विकास का संदर्भ और स्वरूप

के एन गोविंदाचार्य 

भारतीय संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्त जुड़ी हैं। यहां वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। जबकि आज हो रहा है इसके ठीक उलटा। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हित का ध्यान रखा जाता है। जब हम विकास की बातें करते हैं तो प्रायः हम विकास की अमेरिकी अवधारणा को ही दोहराने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि विकास के संदर्भ में भारत की भी एक सोच रही है। भारत ही क्या, दुनिया के प्रत्येक कोने में विकास की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की गई है। हमें यह याद रखना चाहिए कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बसने वाले समाजों के रहन-सहन, खान-पान, उनकी राजनीति, संस्कृति, उनके सोचने और काम करने के तौर-तरीके, सब जिस मूल तत्व से प्रभावित होते हैं, वह है वहां की भौगोलिक परिस्थिति। उसी के आलोक में वहां जीवन दृष्टि, जीवनलक्ष्य, जीवनादर्श, जीवन मूल्य, जीवन शैली विकसित होती है।

उसी के प्रभाव में वहां के लोगों की समझ बनती है और साथ ही दुनिया में उनकी भूमिका भी तय होती जाती है। भारत भी ऐसा एक देश है जहां भूगोल का असर पड़ा। उसके कारण यहां विकेन्द्राrकरण, विविधता, अभौतिक सुख का महत्व, मनुष्य प्रकृति का पारस्परिक संबंध जैसी बातों को विशेष महत्व दिया गया। उसी आधार पर यहां सुख की समझ बनी। विश्व दृष्टि, जीवन दृष्टि बनी। दुनिया को बेहतर बनाने में योगदान करने की इच्छा और सामरथ्य विकसित हुई। यहां समृद्धि और संस्कृति के संतुलन का ध्यान रखना आवश्यक माना गया। सुख के भौतिक-अभौतिक पहलुओं की समझ बनी। तदनुसार समाज संचालन की विधाएं विकसित हुई। धर्मसत्ता, समाजसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता की संरचनाएं एवं उनके पारस्परिक संबंध, स्वायत्तता आदि की व्यवस्था बनी। समय-समय पर परिमार्जन की व्यवस्था भी बनती गई। देसी समझ के साथ समस्याओं के समाधान और हर प्रकार की सत्ता के विकेन्द्राrकरण को पर्याप्त महत्व दिया गया।

विकेन्द्राrकरण, विविधीकरण, स्थानिकीकरण की अवधारणा को समाज व्यवस्था की निरंतरता एवं गतिशीलता के लिए आवश्यक समझा गया। इन सब बातों को भारत की तासीर कहा जा सकता है। विगत 200 वर्षों में इस तासीर को समय-समय पर मिटाने और बदलने की कोशिश होती रही। अभी यह कोशिश अंधाधुंध वैश्वीकरण एवं बाजारवाद के हमले के रूप में हमारे सामने है।

विचार, व्यवस्था, व्यवहार तीनों स्तरों पर इसका प्रभाव है। यह चुनौती एक दानवी चुनौती है क्योंकि इसमें न तो मनुष्य की, न तो उसके सुख की और न ही समाज और प्रकृति की कोई परवाह है। इसकी सोच आाढामक, पाशविक, प्रकृति विरोधी एवं मानव विरोधी है। इसके लक्षण हैं केन्द्राrकरण, वैश्वीकरण, एकरूपीकरण एवं बाजारीकरण। यह अर्थसत्ता को सर्वोपरि बनाकर राजसत्ता का उपयोग करती है और इस प्रकार समाजसत्ता तथा धर्मसत्ता को नष्ट करके आसुरी संपदा, आसुरी साम्राज्य बनाने के लिए प्रयासरत है। हमारे ऊपर जो आसुरी हमला हो रहा है, उसमें मनुष्य की भौतिक इच्छाओं को हवा देकर उसके जीवन के शेष अभौतिक पहलुओं को नकारने की प्रवृत्ति अंतर्निहित है। इसी के अनुसार सुख एवं विकास आदि को परिभाषित किया जाता है और सभी माध्यमों का उपयोग करते हुए इसे जन-जन के मन में बिठाने की कोशिश की जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि विकास की यह भ्रामक, एकांगी एवं प्रदूशित संकल्पना है। भारत में विकास का मतलब है शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का संतुलित सुख। आंतरिक एवं बाहरी अमीरी का संतुलन रहे। तदानुसार सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व्यवस्था हो। तदानुसार शिक्षा संस्कार भी हो।

समाज में समृद्धि और संस्कृति का संतुलन बना रहे, वही सही विकास होगा। विकास की अवधारणा समाज से जुड़ी हुई है। हम कैसा समाज चाहते हैं? इसी से तय होगा कि विकास हुआ या नहीं। वास्तविक विकास मानवकेन्द्रित न होकर पारिस्थितिकी केन्द्रित होता है, एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन का परस्पर पोषण होता रहे। व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, समाज, दुनिया, प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे। वही तकनीक सही मानी जाएगी जो आर्थिक पक्ष के साथ पारिस्थितिकी एवं नैतिक पक्ष का भी ध्यान रख सके। मौजूदा दौर में लंबी-चौड़ी सड़कों के निर्माण और जीडीपी के बढ़ने को ही विकास बताया जा रहा है। इससे भी बुरी बात यह है कि सत्ता में बैठे लोग दूसरों को भी इसी अवधारणा को सच मानने के लिए बाध्य कर रहे हैं। मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग उनके साथ है।

इसका असर यह हुआ कि बहुत सारे लोग शेयर बाजार की उछाल और विदेशी मुद्रा भंडार के साथ-साथ शॉपिंग माल्स की बढ़ती संख्या को ही विकास मान बैठे हैं। परन्तु हकीकत यह नहीं है। जिसे विकास बताया जा रहा है वह वस्तुतः विकास नहीं है। अगर सही मायने में विकास हुआ होता तो क्या देश में चारों ओर खुशहाली नहीं आई होती? क्या यहां के किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते ?

एक बात तो साफ है कि विकास को लेकर समाज में भयानक भ्रम फैलाया गया है और अभी भी यह प्रवृत्ति थमी नहीं है। भारतीय संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्त जुड़ी हैं। यहां वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। जबकि आज हो रहा है इसके ठीक उलटा। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हित का ध्यान रखा जाता है। वर्तमान संप्रग सरकार की मानें तो आज भी देश के 84 करोड़ लोग बीस रुपए रोजाना पर जीवन बसर करने को मजबूर हैं। आज जहां एक ओर विकास के बढ़-चढ़ कर दावे किए जा रहे हैं वहां इन लोगों की बात करने वाला कोई नहीं है।

यह कैसा विकास है जिसमें अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढ़ती ही जा रही है। गैरबराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। एक खास तरह की सामाजिक और आर्थिक असमानता समाज में बढ़ती हुई देखी जा सकती है। भारत में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा जब तक यहां के किसान सुखी और समृद्ध नहीं हैं। आजादी के बाद के शुरूआती दिनों में देश की किसानी को पटरी पर लाने के लिए सरकारी तौर पर कई तरह के प्रयास हुए। लेकिन यहां भी किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके थोप दिए गए। परिणाम यह हुआ कि एक बार अनाज का उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन उससे जुड़ी कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गर्इं। जब से देश में तथाकथित आर्थिक उदारवाद की बयार बहनी शुरू हुई है तब से किसानों का जीवन और मुश्किल हो गया है। अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का ही है। हम अगर गौर करें तो हमारे ध्यान में आएगा कि 1991 के बाद किसानों की आत्महत्या काफी तेजी से बढ़ी है।

अगर हम सरकार के बजट पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि इस दौरान कृषि को मिलने वाले बजट में भी कमी होती गई। अब सीधा सा हिसाब है कि अगर निवेश घटेगा तो स्वाभाविक तौर पर उस क्षेत्र का विकास बाधित हो जाएगा।

अभी देश के किसानों और किसानी की जो दुर्दशा है, वह इन्हीं अदूरदर्शी नीतियों की वजह से है। इस बदहाली के लिए देश का अदूरदर्शी नेतृत्व भी कम जिम्मेदार नहीं है। बीते सालों के अनुभव से साफ है कि किसानों की हालत को सुधारे बगैर हम भारत का विकास नहीं कर सकते। लेखक वरिष्ठ समाजसेवी तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के संरक्षक हैं। (हिस)

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