जयन्ती वा मरणोपरान्त जन्मोत्सव मनाने के औचित्य पर विचार

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मनमोहन कुमार आर्यanniversary

 

समाज में महापुरूषों की जयन्ती मनाये जाने का प्रचलन है। सामान्यजन भी अपने जीवन काल में स्वयं का व अपने परिवार-जनों के जन्म दिवस पर अपनी-अपनी मान्यता, पद्धति व भावना के अनुसार जन्म दिवस के दिन कुछ नया उत्सव कर जन्म दिवस मनाते हैं। जन्म दिवस मनाये जाने का कारण क्या है? इसका उत्तर यह है कि महापुरूषों ने ज्ञान के प्रचार प्रसार सहित परोपकार व सेवा आदि तथा देश भक्ति के कुछ ऐसे विशेष कार्य किये हुए होते हैं जिससे हम प्रेरणा लेकर अपने जीवन को कुछ अधिक सार्थक कर सकते हैं। दूसरा कारण यह भी होता है कि सारा समाज या देश उनके कार्यों व बलिदान आदि के लिए उनका ऋणी होता है। उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना भी उनके जन्म-दिवस को मनाने का एक कारण होता है। यदि हम महापुरूषों के जीवन चरितों को नहीं पढ़ेगें या जानेंगे तो हम उन महत्वपूर्ण घटनाओं से स्वयं को वंचित कर लेते हैं और उनसे जो लाभ हम अपने जीवन में उनसे उठा सकते हैं, वह हमसे दूर हो जाता है। उदाहरण के लिए हम महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन चरित का अध्ययन करते हैं। उन्हें शिव की मूर्ति वा शिवलिंग को देखकर ऐसे शिव की खोज की प्रेरणा मिली जो एक चेतन सत्ता है, जो बलवान है, दुष्टों का संहार कर सकता है, अपने भक्तों को सुख, समृद्धि के साथ सद्ज्ञान दे सकता है और वह सर्वसामथ्र्यवान होने से हमारी हर समस्या के निदान में सहायक हो सकता है। इसके समाधान के लिए उन्होंने अपने पिता से प्रश्न किये, परन्तु समाधान नहीं हुआ। घर का कोई सदस्य भी इस कार्य में उनका सहायक नहीं हुआ। उनके गुरूजन व मित्र मण्डली के लोग भी सहायक नहीं हुए तो उन्होंने गृह त्याग कर धार्मिक विद्वानों की शरण में जाने का निश्चय किया। अपने संकल्प को उन्होंने क्रियान्वित किया और घर से निकल पड़े। अनेक साधु-सन्यासियों-विद्वानों-योगियों-मत-प्रर्वतकों के अनुयायियों व मत-मठाधीशों की शरण में गये और अपनी शका का समाधान पूछते रहे। इसका कुछ समाधान धीरे-धीरे होना आरम्भ हो गया परन्तु एक शंका के साथ अन्य शंकायें भी होतीं रहीं। ईश्वर, जीवात्मा तथा संसार को सर्वांश में जानने की भी उनको उत्कट इच्छा हुई। देश भर में कोई विद्वान, धर्म-गुरू या योगी उनकी सभी शंकाओं का समाधान न कर सका। वह अपने सम्पर्क में आने वाले विद्वानों से विद्यावान् गुरूओं का परिचय पूछते रहे और अन्ततः उन्हें मथुरावासी दण्डी स्वामी प्रज्ञाचक्षु विरजानन्द सरस्वती का परिचय मिला। वह उनके पास पहुंचें और सन् 1860 से 1983 के मध्य ढाई से तीन वर्षों के लगभग उनसे अध्ययन किया और अपनी सभी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर उन्होंने गुरुजी से विदाई ली।

 

गुरू व शिष्य के परस्पर सम्बन्ध कुछ ऐसे थे कि विदाई वा गुरू दक्षिणा के अवसर पर स्वामी विरजानन्द ने समाज के उत्थान को दृष्टिगत कर अपनी विद्या से संसार को लाभान्वित करने का परामर्श दिया। उन्होंने संसार-देश-समाज में प्रचलित धार्मिक अन्धविश्वासों का खण्डन करने का भी संकेत उन्हें किया था। यह स्वाभाविक ही होता है कि यदि कोई ज्ञानी व्यक्ति कहीं होगा तो वह वहां प्रचलित असत्य, अज्ञान, अन्याय आदि का विरोध तो करेगा ही। यदि उसे किसी से प्राणदण्ड व अन्य कष्टों का भय न हो तो अवश्य ही असत्य व मिथ्या विश्वासों का खण्डन करेगा। वैदिक धर्म में सनातन काल से यह सुविधा है और असत्य का खण्डन करने में अधिक भय नहीं होता। स्वामी दयानन्द ने अपने गुरू स्वामी विरजानन्द के परामर्श को शिरोधार्य किया जिससे देश व विश्व की अकथनीय उन्नति हुई। अब यदि हम स्वामी दयानन्द व स्वामी विरजानन्द जी की जयन्ती मनायें तो इसका कारण होगा कि हमें उनके विचारों, प्रवृत्तियों व समाज की हितकार उनकी मान्यताओं पर विचार कर उन्हें अपने जीवन में स्थान देना है और जिसे हम अच्छा व ठीक समझते हैं, उनका अधिकाधिक प्रचार व प्रचार भी करना है। यही उद्देश्य महर्षि दयानन्द व अन्य महापुरूषों की जयन्तियां मनाने के पीछे हमें लगता है। जिन लोगों ने बुरे कार्य किये होते हैं उनकी जयन्तियां मनाने की तो बात ही नहीं है? एक सन्त करोड़ों लोगों द्वारा पूजे जाते थे। उनके चारित्रिक दुष्कर्म का भाण्डाफोड़ होने के बाद उनकी छवि ऐसी धूमिल हुई की उनके मानने वाले भक्त जो हमारे मित्र हैं, अब उनकी निन्दा करते हैं। उनका यह कार्य हमें विवके पूर्ण लगता है। यदि उनके इस दुष्कर्म का भाण्डाफोड़ न होता तो उनका महत्व व प्रभाव बरकरार रहता। अतः किसी भी महापुयष का अनुकरण करने से पहले उसकी गहरी छानबीन करनी चाहिये, यही इस घटना का सबक कह सकते हैं। इस प्रकार के बुरे कार्य करने वाले लोगों का नाम कोई याद नहीं करता और यदि कहीं उसका उल्लेख होता भी है तो विवकेशील लोगों में उनके बुरे कार्य ही मनुष्यों के मन व मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं।

 

ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य का स्वभाव उत्सव प्रेमी है। उसे उत्सव मनाने का अवसर मिले तो वह उसका अनुकरण करता है। इसी कारण संसार में नाना विषयों से जुड़े हुए उत्सव अस्तित्व में है। कहीं किसी व्यक्ति या महापुरूष से जुड़े उत्सव हैं तो कहीं किसी घटना विशेष से और कहीं किसी की मृत्यु से जुड़े हुए। इससे यह लाभ होता है कि उस महापुरूष या घटना को याद कर उससे जुड़ी पृष्ठभूमि या महत्ता को जाना जा सकता है और उससे लाभ लिया जा सकता है। वर्तमान में हर समाज और व्यक्ति अपने मत, धर्म व समाज से जुड़़ी घटनाओं को ही पर्व वा जयन्तियों के रूप में मनाता है। हमें इसका लाभ, मात्र यह लगता है कि उस घटना व उससे जृड़ी बातों को स्मरण कर उसकी प्रासंगिकता पर विचार करें। यदि वह व्यक्ति या घटनायें हमारे भावी जीवन के लिए मार्गदर्शक व लाभप्रद हैं तो फिर हमें कुछ क्षणों के लिए उससे स्वयं को एकाकार कर उससे कुछ सन्देश वा शिक्षा प्राप्त कर उसे अपने जीवन में यथोचित महत्व देना चाहिये और समय-समय पर उसकी समीक्षा करते रहना चाहिये। महर्षि दयानन्द प्रातः चार बजे से पूर्व निद्रात्याग करते थे। यह नियम वैज्ञानिक आधार पर भी उचित है। हमें भी इसका अनुकरण करना है। चार बजे से कुछ पूर्व या कुछ पश्चात उठ जाना चाहिये। प्रातः मल त्याग व मुख-प्रक्षालन व दन्तधावन आदि क्रियायें कर वायुसेवन के लिए जाना व उसके पश्चात व्यायाम करना चाहिये। स्नान आदि से निवृत होकर ईश्वर के गुणों व उपकारों का ध्यान करना अर्थात् सन्ध्या करना तथा इसके पश्चात दैनिक यज्ञ करना चाहिये जिससे हमारे घर व निवास का वातावरण शुद्ध व पवित्र होने के साथ हमारी आत्मा भी यज्ञ में उच्चारित वेदमन्त्रों की भावना के अनुसार शुद्ध, पवित्र वा निर्मल बने। माता-पिता व वृद्ध पारिवारिक जनों की नियमित संगति कर उनको अपने व्यवहार व उनके लिए आवश्यकता की वस्तुएं प्रदान कर उन्हें सन्तुष्ट करना चाहिये। दिन में अपना व्यवसाय सच्चाई व पुरूषार्थ पूर्वक करना चाहिये। निर्धनों, अज्ञानियों व पीडि़तों आदि का मार्गदर्शन व उनकी उचित सहायता करनी चाहिये। सायंकाल भी दैनिक अग्निहोत्र, सन्ध्या, स्वाध्याय, शुद्ध व पवित्र शाकाहारी भोजन कर व अन्य आवश्यक कार्य करने की अपनी दिन चर्चा बनानी चाहिये। हमारा अनुमान है कि महर्षि दयानन्द एवं संसार के अन्य मनुष्यों पर इस पर किसी भी मतानुयायी व सामान्य लोगों को आपत्ति नहीं हो सकती। हां, संसार में दैनिक अग्निहोत्र के बारे में यथोचित ज्ञान व उससे होने वाले लाभों के प्रति अज्ञता होने के कारण वह इसे जानना व समझना नहीं चाहते। बहुत से वेदेतर मतानुयायी इस यज्ञ के विषय में विपरीत व अल्प ज्ञान रखते हैं। ऐसे मनुष्यों को यह अपने मत-सम्प्रदाय-धर्म के विपरीत लगता है, इससे वह यज्ञ के लाभों से वंचित रहते हैं। यज्ञ के प्रति यह गम्भीर मिथ्या विश्वास है कि यज्ञ न करने वाले को यज्ञ से होने वाले लाभ अन्य किन्हीं क्रियाओं के द्वारा मिल सकते हैं या यज्ञ न करने से मनुष्य को कोई हानि नहीं होती। यज्ञ सम्बन्धी अविद्या व मिथ्या ज्ञान के कारण सभी मतों यहां तक की वैदिक धर्मी और आजकल के अधिकांश आर्यसमाजी भी किसी बहुत बड़े लाभ से वचित रह जाते हैं। ईश्वर के द्वारा सृष्टि की आदि में प्रदत्त ज्ञान वेद तो यज्ञ करने की आज्ञा देते ही हैं, आधुनिक काल में वैदिक सत्य ज्ञान व विज्ञान से अंलकृत महर्षि दयानन्द तथा पूर्व सभी ऋषियों ने भी यज्ञ के महत्व का गुणगान कर यज्ञ को श्रेष्ठतमं कर्म की संज्ञा दी है जो कि वस्तुतः सत्य है। ईश्वर कर्मों के फलों का देने वाला है जो मनुष्यों को जैसे वह कर्म करता है उन्हें वैसा ही फल देता है। यज्ञ करने से स्वयं या अन्य किसी को कोई हानि नहीं होती अपितु वायुमण्डल की शुद्धि से जल, अन्न, बुद्धि, आत्मा व पर्यावरण की शुद्धि के तात्कालिक लाभ सहित हमारे प्रारब्ध में भी इससे अनथक लाभ होता है जो हमारे भावी जन्म में उपयोगी व अतीव लाभकारी सिद्ध होता है। अतः सभी मतावलम्बियों को यज्ञ अवश्य करना चाहिये जिससे वह यज्ञ के दृष्ट व अदृष्ट लाभ से वंचित न हों। यह सब ज्ञान व लाभ महापुरुषों की जयन्तियां मना कर व वेद़, सत्यर्थ प्रकाश, दर्शन, उपनिषद आदि उपयोगी ग्रन्थों का स्वाध्याय कर मनुष्य को प्राप्त होता है। हां, कुछ ऐसे राजनैतिक व सामाजिक लोगों के जन्म दिवस मनाने की परम्परा चल पड़ी है जिनका अन्य महापुरूषों की तुलना में कोई बहुत अधिक योगदान नहीं है, अपितु जिनके कार्यों से छद्म रूप से हानि हुई है। उस पर गहन पुनर्विचार कर उसमें समय नहीं देना चाहिये।

 

अतः हमें लगता है कि किसी जीवित या मृतक सज्जन व देशभक्त मनुष्य के जीवन को उनकी जयन्ती के अवसर पर स्मरण करना व उसे उत्साह पूर्वक मनाने में कोई हानि नहीं है। उसके सद्गुणों से जितनी प्रेरणा ली जा सके, वह प्राप्त करनी चाहिये और उनकी सद्शिक्षाओं, कार्यों का अनुकरण करते हुए वेद व सद्ज्ञान के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करना चाहिये। किसी महापुरूष की जयन्ती मनाते समय किसी प्रकार का पक्षपात किसी समुदाय को नहीं करना चाहिये अन्यथा उसके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास व उन्नति नहीं होगी। निष्पक्ष होकर व्यक्ति या महापुरूषों के सद्गुणों का ग्रहण व बुरी बातों का त्याग करना चाहिये। हमें महापुरूषों की बुरी शिक्षाओं यथा मांस खाना, मदिरापान व दुश्चिरित्रता का त्याग करना चाहिये। किन्हीं महापुरुषों द्वारा केवल अपने ही समुदाय के व्यक्ति का हित करना, अन्यों से दूरी बनाना या घृणा करना, पक्षपात व अन्याय करना आदि से सभी मनुष्यों को ऊपर उठकर जीवन व्यतीत करना या पर्वों को मनाना चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

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