कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा और कांग्रेसियत-युक्त सियासी नजारा

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मनोज ज्वाला
गत संसदीय चुनाव के दौरान भाजपा की ओर से ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का
जो नारा ईजाद किया गया , उसका शोर बढता ही जा रहा । केन्द्र में हुए
सत्ता-परिवर्तन और कांग्रेस के अप्रत्याशित क्षरण के बावजूद देश के
विभिन्न राज्यों में हुए विधान-सभा-चुनावों के दौरान भी यह शोर सियासी
फिजां में तैर ही रहा है । इस नारा का प्रभाव कहिए या भाजपा के चमत्कारी
नेता नरेन्द्र मोदी व अमित शाह के नेतृत्व का परिणाम; कांग्रेस जिस तेजी
से देश भर में घटती-सिमटती जा रही है, उसे देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है
कि बहुत जल्दी ही एक न एक दिन भारत उसी तरह कांग्रेस से मुक्त हो जाएगा ,
जिस तरह अंग्रेजों से मुक्त हुआ । ऐसे में जाहिर है , ‘कांग्रेस-मुक्त’
होने से भारत का उतना ही भला होगा, जितना गोरे अंग्रेजों के चले जाने और
उनकी बनायी सत्ता-व्यवस्था पर काले-कांग्रेसी अंगरेजों के काबिज होने से
हुआ । अर्थात , अंग्रेजों के चले जाने के बावजूद अंग्रेजी औपनिवेशिक
रीति-नीति, सोच-संस्कृति, पद्धति-परिपाटी के रूप में सारी अंग्रेजियत
कांग्रेस के नेतृत्व में बदस्तुर कायम ही नहीं रही , बल्कि फलती-फुलती
भी रही । नतीजा यह हुआ कि लोग-बाग बरबस ही यह महसूस करने लगे कि
कांग्रेसियों से अच्छा तो अंग्रेजों का शासन ही था । मेरा इशारा इस ओर है
कि चेहरा बदल जाना पर्याप्त नहीं है, नये चेहरों के चाल-चलन अगर न बदले ।
ट्रेन का ड्राइवर बदल जाने और ट्रेक वही का वही बने रहने से गंतव्य नहीं
बदल सकता ।
देश के यशस्वी प्रधानमंत्री व भाजपा के चमत्कारी नेता
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत अंग्रेजों की औपनिवेशिक हस्तक बनी
कांग्रेस के शासन से मुक्ति की ओर आगे बढ रहा है, यह सुखद और आशाजनक है ;
किन्तु महज सियासी सत्ता से कांग्रेस का सफाया हो जाने के बावजूद सियासत
में कांग्रेसियों की विरासत, या यों कहिए कि कांग्रेसियत का बचा रहना
उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा जितना अंग्रेजों के चले जाने के बाद हमारे
देश में अंग्रेजियत का आज तक बने रहना त्रासदपूर्ण है । हालांकि
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का रुझान कांग्रेसी विरासत को बचाए रखने के
प्रति कतई नहीं है, किन्तु कांग्रेस ने देश की राजनीति का जो ट्रैक बना
रखा है, उसे बदलने की दिशा में अभी कोई उल्लेखनीय काम दीख नहीं रहा है;
इस कारण यह आशंका बलवती होती जा रही है कि देश में बदलाव की बह रही तेज
आंधी के थपेडों से बडे-बडे विषवृक्षों के धराशायी हो जाने के बावजूद उनकी
जडें यथावत कायम न रह जाएं और कालान्तर बाद वे फिर नये रौब के साथ फुनग
न जाएं । आशंका यही और इतनी ही भर नहीं है , बल्कि यह भी है कि बदलाव की
इस आंधी में अंधेरी रात को जिस दस्यु-दल के विरूद्ध पूरा नागरिक समाज
लामबंद हो गया है , उस दल के चतुर-शातिर दस्यु अफरा-तफरी का लाभ उठा कर
नागरिकों की भीड में शामिल हो जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं- पकडो…..पकडो !
ऐसे कई चतुर-शातिर अवसरवादी मेरी व्यक्तिगत जानकारी में हैं,
जो कल तक इस देश की राष्ट्रीयता को कुंद करने वाली कांग्रेस के बडे
झण्डाबरदार थे , साम्प्रदायिक तुष्टिकरण ही जिनकी नीति थी, वन्देमातरम व
भारतमता का जो उपहास उडाते नहीं अघाते थे, वे रातों-रात लम्बी छलांग लगा
कर आज भाजपा में शामिल हो विधायक-सांसद बन बैठे हैं । क्या ऐसा समझा जा
सकता है कि दल बदल कर भाजपा में आ जाने मात्र से वे कांग्रेसी मनोवृत्ति
से उबर कर अब राष्ट्रवादी बन गए , या बन जाएंगे ? गौरतलब है कि हमारे देश
में कांग्रेस महज एक राजनीतिक दल का नाम नहीं है , बल्कि यह अंग्रेजी
उपनिवेशवाद की प्रतिनिधि और औपनिवेशिक राजनीति की भारत-विरोधी संस्कृति
का सरंजाम भी है । इसकी स्थापना ही अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक एजेण्डे
को क्रियान्वित करने के लिए किया हुआ था । लाल-बाल-पाल और सुभाष चन्द्र
बोस ने इसमें राष्ट्रवादी संस्कार डालने की कोशिश की, तो उनका हश्र क्या
हुआ, सभी जानते हैं । महात्मा गांधी ने इसे अपने ‘हिन्द-स्वराज’ दर्शन से
देशज स्वरूप प्रदान कर देशव्यापी बना दिया तब उनकी उस लोकप्रियता की
वैसाखी के सहारे अपना सियासी कद बढा कर पूरी कांग्रेस का अपहरण कर लेने
के पश्चात अंग्रेजों से सत्ता-हस्तान्तरण की दुरभिसंधि कर नेहरू ने किस
कदर महात्मा के विचारों की धज्जियां उडा कर गांधीवाद को सिर्फ बौद्धिक
वाग्विलास की वस्तु बना कर रख दिया , यह सत्य पूरी दुनिया जानती है ।
उसके बाद से अंग्रेजी उपनिवेशवाद का एजेण्डा ही कांग्रेस के हाथों
बेरोक-टेक लागू किया जाता रहा , इस तथ्य को भी कोई झुठला नहीं सकता । जिस
तरह से अंग्रेजों ने अपनी सोची-समझी कूटनीति के तहत अंग्रेजी शासन के
विरोधी स्वर को भी अपने अनुकूल बनाने के लिए कांग्रेस की स्थापना की थी ,
उसी तरह से आजादी के बाद कांग्रेस-विरोधी राजनीति के उठते स्वर को अनुकूल
बनाने के लिए यद्यपि कांग्रेस की ओर से अंग्रेजों की तर्ज पर कोई
सुनियोजित संगठन खडा नहीं किया गया ; तथापि ऐसे राजनीतिक दल कांग्रेसियों
के द्वारा ही बनाए-चलाए जाते रहे हैं , यह निर्विवाद सत्य है । कांग्रेस
से निकले हुए लोग ही भिन्न-भिन्न अवसरों पर देश के विभिन्न राज्यों में
विविध नामों से दल बना-बना कर सत्ता की राजनीति करते रहे ।
कांग्रेस-विरोध में निकले स्वरों के राग-सुर अचानक रातों-रात बदलते रहे
और नेताओं के हाथ एक-दूसरे से मिलते रहे । ‘राजनीति में सब कुछ चलता है’
, ऐसा कह कर वंशवाद व परिवारवाद के साथ-साथ ‘दल-बदल’ को भी न केवल
प्रश्रय दिया जाता रहा , बल्कि सुविधावाद व अवसरवाद को राजनीति का आवश्यक
रंग बना दिया गया । धार्मिक सम्प्रदाय एवं जातीय समुदाय विशेष को
वोट-बैंक बना-बना कर उनके तुष्टिकरण और आरक्षण की अवांछित प्रवृतियां
कांग्रेस ने की कायम है । विधायकों-सांसदों की हैसियत-अहमियत एवं
सुख-सुविधा, वेतन-भत्ता में अनावश्यक अतिशय बढोतरी कर-कर के समाज में एक
‘माननीय’ तबका और उनकी चमचागिरी-विचौलियागिरी करने का धंधा कांग्रेसियत
की ही देन है, जिसका लाभ सभी दल के लोग उठाते रहे हैं । मेरे कहने का
मतलब यह है कि अंग्रेजी उपनिवेशवाद की प्रतिनिधि-कांग्रेस ने ही इस देश
में राजनीति की कांग्रेसी संस्कृति और तदनुसार राजनीतिक परम्पराओं का
निर्माण किया जिसे सभी दलों ने बिना किसी परिवर्तन के स्वीकारा और अपनाया

अब जब कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा लगा कर भाजपा द्वारा
संसद व विधान-सभाओं में नये-नये संख्या-समीकरण बनाये-बदले जा रहे हैं, तो
उसके सांसदों-विधायकों के चिन्तन-आचरण में भी परिवर्तन होना चाहिए , जो
कहीं भी दीख नहीं रहा है । भाजपा-शासित राज्यों के विधायकों ने भी
अपने-अपने वेतन-भत्ते स्वयं बढा-बढवा लिए । भाजपाई सांसदों-विधायकों के
ठाट-बाट, लाव-लश्कर , नाज-नखरे सब वैसे ही हैं- कांग्रेसियत से सराबोर ।
एक नरेन्द्र मोदी को छोड कर किसी ने ऐसी कोई नजीर पेश नहीं की है अब तक,
जो कांग्रेसियत से रहित हो । जिस तरह से कांग्रेसियों द्वरा गांधी के
हिन्द-स्वराज को तिलांजलि दे कर सत्ता-सुख भोगना ही अपनी प्राथमिकताओं मे
शामिल कर लिया गया, उसी तरह दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म-मानव दर्शन का
ज्ञान औसत भाजपाइयों को आज भी नहीं है । अपने वैचारिक अधिष्ठान की
उपेक्षा कर सत्ता हासिल करने के लिए आदर्शवादिता से रहित जिस राजनीति का
ईजाद कांग्रेस ने किया है , उस कांग्रेसियत से भाजपा भी कतई मुक्त नहीं
है । अपने राजनीतिक अधिष्ठान की वैचारिकता के प्रशिक्षण और तदनुसार
राजनीतिक आचरण सुनिश्चित करने की ठोस व्यवस्था किये बिना भाजपा के
‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ अभियान का परिणाम भी ‘सत्ता-हस्तान्तरण’ की तरह
‘सत्ता-परिवर्तन’ तक ही सिमट कर रह जाएगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता
। क्योंकि , भाजपा द्वारा कांग्रेसियों को अंगीकार करते हुए
‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा लगाना ‘कांग्रेसियत-युक्त सियासत’ को ही
दोहराना है । कांग्रेस का सफाया करने के जोश व जुनून में भाजपा के भीतर
की कांग्रेसियत का उन्मूलन होने के बाजाय , बाहर से बे-रोक-टोक आ रहे
कांग्रेसियों के कारण भाजपा का ही कहीं कांग्रेसीकरण न हो जाए , इस ओर भी
भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को ध्यान देना चाहिए , तभी यह नारा सार्थक होगा ;
अन्यथा ‘अंग्रेज-मुक्त भारत’ के अंग्रेजीकरण जैसी एक नयी त्रासदी की
पुनरावृति भी हो सकती है ।
• मनोज ज्वाला

3 COMMENTS

  1. आशा के साथ पुरुषार्थ करते अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचिए। स्वयं और औरों को व्यर्थ कांग्रेस की बार बार आहूति डाल कांग्रेसियत रूपी अग्नि को प्रचंड किये जाने से रोकें।

  2. ऐसी आशा की जा सकती है । बावजूद इसके, कांग्रेसियों को अपने अंक में समेटते हुए भारत को ‘कांग्रेस-मुक्त’ बनाना एक पहेली ही प्रतीत होती है ।

  3. कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा और कांग्रेसियत-युक्त सियासी नजारा दिखाते हुए मनोज ज्वाला जी ने वर्तमान स्थिति को बहुत अच्छे ढंग से समझाया है लेकिन जब तक सबका साथ, सबका विकास होते कोई ठोस काम नहीं हो जाता, अंग्रेजों द्वारा बनाई गई इतनी बड़ी कांग्रेसी-हांडी को बदलने के उपक्रम में भारत का जनसमूह कहीं भूख के प्रकोप से तिलमिला न जाए| कांग्रेसी-हांडी के बाबूगिरी-तलवे को आरम्भ से ही ठीक किया जा रहा है ताकि उसमें पक रहे पदार्थ जल कर व्यर्थ न हो जाएं| जो सामग्री अब तक थाली अथवा कागज़ पर सजा कर धरी गई थीं, उन्हें विमुद्रीकरण जैसे कई अन्य पदार्थों को उसी कांग्रेसी-हांडी में पकाना होगा| धीरे धीरे परिवर्तन द्वारा हांडी का स्वरूप बदलता जाएगा अतः कांग्रेस- एवं कांग्रेसियत-मुक्त भारत में भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल अनेक भारतीय-मूल की हांडियां भांति भांति के “पकवानों” की रचना करेंगी|

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