क्या प्रधानमंत्री का पद संविधान से बड़ा होता है?

सिद्घार्थ  मिश्र

अपने दूसरे कार्यकाल के आने तक केन्द्र के प्राय: सभी मंत्री अपनी विष्वसनीयता खो चुके हैं । आमजन की रही सही आशा प्रधानमंत्री के कैग रिपोर्ट की लपेट में आने से खो चुकी है । इसमें दो राय नहीं भ्रष्टाचार का दलदल बन चुके संप्रग गठबंधन की आखिरी उम्मीदें साफ सुथरी छवि वाले मनमोहन सिंह से जुड़ी हैं । ऐसे में कोयला ब्लाक आवंटन में अनियमितता प्रकरण में प्रधानमंत्री की संलिप्तता सिद्ध होने के बाद कांग्रेस की मुश्किलें और बढ़ गर्इ हैं । बीते दिनों सामने आर्इ कैग रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न परियोजनाओं और विकास के नाम पर देश के लगभग तीन लाख बयासी हजार करोड़ रूपये भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके हैं । इस तरह की रिपोर्ट के चुनाव पूर्व आने का सीधा असर कहीं न कहीं सरकार के मनोबल पर भी पड़ता दिख रहा है । शायद इसी तरह की रिपोर्ट और आर्थिक अनियमितताओं का पूर्वानुमान करके कर्इ विपक्षी दलों ने कार्यकर्ताओं को समय पूर्व चुनावों के लिए कमर कसने की हिदायतें भी देनी शुरु कर दी हैं ।

खैर चुनावों और अन्य राजनीतिक समीकरणों पर बात करने से पूर्व कोल आवंटन की अनियमितताओं पर चर्चा करना अधिक समीचीन होगा । अगर स्थितियों को सूक्ष्म निरीक्षण करें तो पाएंगे तो देश में बड़े घोटालों की ये परिपाटी 1997 के बाद शुरू हुर्इ जब आर्थिक उदारीकरण की नीति ने हमारे देश में दस्तक दी । इसमें ज्यादा लूट हुर्इ प्राकृतिक संसाधनों की, जिनमें खदान,खनिज,प्राकृतिक संसाधन एवं जमीन एवं स्पेक्टम प्रमुख हैं । अगर गौर करें तो ये स्पश्ट हो जाएगा कि ये समस्त प्राकृतिक संसाधन देश के विकास की बुनियादी आवष्यकता हैं। फिर चाहे सुकना सैन्य जमीन घोटाला,आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला हो या हाल ही में प्रकाष में आया जीएमआर डायल को दिल्ली एयर पोर्ट के विकास के नाम पर लूटने की खुली छूट देने का मामला हो । ठीक इसी तरह से टू जी स्पेक्टम और कोयले जैसे प्राकृतिक संसाधनों के मामले में केंद्र सरकार की खुली बंदरबांट का नजारा देखने को मिला । इन मामलों ने निषिचत तौर पर विकास की गति को अवरुद्ध किया है । इन्हीं आर्थिक मामलों के कारण ही देश का आर्थिक संतुलन बिल्कुल बिगड़ता जा रहा है । वास्तव में ये सोच कर हैरानी होती है कितनी बेषर्मी से अंजाम दिये जाते हैं ऐसे घोटाले । अभी ताजा कोल ब्लाक आवंटन के मामले को देखें तो पाएंगे आवंटित की गर्इ सभी 57 खदानें ज्यादातर ऐसे समूहों को सौंपी गर्इ हैं,जिनका नाम भी हमने नहीं सुना है । इन खदानों से 51 हजार करोड़ रुपयों का लगभग 17 अरब टन कोयला 141 निजी कंपनियों को मनमाने ढ़ंग से सौंपा गया है ।

जैसा कि निषिचत था इस मामले के प्रकाष में आने पर सरकार को जबरदस्त थुक्का फजीहत का सामना करना पड़ा है । विपक्ष द्वारा प्रधानमंत्री के इसितफे की मांग पर अड़ना अगर न्यायसंगत नहीं है,तो प्रधानमंत्री समेत सभी वरिश्ठ कांग्रेसी नेताओं द्वारा दिये गये बयान भी वस्तुत: स्वार्थ लोलुप ही प्रतीत होते हैं । जरा गौर करें प्रधानमंत्री के बयान पर ये आवंटन तात्कालिन राजस्थान,छतितसगढ़ समेत विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों की सहमति से किये गये थे । मगर सवाल ये उठता र्है कि तात्कालीन कोयला मंत्री और माननीय प्रधानमंत्री क्या वास्तव में विपक्ष के मुख्य मंत्रियोंका इतना सम्मान करते हैं ? क्या कोल ब्लाक आवंटन मुख्यमंत्रीयों की सहमति से होता है? केंद्रीय स्तर के फैसलों को विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री और विपक्ष कहां तक प्रभावित करते हैं? क्या प्रधानमंत्री का पद संविधान से बड़ा होता है? कैग की रिपोर्ट के बाद यदि ए राजा को सजा दी सकती है तो मनमोहन जी को क्यों नहीं?

इन सारे सवालों का सीधा जवाब है नहीं । इन सारी धांधली के अंजाम तक आने की मुख्य वजह है देश में इन प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में पारदर्षी आवंटन नीति का न होना । सोचने वाली बात है कि जो प्रधानमंत्री सर्वोच्च न्यायालय का भी मुखर विरोध करने की हिम्मत रखते हैं वो विपक्ष के आगे घुटने क्यों टेकेंगे? ध्यातव्य हो देश में अनाज भंडारण की अक्षमता के कारण प्रतिवर्श हो रही अनाज की बर्बादी को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ये अनाज गरीबों में नि:शुल्क बांटने के निर्देष दिये । इस पर तत्काल प्रतिकि्रया व्यक्त करते हुए हमारे इन्ही र्इमानदार प्रधानमंत्री ने हलफनामा दाखिल कर ये कहा था कि, कार्यपालिका के कार्य में हस्तक्षेप न करे न्यायपालिका । विचारणीय प्रश्न है जो प्रधानमंत्री सर्वोच्च न्यायालय को हदें बता सकते हैं वो अचानक विपक्ष के परामर्षों को इतनी तवज्जो कैसें देने लगे? विपक्ष की एल आर्इ सी विघटन,एफडीआर्इ पर रोक,आतंकियों की फांसी,महाराश्ट की तर्ज पर गुजरात में मकोका कानून लागू करने जैसे गंभीर मुददों पर तो सरकार ने विपक्ष की कभी नहीं सुनी । आज इस मामले पर विपक्ष को घसीटने से सरकार की जवाबदेही किसी भी तरीके से कम नहीं हो जाती । पूरा देश जानता है कि गोधरा मामले पर कोर्ट से क्लीनचिट मिलने के बावजूद भी सरकार आज सीबीआर्इ से मामले की जांच करा रही है । उपरोक्त सारे उदाहरणों से एक बात तो साफ हो जाती है कि सरकार वास्तव में विपक्ष या आम जनता किसी की भी नहीं सुनती । ऐसे में झूठे बहाने बनाने के बजाय सरकार को जिम्मेदार लोगों पर तत्काल प्रभाव से कार्रवार्इ करनी होगी । खैर मामला यहीं तक सिमट जाता तो भी ठीक था लेकिन सरकार इस मुददे पर सदन में बहस की भी इच्छुक नहीं दिखती । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण तब सामने आया जब वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और राज्यसभा सांसद राजीव शुक्ला ने प्रश्नकाल के दौरान उपसभापति के आसन के पास जाकर उनसे कहा सदन की कार्यवाही दिन भर के लिए स्थगित कर दें । हुआ भी ठीक यही तो इन परिस्थितियों में विपक्ष कहां तक दोशी है? अब तक बेर्इमान सरकार के र्इमानदार प्रधानमंत्री के तौर पर पहचाने जाने वाले मनमोहन जी के लिए मुझे गालिब की ये पंकितयां सर्वाधिक मुफिद लग रही हैं:

निकलना खुंद से आदम का सुनते आए है लेकिन

बहोत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

देखा जाए तो ये सही भी है आने वाले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस में राहुल बतौर प्रधानमंत्री के उम्मीदवार शामिल होंगे । इन परिस्थितियों में मनमोहन जी की विदार्इ तो तय ही है लेकिन इतनी दुखांत विदार्इ कि कल्पना शायद मनमोहन जी ने भी नहीं की होगी ।

 

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