कांग्रेस : तार-तार होती दलीय निष्ठा

कांग्रेस : दल नहीं, नेता ही सब कुछ
सुरेश हिन्दुस्थानी
महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव की तैयारियों के बीच कांग्रेस में जिस प्रकार का राजनीतिक भूचाल मचा हुआ है, वह कमोवेश इसी बात को इंगित कर रहा है कि कांग्रेस में दलीय निष्ठाएं पूरी तरह से हासिए पर होती जा रही हैं। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि गत दो लोकसभा चुनावों में करारी पराजय झेलने के बाद भी केन्द्रीय नेतृत्व इस पर मंथन करने को तैयार नहीं है कि इस शर्मनाक पराजय के कारण क्या थे? कांग्रेस के बारे में प्राय: यही समझा जाता है कि इसमें जो राजनेता शिखर की राजनीति कर रहे हैं, उनके अपने-अपने समूह बने हैं और ये नेता इन समूहों से बाहर निकलने का प्रयास भी नहीं करते। इसे सीधे शब्दों में कहा जाए तो यही सर्वथा उचित होगा कि वर्तमान में कांग्रेस के अंदर ही कई कांग्रेस चल रही हैं। समानांतर राजनीतिक पार्टी के रुप में अपनी राजनीति कर रहे कांग्रेस के नेता वास्तव में आज कांग्रेस से बहुत दूर होते जा रहे हैं। यही कांग्रेस की दुर्गति का एक मात्र कारण माना जा रहा है।


हरियाणा के चुनावी मैदान में जहां दो दल भाजपा और कांग्रेस में सीधी लड़ाई मानी जा रही है, वहीं महाराष्ट्र में दोनों राजनीतिक दल अपने अपने सहयोगी दलों के साथ चुनाव जीतने की जुगत कर रहे हैं। इन दोनों राज्यों में जो चुनाव से पहले की जो तसवीर उभर रही है, उससे यही लगता है कि कांग्रेस में दलीय निष्ठाओं का अभाव होने लगा है। उसके राजनेता अपने स्वयं के अस्तित्व को बचाने के लिए पार्टी को समाप्त करने की दिशा में अपने कदम बढ़ा चुके हैं। इन नेताओं को केवल अपने स्वयं के राजनीतिक अस्तित्व की ही चिंता है। इसी अहंकार के कारण कई स्थानों पर कांग्रेसी राजनेताओं ने बगावत भी कर दी है, बगावत भी ऐसी कि वह अपने आलाकमान पर ही कांग्रेस को समाप्त करने का आरोप लगा रहे हैं। यानी इनके खुद के अस्तित्व के समक्ष पार्टी कुछ भी नहीं है। चुनाव से पूर्व की यह स्थिति निश्चित ही कांग्रेस के लिए बहुत ही दुखदायी भी हो सकती है। कांग्रेस के बारे में यह भी कहा जाता है कि जहां कांग्रेस पराजित होती है, वहां वास्तव में पार्टी पराजित नहीं होती, बल्कि उसके नेता ही पार्टी को हरवा देते हैं। इसलिए यह कहना तर्कसंगत ही होगा कि कांग्रेस को कांग्रेस ही पराजित करती है।
कांग्रेस की स्थिति का आंकलन किया जाए तो यह सहज ही प्रदर्शित हो जाता है कि वहां दलीय निष्ठाएं चकनाचूर होती जा रही हैं। राजनेता अपने आपको पार्टी से बड़ा समझने लगे और वैसा ही व्यवहार भी करने लगे हैं। हम सभी जानते हैं कि हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा चुनाव से पूर्व ही खुलकर कांग्रेस आलाकमान के विरोध में आ चुके थे, जिसके बाद न चाहते हुए भी उनको मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना पड़ा। यहीं से हरियाणा कांग्रेस में बगावत की चिंगारी भड़की। इससे यह भी प्रकट होता है कि जब इतना बड़ा नेता अपने आपको पार्टी से बड़ा समझने लगे, तब स्वाभाविक रुप से यही सवाल उठता है कि कांग्रेस में केवल नेता ही बचे हैं, दल तो है ही नहीं। यह इसलिए भी लग रहा है कि आज कांग्रेस में केवल एक परिवार को ही आलाकमान माना जा रहा है। कांग्रेस एक परिवार से दूर नहीं हो पा रही है। हालांकि लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद राहुल गांधी ने जब अध्यक्ष पद से अपना त्याग पत्र दिया, तब यही कहा गया था कि गांधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष बनाया जाए, लेकिन लम्बी कवायद के बाद भी परिणाम कुछ नहीं निकला। अध्यक्ष के रुप में सोनिया गांधी को स्वीकार कर लिया। इस बात ने कांग्रेस के प्रति पैदा हुए अविश्वसनीयता के वातावरण में और वृद्धि ही की है। दूसरी बात यह भी सामने आ रही है कि ऊपरी स्तर पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी के सोच में भी जमीन आसमान का अंतर दिखाई दे रहा है। कांग्रेस में सोनिया गांधी का समर्थन करने वाली टीम अलग है तो राहुल गांधी के टीम में अलग नेता शामिल हैं। यही कारण है कि जो किसी भी टीम में नहीं हैं, वे सभी नेता अपने आपको खुद ही पार्टी समझने लगे हैं।
हरियाणा में कांग्रेस से बहुत दूर जा चुके वरिष्ठ नेता अशोक तंवर ने यह कहकर सनसनी फैलाने का काम किया है कि पार्टी में राहुल के समर्थकों का अपमान किया जा रहा है। यह सच है कि इन दोनों राज्यों के चुनाव में राहुल गांधी की बिलकुल भी नहीं चली है। इसलिए अभी तक जिन नेताओं के सिर पर राहुल गांधी का वरदहस्त था, उन सभी को किनारे किए जाने का कार्य किया जा रहा है।
वर्तमान में जिस प्रकार से इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के स्थापित नेताओं द्वारा व्यवहार किया जा रहा है, उसे कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी माना जा रहा है। खतरे की घंटी इसलिए भी है, क्योंकि यह सभी राजनेता अपने अपने राज्यों में प्रभावी अस्तित्व रखते हैं। जो कांग्रेस के सपने को तोडऩे का दम रखते हैं। ये कांग्रेस को जिता सकने वाली भूमिका में भले ही न हों, लेकिन इतना अवश्य ही दम रखते हैं कि वह कांग्रेस को पराजित जरुर करवा सकते हैं। जो व्यक्ति अपनी ही पार्टी को हराने का प्रयास करता है, उसकी दलीय निष्ठाएं क्या होंगी, समझा जा सकता है। हरियाणा में जहां कांग्रेस के कद्दावर नेता तंवर विरोधी रुख अपनाए हुए हैं, वहीं महाराष्ट्र में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता संजय निरुपम भी बगावत की मुद्रा में हैं। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के बड़े नेताओं के विरोधात्मक रवैये के कारण निश्चित ही कांग्रेस इसकी भरपाई नहीं कर पाएगी। इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस अपने पैरों पर स्वयं ही कुल्हाड़ी मारने का काम कर रही है।

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