जारी है हिन्दी की सहजता को नष्ट करने की साजिश – चिन्मय मिश्र

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hindi_divasनई दिल्ली, 13 सितम्बर (आईएएनएस)। मुक्तिबोध के एक लेख का शीर्षक है अंग्रेजी जूते में हिंदी को फिट करने वाले ये भाषाई रहनुमा।यह लेख उस प्रवृत्ति पर चोट है जो कि हिंदी को एक दोयम दर्जे की नई भाषा मानती है और हिंदी की शब्दावली विकसित करने के लिए अंग्रेजी को आधार बनाना चाहती है।


भाषा विज्ञानियों का एक बड़ा वैश्विक वर्ग जिसमें नोम चॉमस्की भी शामिल हैं हिंदी की प्रशंसा में कहते हैं कि यह इस भाषा का कमाल है कि इसमें उद्गम के मात्र एक सौ वर्ष के भीतर कविता रची जाने लगी, परंतु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि पिछले एक हजार वर्षो से अधिक से भारत में हिंदी का व्यापक उपयोग होता रहा है। अपभ्रंश से प्रारंभ हुआ यह रचना संसार आज परिपक्वता के चरम पर है।अंग्रेजों के भारत आगमन के पूर्व ही हिंदी की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी थी। तत्कालीन भारत विश्व व्यापार का सबसे महत्वपूर्ण भागीदार था अतएव यह आवश्यक था कि इस देश के साथ व्यवहार करने के लिए यहां की भाषा का ज्ञान हो। गौरतलब है कि अंग्रेजी को विश्वभाषा के रूप में मान्यता भारत पर इंग्लैंड द्वारा कब्जे के बाद ही मिल पाई थी।दिनेशचंद्र सेन ने हिस्ट्री ऑफ बेंगाली लेंगवेज एंड लिटरेचर (बंगाली भाषा और साहित्य का इतिहास)नामक पुस्तक में लिखा है अंग्रेजी राज के पहले बांग्ला के कवि हिंदुस्तानी सीखते थे।इसी क्रम में वे आगे लिखते हैं दिल्ली के मुसलमान शहंशाह के एकछत्र शासन के नीचे हिंदी सारे भारत की सामान्य भाषा (लिंगुआ फ्रांका) हो गई थी।हिंदी की व्यापकता के लिए एक और उदाहरण का सहारा लेते हैं। इलाहाबाद स्थित संत पौलुस प्रकाशन ने 1976 मेंहिंदी के तीन आरम्भिक व्याकरणनामक ग्रंथ का प्रकाशन किया। ये तीनों व्याकरण हिंदी भाषा के हैं और सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में विदेशियों द्वारा लिखे गए थे। इन व्याकरणों से खड़ी बोली हिंदी के प्रसार और उसके रूपों के बारे में बहुत दिलचस्प तथ्य हमारे सामने आते हैं। इनमें पहला व्याकरण जौन जोशुआ केटलर ने डच में 17वीं के उत्तरार्ध का है।केटलर पादरी थे और उनका संबंध डच (हालैंड) ईस्ट इंडिया कंपनी से था। इसमें भाषा की जिस अवस्था का वर्णन है वह16 वीं सदी के उत्तरार्ध की है। दूसरा व्याकरण बेंजामिन शुल्ज का है जो 1745 ई. में प्रकाशित हुआ था। इसका विशेष संबंध हैदराबाद से था, इसलिए उनकी पुस्तक को दक्खिनी हिंदी का व्याकरण भी कह सकते हैं। तीसरा व्याकरण कासियानो बेलागात्ती का है और इसका संबंध बिहार से विशेष था।यहां पर एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य पर गौर करना आवश्यक है कि तीनों व्यक्ति पादरी थे। वे यूरोप के विभिन्न देशों से यहां आए थे और ईसाई धर्म का प्रचार ही उनका मुख्य उद्देश्य भी था। इसमें से दो व्याकरण लेटिन में लिखे गए और तीसरे का लेटिन में अनुवाद हुआ। तब तक अंग्रेजी धर्मप्रचार की भाषा नहीं थी न ही वह अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त कर पाई थी।ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये तीनों पादरी नागरी लिपि का भी परिचय देते हैं और बेलागात्ती ने अपनी पुस्तक केवल इस लिपि का परिचय देने को ही लिखी है। अपनी बात को और विस्तार देते हुए डा. रामविलास शर्मा लिखते है पादरी चाहे हैदराबाद में काम करे, चाहे पटना में और चाहे आगरा में, उसे नागरी लिपि का ज्ञान अवश्य होना चाहिए।यह बात 17 वीं व 18 वीं शताब्दी की है।बेलागात्ती हिंदुस्तानी भाषा और नागरी लिपि के व्यवहार क्षेत्र के बारे में लिखते है, ‘हिंदुस्तानी भाषा जो नागरी लिपियों में लिखी जाती है पटना के आस-पास ही नहीं बोली जाती है अपितु विदेशी यात्रियों द्वारा भी जो या तो व्यापार या तीर्थाटन के लिए भारत आते हैं प्रयुक्त होती है।‘ 1745 ई.में हिंदी का दूसरा व्याकरण रचने वाले शुल्ज ने लिखा है ’18 वीं सदी में फारसी भाषा और फारसी लिपि का प्रचार पहले की अपेक्षा बढ़ गया था।पर इससे पहले क्या स्थिति थी? इस पर शुल्ज का मत है समय की प्रगति से यह प्रथा इतनी प्रबल हो गई कि पुरानी देवनागरी लिपि को यहां के मुसलमान भूल गए।इसका अर्थ यह हुआ कि इससे पहले हिंदी प्रदेश के मुसलमान नागरी लिपि का व्यवहार करते थे। जायसी ने अखरावट में जो वर्ण क्रम दिया है, उससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। मुगल साम्राज्य के विघटन काल में यह स्थिति बदल गई। हम सभी इस बात को समझें कि हिंदी एक समय विश्व की सबसे लोकप्रिय भाषाओं में रही है और उसका प्रमाण है भारत का विशाल व्यापारिक कारोबार। जैसे-जैसे मुगल शासन शक्ति संपन्न होते गए वैसे-वैसे भारत का व्यापार भी बढ़ा और हिंदी की व्यापकता में भी वृद्धि हुई थी।क्या इसका यह अर्थ निकाला जाए कि किसी देश की समृद्धि ही उसकी भाषा को सर्वज्ञता प्रदान करती है। भारत व इंग्लैंड के संदर्भ में तो यह बात कुछ हद तक ठीक उतरती है। हिंदी जहां व्यापार की भाषा रही, वहीं उसका दूसरा स्वरूप आजादी के संघर्ष में भी हमारे सामने आता है। महात्मा गांधी ने जिस तरह हिंदी को देश की भाषा बनाने का उपक्रम किया उसने एक बार पुन: हिंदी को वैश्विक परिदृश्य पर ला दिया था । गांधी की भारत वापसी के पश्चात का काल हिंदी की पुनर्स्थापना का काल भी रहा है। वैसे इसका श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने लिखा था –निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल।बिनु निजभाषा ज्ञान के, मिटै न हिय कौ शूल।इस पर पं.हजारी प्रसाद द्विवेदी की बहुत ही सागरर्भित टिप्पणी है। वे लिखते हैं, ‘उन्होंने निज भाषा शब्द का व्यवहार किया है, ‘मिली-जुली‘, ‘आम फहम‘, ‘राष्ट्रभाषाआदि शब्दों को नहीं। प्रत्येक जाति की अपनी भाषा है और वह निज भाषा की उन्नति के साथ उन्नत होती है।इसी परम्परा के विस्तार को वे हिंदी का जन आंदोलन की संज्ञा भी देते हैं।आजादी के संघर्ष के दौरान ही पढ़े-खिले समुदाय का एक वर्ग अंग्रेजी कोआभिजात्यभाषा के रूप में स्वीकार कर चुका था। भारत की आजादी के पश्चात यह आभिजात्य वर्ग एक तरह के पारम्परिक कुलीन वर्गमें परिवर्तित हो गया और उसने अपनी कुलीनता को ही इस देश की नियति निर्धारण का पैमाना बना दिया। इस दौरान षड़यंत्र के तहत हिंदी-उर्दू और हिंदी बनाम भारत की अन्य भाषाओं का मुद्दा अनावश्यक रूप से उछाला गया। ध्यान देने योग्य है कि मुगलकाल तक, जब हिंदी पूरे देश में व्यवहार में आ रही थी तब भी बंगला, तमिल, उड़िया तेलुगु जैसी भाषाएं अपने अंचलों में पूरे परिष्कार से न केवल स्वयं को संवार रही थीं बल्कि अपनी संस्कृति का निर्माण भी कर रही थीं।इस संदर्भ में हिंदी पर यह आरोप भी लगता है कि हिंदी की सबसे बड़ी विफलता यह है कि वह अपनी संस्कृति विकसित नहीं कर पाई, परंतु ध्यानपूर्वक अध्ययन से ऐसा भी भान होता है कि संभवत: हिंदी को कभी भी अपनी पृथक संस्कृति निर्मित करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई होगी। अवधी, भोजपुरी, ब्रज जैसी संस्कृतियों ने सम्मिलित रूप से व्यापक स्तर पर हिंदी संस्कृति के निर्माण में कहीं न कहीं योगदान दिया है।कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी अगर अपनी पृथक संस्कृति के निर्माण के प्रति सचेत होती तो संभवत: भारत में इतनी विविधता भी नहीं होती और वह भी एकरसता वाला देश बन कर रह जाता। भारत के पूरे व्यापार का माध्यम होने के बावजूद एकाधिकारी प्रवृत्ति से बचे रहने से बढ़ा कार्य कोई समाज नहीं कर सकता था। हिंदी समाज ने इस असंभव को संभव कर दिखाया है।आज जब हिंदी पुन: बाजार की भाषा बन गई है तब विदेशी व्यापारिक हथकंडों से लैस एक वर्ग इसमें अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप कर इसकी सहजता को नष्ट कर देना चाहता है। दु:ख इस बात का है कि हिंदी को समझने व व्यवहार में लाने वाला प्रबुद्धतम वर्ग भी इसमें षड़यंत्रपूर्वक सम्मिलित हो गया है। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि इसके लोकव्यापी स्वरूप को बचाए रखा जाए। पिछले एक हजार साल हिंदी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद स्वयं को भारतीय संस्कृति का पर्याय बनाए हुए है और यहां पर निवास करने वाला समाज इसका यह स्वरूप हमेशा बनाए भी रखेगा।

3 COMMENTS

  1. Delhi High court allows RTI activist Mr. Rakesh Kumar Singh to file PIL against “Indian Rupee symbol selection process”.

    Mr. Rakesh Kumar Singh had submitted a LPA petition in the Delhi High Court challenging Delhi HC earlier judgment in which court had refused to entertain his petition challenging selection process of New Indian Rupee Symbol.

    After hearing the LPA, Hon’ble Chief Justice and Hon’ble Mr. Justice Sanjiv Khanna of Delhi High Court in their judgment said “We learned senior counsel appearing for the appellant submitted that he may be permitted to withdraw the appeal as he really does not have the grievance solely because the symbol has not been accepted but he intends to challenge the procedural aspects which are adopted by the Union of India at various levels relating to such kind of works which affect various provisions of the Official Languages Act and many other provisions of various statutes as well as Article 14 of the Constitution of India.

    If we understand the submission of Mr. Sawhney in a proper perspective, he wants to file a petition in the larger public interest.

    In view of the aforesaid, we are inclined to permit the withdrawal of the appeal with liberty to file a Public Interest Litigation with the appropriate pleadings and data which are necessary to sustain a Public Interest Litigation.” Order: LPA 310/2011

    https://www.saveindianrupeesymbol.org/

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