कांग्रेसी राजनीति का पतन और डॉ. लोहिया का प्रभाव

हरिकृष्ण निगम

सन् 1967 के पश्चात् कांग्रेस के प्रभुत्व का ह्रास और स्वातंत्र्योत्तर भारत की राजनीति का प्रथम बड़े स्तर का मोड़ जिन कारणों से आया था उसमें देश के चौथे आम चुनावों के परिणाम सर्वाधिक महत्व के माने जाते हैं। उस परिवर्तन की आंधी लाने वालों में डॉ. राममनोहर लोहिया के निर्विवादित रूप से नई शक्तियों के संघर्ष का जनक कहा जा सकता है। यद्यपि उस समय देश में उनके बड़े नेता थे जैसे मधु लिमये, भूपेश गुप्त, ए. के. गोपालन, कृपलानी, मीनू मसानी और अटल बिहारी बाजपेयी पर विरोधी दलों की वैकल्पिक सरकार की विचार धारा को मुखर रूप से लाने वालों में डॉ. लोहिया अग्रगण्य थे। पहली बार दो टूक टिप्पणी उन्होंने ही की थी कि कांग्रेस मात्र सत्ता पिपासुओं का गिरोह है इसलिए भारत के लोकतंत्र को कांग्रेस के यथास्थितवाद से मुक्त कराना होगा। उन्होंने ही सर्वप्रथम कहा था – मैं प्रतिपक्ष को प्रतिपक्ष की पार्टियां न कह कर, गैर-कांग्रेसी पार्टियां कहना अधिक पसंद करूंगा क्योंकि आज की लड़ाई कांग्रेस के ‘स्टेटस् क्वो’ अर्थात् यथास्थितवाद और प्रतिपक्ष के परिवर्तन बाद के बीच है।

यदि उस समय के परिवेश पर ध्यान दें तो पायेंगे कि उस चौथे आम चुनाव के फलस्वरूप कांग्रेस दल का प्रभुत्व व एकाधिकार जो उसे 20 वर्षों से प्राप्त था वह नष्ट हो गया क्योंकि कांग्रेस केंद्र में बहुत कम बहुमत प्राप्त कर पाई थी तथा आठ राज्यों में उसे बहुमत नहीं मिला था। राजनीतिक व्यवस्था के इस बड़े परिवर्तन को कांग्रेसी प्रभुत्व की आकस्मिक समाप्ति नहीं कहा जा सकता था। इसके बीच विरोधी दलों की बढ़ती विश्वसनीयता के साथ-साथ यदि दूसरे राष्ट्रीय नेता ने बोए थे तो उनमें चार नाम उनके प्रभावों के आधार पर लिये जा सकतेहैं। शत-प्रतिशत की अपनी कांग्रेस विरोधी की गतिविधि का आधार बनाने वाले डॉ. लोहिया और उसके बाद मधु लिमये व अटल बिहारी बाजपेयी और मीनू मसानी क्रमशः कांग्रेस के जाने के बाद अराजकता फैल जाएगी पर उस समय संयुक्त समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष एस. एम. जोशी और डॉ. लोहिया ने इसे निराधार कहकर लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में गैर-कांग्रेसी सरकार बनाने की तैयारी की बात की थी। आज ये मुद्दे प्रासंगिक न लगते हों पर उस समय नेहरू युग की छाया में रहने वले देश को इतना मुखर और स्पष्ट वैकल्पिक संदेश देना डॉ. लोहिया जैसे स्वपनदर्शी के लिए ही संभव था। यह बात दूसरी है कि कांग्रेसी एकाधिकार जैसे-जैसे अपने आस्तित्व के संकट के दौर से गुजर रहा था पर इस बात में कोई संदेह नहीं है कि वे कम्युनिस्ट रहित संयुक्त लोकतांत्रिक विरोधी मोर्चा लोकसभा में बनाने के सदैव सपने देखते रहे थे। राजनैतिक शक्तियों की भावी पुर्नरचना में डॉ. लोहिया के अनुसार वामपंथी और दक्षिण पंथ की भूमिका बेमतलब भी और एक सामान्य गैर-कांग्रेसवाद का प्लेटफार्म ही सर्वमान्य हो सकता था। उन्होंन चेतावनी भी दी थी कि किसी राज्य में कांग्रेस के साथ संयुक्त मंत्रिमंडल बनाना मौत को गले लगाना होगा। जिन दलों में भी कांग्रेस के हिमायती हैं वह जनमत की तेजधारा में डूब जाएंगे।

यहां यदि हम कांग्रेस वर्चस्व की समाप्ति के कारणों पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो जनता में प्रशासन के विरूध्द व्याप्त रोष के अतिरिक्त उसके अंदर स्वयं जो फूट पड़ रही थी वह भी जिम्मेदार थी। अपने दल की गुटबंदी के कारण कांग्रेस पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में पराजित हुई थी। इसी कारण नामी नेता जैसे कामराज, पाटिल अतुल्य घोष, पी. सी. सेन, कृष्ण बल्लभ सहाय, कमलापति त्रिपाठी, गुरूमुख सिंह मुसाफिर आदि पराजित हो गए थे। कांग्रेस की हार का यह एक बड़ा अन्य कारण था कि विरोधी दल अभी तक संगठित नहीं थे। यद्यपि विरोधी दलों के उद्देश्यों में कोई सहमति नहीं थी पर डॉ. लोहिया ने अप्रत्यक्ष रूप से केवल इस बात पर एकमत पैदा कर दिया था किसी न किसी तरह कांग्रेस को पराजित किया जाए। कांग्रेस की पराजय का एक बड़ा कारण क्षेत्रीय समस्याओं में अधिक उलझना, राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करना और सांप्रदायिक दंगों के पीछे कांग्रेसियों का हाथ होना भी था। न उन्हें मुसलमानों का सहयोग मिला और नही भाषा नीति के कारण दक्षिण में मतदाताओं का उन्हें सहयोग मिल पाया।

सच बात तो यह है कि 1967 में कांग्रेस की पराजय को एक आकस्मिक दुर्धटना नहीं समझना चाहिए। इस अवनति का बीज पिछले 21 सालों से पनप रहा था। एक आंकड़े के अनुसार 1952 से 1962 की अवधि में राज्यों की विधान सभा में कांग्रेस को मिले मतों का प्रतिशत धीरे-धीरे कम होता रहा था पर विरोधी दलों को सहयोग के अभाव में कांग्रेस सत्ता में कांग्रेस को मिले मतों का प्रतिशत धीरे-धीरे कम होता रहा था पर विरोधी दलों में सहयोग के अभाव में कांग्रेस सत्ता से नहीं हट सकी। 1967 में इन्हीं विरोधी दलों ने डॉ. लोहिया को साथ रख कर कांग्रेस के विरूध्द चुनाव संगठन बनाया। चौथे आम चुनाव कांग्रेस को पराजित करने के मंतव्य से ही लड़ गए थे। यह चुनाव कांग्रेस को संक्षोम उपचार या शॉक ट्रीटमेंट देने वाला था। इस पराजय ने उदासीन कांग्रेस को यह सोचने को बाध्य कर दिया वह क्या करें क्योंकि उसके अंदर स्वयं समाजवादियों, धर्मनिरपेक्ष, सांप्रदायिक, सांप्रदायिक, लोकतांत्रिक या अवसरवादी सभी वर्ग पनप रहे थे जो विश्वसनीयता को चोट पहुंचा रहे थे। नेहरू जी की विदेशनीति, विशेषकर चीन का तुष्टीकरण और तिब्बत को असहाय छोड़ देना भारतीय मानस को आहत कर चुका था। डॉ. लोहिया और मधु लिमये क ी दूरदर्शिता का यह परिणाम निकला कि 1967 के चुनाव के पश्चात् अनेक राज्यों में मिलीजुली सरकारें बनी थी जिससे कांग्रेस सत्ता प्राप्त न कर पाए। बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब में जिन कांग्रेस विरोधी पार्टियों ने मिली जुली सरकारें बनाई, उनमें जनसंघ से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी तक सम्मिलित थी। परंतु सत्ता ग्रहण करने के पश्चात् उन पार्टियों को यह अनुभव हुआ कि वे अपने-अपने-अपने उद्देश्यों की असमानता के कारण मिलकर काम नहीं कर सकती। उत्तर प्रदेश के संयुक्त विधायक दल में राज्यपाल के सहयोग से कांग्रेसी नेता सी. बी. गुप्ता को पिछले दरवाजे से मंत्रिमंडल बनाने का निमंत्रण मिला था पर वह सरकार मात्र 18 दिन चल सकी। फिर चरण सिंह का मिलीजुली सरकार का 7 अप्रैल, 1967 का मुख्यमंत्री बनना और फिर 18 फरवरी, 1968 को त्यागपत्र देना उस समय के एक बड़े मिशन की सत्ता की भूख में समा जाना सर्वविदित हैं। यही घटनाक्रम 1967 के चुनाव के बाद महामाया प्रसाद, भोला पासवान और दरोगा राय की सरकार द्वारा दोहराया गया। यही सब कुछ पंजाब में गुरनाम सिंह की सरकार के साथ हुआ था जिसने 8 मार्च, 1967 को मंत्रिमंडल बनाया था। केरल, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में भी विचारधारा से हटकर आपसी झगड़ों का बोलबाला रहा। कुछ भी हो यह तो सिध्द हो गया था कि 1967 के चुनावों के बाद कांग्रेस ने अपना एकात्म प्रभुत्व केंद्र तथा राज्यों में खो दिया था। विरोधी दलों के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में पहली बार एक राजनीतिक विकल्प की तलाश की गई थी जिसका एक बड़ा श्रेय डॉ. लोहिया को ही दिया जाएगा यद्यपि वे स्वयं अन्य दलों की खींचतान से जीवन भर जूंझते रहे थे।

उस समय ‘संसोपा’ के विशेषण से जाने वाले डॉ. लोहिया के दल द्वारा लक्ष्यों की तलाश व उसकी अपनी छाया छवि मात्र उसकी नीतियों द्वारा नहीं बल्कि नेतृत्व की प्रकृति में भी थी। दल के नेता डॉ. लोहिया अपने गुणों के कारण तो विशिष्ट थे ही, देश के सर्वाधिक समादृत एवं लोकप्रिय प्रतिभावों में से एक थे। हिन्दी भाषी राज्यों के अतिरिक्त महाराष्ट्र, केरल और उड़ीसा में भी उन से ज्यादा भीड़ शायद किसी अन्य व्यक्ति की सभाओं में नहीं होती थी। 60 के दशक के उत्तरार्ध में एक मासिक पत्रिका ‘जन’ पत्रिका प्रकाशित होती थी। जिसके प्रधान संपादक डॉ. लोहिया होते थे। उसमें उनके विचारों की परिधि इतनी विस्तृत होती थी जो एक ओर भारत की विदेशी नीति जिसमें चीन की तिब्बत पर नियंत्रण की वैधता से लेकर पाकिस्तान की आक्रमकता पर उनके दो टूक विचार रहते थे, दूसरी ओर साहित्यकारों को भी दिशा निर्देश देनें से वे नहीं चुकते थे। आर्थिक विषयों पर उनकी पैनी दृष्टि इस पत्रिका की उपयोगिता द्विगुणित कर देता था। डॉ. लोहिया वस्तुतः एक बौध्दिक राजनीतिज्ञ और राजनीति में सक्रिय बुध्दिजीवी एक साथ कहे जाते थे।

हमारे देश की एक समय की प्रतिष्ठित व चर्चित हिन्दी पत्रिका ‘दिनमान’ जिसके संपादक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ थे उन्होंने 13 अगस्त, 1967 के अंक में एक परिचर्चा में ‘सन 2000 का भारत कैसा होगा’ इस विषय पर डॉ. राममनोहर लोहिया जी का साक्षात्कार प्रकाशित किया था उसके अनेक अंश उनके भविष्यदर्शी रूप को प्रस्तुत करते हैं। शताब्दि के अंत में अकाल, महामारी और मृत्यु की संभावना को उन्होंने उत्पादन और वितरण की समस्या के रूप में देखा था। नेहरू जी की औद्योगीकरण एवं केंद्रीयकृत योजनाओं को आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि अपनी विवशताओं और कुंठाओं से घिरा भारत इस सदी के अंत तक परतंत्र तो नहीं पर फिर भी पश्चिम की नई गुलामी करेगा। उन्होंने कहा था – ‘अब उस तरह की गुलामी नहीं होगी जिसे हम शारीरिक गुलामी कहते हैं। वह गुलामी तो खत्म हो चुकी। मेरे ख्याल में रूस और अमेरिका किसी देश को परतंत्र न होने देंगे। लेकिन व्यापारिक गुलामी का खतरा जरूर है और गरीब देशों को इस खतरे का सामना बराबर करना होगा। हिन्दुस्तान को भी यह मानकर चलना चाहिए कि अक्षर उसने समय रहते सीख नहीं लिया तो सारा देश धीरे-धीरे व्यापारिक गुलामी के शिकंजे में आ जाएगा। यह सरकार तो खैर हमें व्यापारिक गुलामी के सिवा कुछ दे ही नहीं सकती।

लोहिया जी को लोकतंत्र के भावी स्वरूप के साथ-साथ यह भी पूर्वानुभास था कि बुनियादी सरकारों वाली दक्षिणपंथी या वामपंथी दलों की कोई मिलीजुली सरकार बनी भी तो वह अधिक दिनों नहीं चलेगी जिसके लिए एक राष्ट्रीय सरकार ही कुछ टिकाऊ और स्थायी विकल्प हो सकता है। विपक्ष ऐसी सरकार के गठन में वे तीन पार्टियों की की भुमिका साफ-साफ देख रहे थे – संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा समाजवादी पार्टी और जनसंघ। इस संबंध में वे जनसंघ के प्रवक्ता अटलबिहारी वाजपेयी के ठोस सुझावों का खुल कर समर्थन करने लगे थे। यह उनकी सोच में एक क्रांतिकारी अंदरूनी परिवर्तन था। भाषा नीति में वे पहले से ही अटल जी का समर्थन करते थे।

डॉ. लोहिया कांग्रेस के यथास्थितवाद और अंधे नियंत्रण से देश को मुक्त करना चाहते थे। उन्होंने एक साक्षात्कार में स्थिरता को पहाड़ों और जंगलों की विशेषता माना था और परिवर्तन को मानव समाज की अनिवार्यता। स्थिरता का ढिंढोरा पीटने वाली कांग्रेस का इसीलिए उन्होंने विरोध करना अपना मिशन बनाया था और उसके एकाधिकार को वे जीवनपर्यंत चुनौती देते रहे थे। जब दूसरे दल निर्णय और अनिर्णय की स्थिति के बीच झूल रहे थे उन्होंने खुलकर निर्विवाद रूप से अपनी राह चुन ली थी।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

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