होगी। जाहिर है इस शकित परीक्षण की पृष्ठभूमि में मुलायम के प्रधानमंत्री बनने के हित भी अंतनिर्हित है। यही महत्वकांक्षा कालांतर में गठबंधन की धुरी का केन्द्र बिंदु बदलने का आधार बनेगी और जो क्षेत्रीय दलों का नया राष्ट्रीय विकल्प गठबंधन के रूप में आकार लेगा उसका नेतृत्व मुलायम संभालेंगे। लिहाजा राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार चयन के मामले का अभी और राजनीतिकरण होगा। वैसे भी मुलायम और ममता के पत्ते खुलने के बाद एनसीपी नेता शरद पवार ने भी साफ कर दिया कि संप्रग को फिर से उम्मीदवार के नाम पर पुनर्विचार की जरूरत है। दूसरी तरफ आदिवासी को राष्ट्रपति बनाए जाने की पैरवी में लगे पीए संगमा ने कलाम की संभावित उम्मीदवारी के सामने हथियार डाल दिए हैं। हालांकि कलाम तब ही उम्मीदवारी स्वीकारेंगे जब उन्हें सौ फीसदी जीत का विश्वास हो जाएगा। वे उपहास का पात्र बनने के लिए तैयार नहीं होंगे।

कांग्रेस के लिए मनमोहन को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया जाना इसलिए भी जी का जंजाल साबित होता, क्योंकि फिर प्रधानमंत्री पद के लिए भी एक नए नाम पर कश्मकश शुरू हो जाती, जिस पर संतोषजनक तरीके से पार पाना मुशिकल होता। क्योंकि राहुल गांधी से उत्तर-प्रदेश में जो उम्मीद थी, उस पर वे खरे नहीं उतरे। यूपी में पराभव के बाद लोकसभा में बजट सत्र से भी वे लगभग गायब रहे। जाहिर है इन स्थितियों से जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे साफ होता है कि राहुल जिम्मेबारियों से मुकर रहे हैं और वे प्रधानमंत्री जैसी बड़ी जिम्मेबारी संभालने की काबलियत नहीं रखते। वैसे भी अब ममता-मुलायम द्वारा पृथक से उम्मीदवारों की सूची जाहिर करने के बाद, जिस तरह से कांग्रेस ने मुलायम-ममता को धोखा करार दिया है, उससे स्पष्ट है कि नामांकन की तारीख निकट आते-आते राजनैतिक हलकों में अभी बहुत सारे गुल खिलेंगे। पर इतना तय है कि संप्रग के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी ही होंगे और ममता-मुलायम समेत शेष विपक्ष के उम्मीदवार पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आजाद अथवा संगमा हो सकते हैं

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  1. लम्बे लेख में जो सन्देश “क्षेत्रीय दलों का नया राष्ट्रीय विकल्प गठबंधन के रूप में आकार लेगा उसका नेतृत्व मुलायम संभालेंगे,” के बदले ममता को पढ़ा जाये जिसे बीजेपी भी समर्थन देना चाहेगी कम्युनिस्ट विरोधी आधार पर जहाँ WB में अपना कुछ खोने को भी नहीं है उसके पास ।

    हाल में हिलारी का ममता से मिलना – इसके निहितार्थ में मैंने यह बात कंही कही थी .

    ममता का प्रणव विरोध का एक कारण यह भी हो सकता है की एक ही प्रान्त और जाति से दोनों उच्च पद पर कैसे?

    मेरे विचार से संगमा एक योग्य उमीदवार हैं न केवल इसलिए की मैं आदिवासियों खासकर उत्तर पूर्व को राष्ट्रिय मुख्यधारा में जोड़ने के लिए काम करता रहा हूँ इसलिए भी की अपन लोक्सभा अध्यखता में उनका आचरण योग्य था और सोनिया के विदेशी मूल पर विरोध में वे कांग्रेस से अलग हो गए थे
    कलाम अछ्छे हैं शायद विपक्षी उन्हें ही खड़ा करे पर देश में कोई दूसरा अच्छा नहीं है यह संकेत अच्छा नहीं है

    डॉ धनाकर ठाकुर

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