क्षेत्रीय दलों के गठबंधन में कांग्रेस का पेंच

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प्रमोद भार्गव

इस समय देश की राजनीति में नई करवट लाने की कोशिश पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी द्वारा की जा रही है। इस नजरिए से उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ तीसरा मोर्चा बनाने का व्यापक अभियान छेड़ दिया है। ममता ने विपक्षीय दलों के बड़े नेताओं से मुलाकत करके विपक्षी एकजुटता का संदेश दिया है। साथ ही उनसे नरेंद्र मोदी के विरुद्ध आवाज उठा रहे यशवंत सिन्हा, शत्रुधन सिन्हा और अरुण षौरी जैसे नेताओं ने भी मुलाकात की है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि 2019 में होने वाले चुनाव से पहले यदि ममता विपक्ष को गोलबंद करने में सफल होती हैं तो राजग के घटक दल तो टूट कर ममता के सहयोगी बन ही सकते हैं, भाजपा भी दिग्गज नेता अलग हो सकते हैं। ममता की मंशा 12 दलों को इकट्ठा करने की है। लेकिन इस मोर्चे के नेतृत्व का दायित्व यदि कांग्रेस के सोनिया या राहुल गांधी में से किसी को नहीं मिलता है तो अस्तित्व में आने के बावजूद इस मोर्चे कोई असरकारी अर्थ निकलना मुश्किल है। वैसे भी विपक्ष का कोई भी गठबंधन कांग्रेस के बिना बनना मुश्किल है। इसी दृष्टि से काग्रेंस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने स्पष्ट भी कर दिया है कि देश का सबसे बड़ा विपक्षी दल कांग्रेस है। इस लिहाज से कांग्रेस के नेतृत्व में ही विपक्षी पार्टियों का गठबंधन बन सकता है। अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर कांग्रेस गठबंधन में शामिल नहीं होगी।

राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय दलों के गैर कांग्रेसी मोर्चे को यदि कांग्रेस को शामिल किए बिना अमलीजामा पहनाया जाता है तो कांग्रेस किसी भी कीमत पर इसे सिर नहीं चढ़ने देगी। रणदीप सुरजेवाला के कथन से स्पष्ट होता है कि यदि कांग्रेस को दरकिनार करके किसी तरह का मोर्चा बनाने की कोशिश सफल होती दिखी तो कांग्रेस राज्यों में सक्रिय अन्य छोटे दलों को साथ लेकर चुनावी मुकाबले को त्रिकोणीय रणनीति की शक्ल दे सकती है। यदि ऐसा हुआ तो भाजपा को ही लाभ मिलेगा। हालांकि ममता ने कांग्रेस की इन सब अटकलों की परवाह किए बिना नेशनल काॅन्फ्रेंस के नेता फारूख अब्दुल्ला व उमर अब्दुल्ला, एनसीपी प्रमुख शरद पवार, लालू यादव की बेटी मीसा भारती, सपा नेता रामगोपाल यादव, टीडीपी नेता वायएस चैधरी, बीजद नेता पिनाकी मिश्रा, शिवसेना सांसद संजय राउत, स्वाभीमान शेतकारी संगठन के राजू शेट्टी और टीआरएस के केशवराव से मिलीं। प्रसिद्ध वकील और सामाजिक आंदोलनों को हवा देने वाले प्रशांत भूशण से भी उन्होंने मुलाकात की। ममता को इस मोर्चे को वजूद में लाने की प्रेरणा शायद सपा और बसपा के गठबंधन को गोरखपुर और फूलपुर की जीत से मिली है। इधर तेलगु देशम पार्टी के राजग से अलग होने के बाद यह संभावनाएं बढ़ी हैं। कैंब्रिंज ऐनालिटिका, सीबीएसई पर्चा लीक और संसद में चल रहे शोर-शराबे से भी विपक्ष खुशफहमी में है।

दरअसल क्षेत्रीय दल जाति, संप्रदाय के साथ कुछ अन्य क्षेत्रीय समस्याओं के मुखर पैराकार होते हैं। भाषा और क्षेत्रीय संस्कृति को भी वे उपराष्ट्रीयताओं के रूप में भुनाने का काम करते हैं। ममता बनर्जी का तो मां,माटी और मानुष मंत्र ही रहा है। इस मंत्र के बूते उन्होंने 2011 में पश्चिम बंगाल से विचारधारा आधारित 34 साल से सत्ता में काबिज रहे वामदलों को उखाड़ फेंका था। तब ममता ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था। किंतु 2016 में कांग्रेस वामदलों से मिलकर चुनाव लड़ी थी, जबकि तृणमूल कांग्रेस अपने बूते चुनाव लड़ी। इस बार ममता के सामने बंगाल में उभरती हुई नई राजनीतिक ताकत के रूप में भाजपा भी थी। भाजपा ने गोरक्षा मुक्ति मोर्चा से गठबंधन करके सभी सीटों पर चुनाव लड़ा था। वामपंथियों को 2011 में पराजय की धूल चटा चुकी ममता ने 2016 में वाम और कांग्रेस के गठजोड़ के मंसूबों पर भी पानी फेर दिया। पिछली बार की तुलना में उनका वोट प्रतिशत भी बढ़ा और सीटें भी 184 से बढ़कर 211 हो गईं। ममता के करिश्मे के आगे भाजपा गठबंधन का भी कोई जादू नहीं चला। उसे मात्र 6 सीटों पर संतोष करना पड़ा। नेताजी सुभाष बोस के परिजनों को भी जनता ने नकार दिया। बावजूद बंगाल में भाजपा को पैर रखने लायक जगह मिलना भी एक बड़ी कामयाबी है। ममता की यही वह सफलता है जो उन्हें संघीय मोर्चे को अस्तित्व में लाने के लिए उकसा रहा है। इस मोर्चे में कांग्रेस की क्या भूमिका रहेगी यह अभी साफ नहीं है।

बावजूद नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ऐसे द्रुत गति के इंजन हैं, जो आगे चलती दिखाई देते हैं। इसी का परिणाम है कि आज पूर्वोत्तर के सात राज्यों में से भाजपा की पांच राज्यों में सरकारें हैं। भाजपा के इस छोर पर विस्तार से क्षेत्रीय दल एका करने के मूड में आ गए हैं। लेकिन इनके जो मुखिया हैं, उनमें से ज्यादातर गठबंधन का मुखिया बनने के साथ प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब भी देख रहे हैं। दक्षिण भारतीय नेता और तेलंगाना के मुखयमंत्री के. चंद्रशेखर राव, पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के जमाने में बने समीकरण देखने लगे हैं। राव मानते हैं कि वे सत्ता में शिखर के लिए हैं। इसके पीछे दलील यह है कि उन्हें सरकार चलाने का अनुभव है और हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और तेलगु भाषाओं को बोलने व समझने में वे दक्ष हैं। 2014 में तेलंगाना की सत्ता संभालने के बाद उन्हें यह भ्रम हो गया है कि वे तेलंगाना से आए पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव की जगह लेने के काबिल हो गए हैं। तेलगु देशम के चंद्रबाबू नायडू भी मोर्चे का नेतृत्व संभालने के साथ भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश आना चाहते हैं। शरद पवार तो पिछले 25 साल से लाल किले की प्राचीर पर झंडा फहराने का ख्वाब देख रहे हैं। लेकिन अब बढ़ती उम्र और महाराश्ट्र में कांग्रेस के सहयोगी दल के रूप में रहने के कारण उनकी संभावनाएं लगभग क्षीण है। फिर भी 2019 में मोर्चा स्पष्ट बहुमत में आ जाता है तो वे अपनी जगह बनाने के लिए जोड़-तोड़ कर सकते हैं। मायावती ने सपा के साथ गोरखपुर और फूलपुर के लिए तो सांठ-गांठ कर ली थी, लेकिन लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर उनमें मतभेद उभर सकते हैं। तालमेल के बावजूद भी यदि बसपा को 40 से ऊपर सीटें नहीं मिलती हैं तो दलित होने के बाद भी उन्हें प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिलना मुश्किल है। उत्तर प्रदेश में पुत्र अखिलेश यादव के वर्चस्व के बाद मुलायम की संभावनाएं लगभग खत्म हो गई हैं। इधर चारा घोटाले में लगातार भिन्न-भिन्न अदालतों से मिल रही सजाओं के बाद लालू प्रसाद यादव का तो राजनीति भविष्य ही खत्म हो गया है। ऐसे में ममता ही एक ऐसी नेता है, जो यदि अपनी ईमानदार छवि और जुझारू तेवरों के चलते पश्चिम बंगाल में 40 से ऊपर सीटें ले आती हैं और राजग गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो उनकी प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी पर सहमति बन सकती है। लेकिन मोर्चे में कांग्रेस को जगह नहीं मिलती और उसका नेतृत्व स्वीकार नहीं किया जाता तो ममता के मोर्चें की दाल की गलना मुश्किल है।

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