कांग्रेस सावरकर के बारे में अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे

लालकृष्ण आडवाणी

गत् रविवार यानी 28 मई को वीर सावरकर की जयन्ती थी। यह महान क्रांतिकारी सन् 1883 में महाराष्ट्र के नासिक के निकट भगुर गांव में जन्मे थे।

जन्मजात मेधावी सावरकर की पद्य में असाधारण प्रतिभा थी और जब वह मुश्किल से 10 वर्ष के रहे होंगे तभी उनकी कविताएं समाचारपत्रों में छपने लगी थीं। जब वह मात्र 16 वर्ष के थे तब सावरकर ने अभिनव भारत संस्था बनाई जिसका मुख्य उद्देश्य भारत से अंग्रेजों को बाहर निकालने और देश को पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता दिलाना था।

मैं जब 15 वर्ष का था और हाई स्कूल से निकला ही था कि लाहौर गए मेरे एक मित्र मेरे लिए सावरकर की पुस्तक ‘दि फर्स्ट वार ऑफ इंडिपेंडेंस‘ की पुरानी प्रति लेकर आए। पुस्तक की कीमत 28 रूपये पड़ी जो कि उस समय एक बड़ी राशि हुआ करती थी।

अपने स्कूली दिनों से ही मैं उत्साही पुस्तक प्रेमी रहा हूं। यदि कोई मुझसे उन दो पुस्तकों के नाम पूछता है जिनका मेरे जीवन पर निर्णायक प्रभाव पड़ा तो मैं तुरंत दो पुस्तकों को गिनाता हूं जिन्हें मैंने एक युवा होने के नाते पढ़ीं – एक जब मैं 14 वर्ष का था – डेल कारनेगी की ‘कैसे दोस्तों को जीता जाए और लोगों को प्रभावित किया जाए‘ और दूसरी जो मैंने उसके अगले वर्ष पढ़ी – सावरकर द्वारा लिखित अत्यन्त प्रेरणादायक पुस्तक, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है।

अविभाजित भारत में सिंध बॉम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा था। अत: 1947 तक सिंध के लिए अलग से कोई विश्वविद्यालय नहीं था। प्रोविन्स के सभी कॉलेज बॉम्बे विश्वविद्यालय से सम्बध्द थे।

अपने जीवन में मैं पहली बार बॉम्बे (अब मुंबई) स्वतंत्रता प्राप्ति और कराची से विस्थापित होने के बाद 1947 में गया था। मैं दो दिनों के लिए मुम्बई गया था। वहां मैं जिस मित्र के साथ ठहरा हुआ था, उसने मुझसे पूछा कि ‘तुम यहां कोई विशेष स्थल देखने को इच्छुक हो!‘ मैंने कहा, ”मुझे वीर सावरकार के घर ले चलो।” जब मैं उनके शिवाजी पार्क स्थित आवास पर उनकी चुम्बकीय उपस्थिति में बैठा हुआ था तो उन्होंने सिंध में हिन्दुओं की स्थिति के बारे में मुझसे पूछा।

ब्रिटिश सरकार ने सावरकर की पुस्तक को ‘राजविद्रोही‘ करार दिया। एक निर्दयी औपनिवेशिक सत्ता द्वारा इस तरह की निंदात्मक उपाधि देना वास्तव में एक सम्मान है, जिससे वह इतना भयभीत थे कि उन्होंने पुस्तक के प्रकाशन से पूर्व ही इस पर प्रतिबंध लगा दिया। अंग्रेजों ने इस पुस्तक से घबराकार उसके वास्तविक प्रकाशन से पूर्व ही इस पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस पुस्तक की पांडुलिपि की भारत से इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड और वापस भारत तक की यात्रा की कहानी और छिपे तौर पर प्रकाशन के बाद इसके द्वारा क्रांतिकारियों को प्रेरित करने हेतु निभाई गई भूमिका 1857 में लड़ी गई लड़ाई की ही तरह रोमांचकारी है।

सावरकर ने यह पुस्तक लंदन में लिखी थी जहां वे कानून की पढ़ाई करने के लिए गये थे लेकिन वे शीघ्र ही केवल 25 वर्ष की आयु में ही क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गये। पुस्तक का मराठी में मूल पाठ 1857 की 50वीं वर्षगांठ को प्रतिबिम्बित करते हुए 1907 में पूरा हो गया था और उसे गुप्त रूप से भारत भेज दिया गया। लेकिन भारत में इसे छपवाया नहीं जा सका क्योंकि अंग्रेजी अधिकारियों जिन्हें इस पुस्तक की जानकारी थी, ने प्रिटिंग प्रेस पर छापे डलवा दिए थे।

चमत्कारिक ढंग से पांडुलिपि बचा ली गई और उसे वापिस सावरकर के पास पेरिस भिजवा दिया गया। उनके साथी क्रांतिकारियों ने इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद कर दिया लेकिन इंग्लैंड और फ्रांस में कोई भी प्रकाशक इसे छापने के लिए तैयार नहीं हुआ। अंत में, इसे 1909 में हॉलैंड में छापा गया और इसकी प्रतियां छिपाकर भारत भेज दी गईं। लेकिन पुस्तक के लेखक को राजद्रोह के आरोप में 1910 में लंदन में गिरफ्तार करके भारत भेज दिया गया। उन्हें दो आजीवन कारावासों के लिए दोषी ठहराया गया और ”काला पानी” अंडमान व निकोबार द्वीप समूह में भयानक सेल्युलर जेल भेज दिया गया। यह वही जेल थी जहां अंग्रेजों ने 1857 के विद्रोह में भाग लेने वाले हजारों देशभक्तों को भेजा हुआ था। वीर सावरकर ने अंधेरी और गंदी कोठरी में एकान्तवासी कैद में रहते हुए 11 वर्ष बिताए। उस जगह ऊपर से फांसी का तख्ता दिखाई देता था जहां कैदियों को रोजना फांसी पर लटकाया जाता था।

यद्यपि पुस्तक पर प्रतिबंध था इसके बावजूद इस पुस्तक का कई बार प्रकाशन हुआ। मैडम कामा ने यूरोप में इस पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित कराया। क्रांतिकारी गदर पार्टी के नेता लाला हरदयाल ने अमेरिका में एक संस्करण् निकाला। इस पुस्तक को भारत में पहली बार सन् 1928 में भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित कराया गया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और रास बिहारी बोस ने इसे सन् 1944 में जापान में प्रकाशित कराया और यह पुस्तक इंडियन नेशनल आर्मी के सैनिकों के लिए लगभग एक पाठय-पुस्तक बन गई। सन् 1947 में पुस्तक से प्रतिबंध हटा लिए जाने से पहले ही सावरकर की पुस्तक भूमिगत नेटवर्क में कई भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो चुकी थी। इस प्रकार, यह कोई ऐसी पुस्तक नहीं थी जिसे एक सामान्य इतिहासकार ने अपने आराम, सुरक्षा और शैक्षिक सहायता का सहारा लेकर लिखी हो। बल्कि यह पुस्तक एक ऐसे क्रांतिकारी द्वारा लिखी गई थी जिसे अपनी गतिविधियों के लिए अकल्पनीय मुसीबतें झेलनी पड़ी थी और जिसने भारत को अंग्रेजों के चुंगल से मुक्त करने के सामूहिक उद्देश्य वाले अन्य अनगिनत क्रांतिकारियों को प्रेरित किया था।

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संसद के सेंट्रल हॉल के ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए वहां महत्वपूर्ण राष्ट्रीय नेताओं के छायाचित्र सजाए गए हैं।

हॉल के भीतर जो रास्ता इसे राज्य सभा चेम्बर से जोड़ता है, वहां एक स्थायी मंच बना हुआ है; और उसके ऊपर मेहराब पर मंच की ओर देखता हुआ महात्मा गांधी का छायाचित्र है।

मंच के ऊपर की इस मेहराब के दायीं और बायीं दिशा में सी. राजगोपालाचारी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के चित्र लगे हैं। इसके अलावा हाल में लकड़ियों के पेनल में सुरक्षित आयताकार 20 छायाचित्र और टंगे हैं जो अन्य राष्ट्रीय नेताओं के हैं। इन में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, पण्डित मोतीलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सरदार वल्लभभाई पटेल, चित्तरंजन दास, डा. बी.आर. अम्बेडकर, मोरारजी देसाई, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सरोजिनी नायडू, चौधरी चरण सिंह, डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डा.राजेन्द्र प्रसाद, डा. राममनोहर लोहिया, लाल बहादुर शास्त्री, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, पण्डित मदन मोहन मालवीय और दादाभाई नारौजी-के चित्र शामिल हैं। मंच के ठीक सामने वाले मेहराब पर स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर का छायाचित्र है।

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संसद के सेंट्रल हॉल में जिन नेताओं के छायाचित्र टंगे हैं, उनके मामले में लोकसभा सचिवालय उनकी जयन्ती और पुण्य तिथि पर श्रध्दांजलि देने के लिए सांसदों को संसद भवन बुलाना कभी नहीं भूलता। गत् शनिवार के निमंत्रण भी सभी सांसदों को भेजे गए थे। लोकसभा के बुलेटिन के पार्ट-प्प् में नोटिस भी प्रकाशित किया गया था। कुछ सांसद वहां उपस्थित थे। लेकिन कांग्रेस से एकमात्र सांसद उपस्थित थीं तो वे थीं सम्मानीय स्पीकर श्रीमती मीरा कुमार। फरवरी, 2003 में जब सेंट्रल हॉल में स्वातंत्र्यवीर सावरकर का छायाचित्र लगाया गया और तत्कालीन राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम द्वारा इसका अनावरण किया गया तब से कांग्रेस पार्टी इस छायाचित्र से जुड़े सभी कार्यक्रमों का बहिष्कार करती रही है, जिसमें वह पहला कार्यक्रम भी शामिल है जिसमें स्वयं राष्ट्रपति महोदय मौजूद थे!

यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है और मैं कांग्रेस पार्टी से इस सम्बन्ध में अपने रूख पर पुनर्विचार करने का अनुरोध करता हूं।

1966 में जब सावरकर ने अंतिम सांस ली तो इंदिरा गांधी ने उन्हें श्रध्दांजलि देते हुए आधुनिक भारत की एक महान विभूति बताया जिनका नाम साहस और देशभक्ति का पर्याय बन चुका था। श्रीमती गांधी ने कहा कि वे उत्कृष्ट श्रेणी के क्रांतिकारी थे और अनगिनत लोगों ने उनसे प्रेरणा ली। तत्कालीन उपराष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन ने अपने शोक संदेश में कहा: ”एक महान क्रांतिकारी के रूप में उन्होंने अनेक युवाओं को मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के काम में लगने की प्रेरणा दी।”

मुझे स्मरण आता है कि एनडीए के दिनों में जब भी सावरकार से सम्बन्धित कोई कार्यक्रम होता था तो वसंत साठे निरपवाद रूप से उपस्थित रहते थे। उन्होंने मुझे बताया कि सूचना एवं प्रसारण मंत्री के उनके कार्यकाल में सावरकर पर एक वृत्तचित्र की योजना बनी और कुछ लोगों ने इस पर आपत्ति उठाई। श्रीमती गांधी की सलाह पर उन्होंने इन आपत्तियों को दरकिनार कर वृत्तचित्र बनवाया।

मुझे याद आता है कि एनडीए के शासन के दौरान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से डा. बी.आर. अम्बेडकर पर एक फीचर फिल्म बनाने का अनुरोध किया गया। सीरीफोर्ट सभागार में हुए इस फिल्म के शुरूआती कार्यक्रम में मैं भी उपस्थित था। मेरे साथ फिल्म के निदेशक जब्बार पटेल बैठे थे, ज़िनसे मेरा संक्षिप्त तर्क-वितर्क हुआ।

मेरा उनसे अनुरोध था: डॉ. अम्बेडकर को महान दिखाने क्रम में क्या गांधी को पाखंडी के रुप में प्रस्तुत करना वाकई जरूरी है? आखिरकार, देश में लाखों लोगों के लिए दोनों ही नायक हैं। क्यों नहीं दोनों के सकारात्मक पक्षों को दिखाया जाए? और मैंने उन्हें गांधी और उनके पुत्र हरीलाल पर बनी फिल्म का वर्णन किया जो मैंने देखी थी, जिसमें उनका पुत्र अपने पिता की सख्ती से जिद्दी बन गया। पिता और पुत्र के बीच संबंध इतने कटु थे कि इन दोनों पर स्क्रिप्ट लिखना आसान काम नहीं था। तब भी चन्द्रलाल दलाल और नीलम भाई पारेख जिन्होंने मूल पुस्तक लिखी है और फिरोज अब्बास खान जिन्होंने फिल्म तथा नाटक का निर्देशन किया है, ने इसे इतने सुंदर ढ्रंग से किया है कि दर्शक इससे बहुत अच्छे तथा सहानुभूतिपूर्वक जुड़ा महसूस करते हैं जो दिल को छू लेता है। फिल्म का नाम था: ”गांधी मॉय फादर।” नाटक का शीर्षक था ”महात्मा बनाम गांधी।”

1 COMMENT

  1. देशद्रोही नेहरु -गाँधी वंश कभी किसी देशप्रेमी क्रांत्वीर को तवज्जो देगा ? उनका नजरिया सिर्फ सत्ता हासिल करने के हिसाब से बनता बिगड़ता है .

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