राष्ट्र निर्माण में महिलाओं का योगदान

-गुंजेश गौतम झा- lady

जब भारतीय ऋषियों ने अथर्ववेद में ‘माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः’ (अर्थात भूमि मेरी माता है और हम इस धरा के पुत्र हैं।) की प्रतिष्ठा की तभी सम्पूर्ण विश्व में नारी-महिमा का उद्घोष हो गया था। नेपोलियन बोनापार्ट ने नारी की महत्ता को बताते हुए कहा था कि -‘मुझे एक योग्य माता दे दो, मैं तुमको एक योग्य राष्ट्र दूंगा।’

भारतीय जन-जीवन की मूल धुरी नारी (माता) है। यदि यह कहा जाय कि संस्कृति, परम्परा या धरोहर नारी के कारण ही पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होती रही है, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। जब-जब समाज में जड़ता आयी है, नारी शक्ति ने ही उसे जगाने के लिए, उससे जूझने के लिए अपनी सन्तति को तैयार करके, आगे बढ़ने का संकल्प दिया है।

कौन भूल सकता है माता जीजाबाई को, जिसकी शिक्षा-दीक्षा ने शिवाजी को महान देशभक्त और कुशल योद्धा बनाया। कौन भूल सकता है पन्ना धाय के बलिदान को पन्नाधाय का उत्कृष्ट त्याग एवं आदर्श इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। वह उच्च कोटि की कर्तव्य परायणता थी। अपने बच्चे का बलिदान देकर राजकुमार का जीवन बचाना सामान्य कार्य नहीं। हाड़ी रानी के त्याग एवं बलिदान की कहानी तो भारत के घर-घर में गायी जाती है। रानी लक्ष्मीबाई, रजिया सुल्ताना, पद्मिनी और मीरा के शौर्य एवं जौहर एवं भक्ति ने मध्यकाल की विकट परिस्थितियों में भी अपनी सुकीर्ति का झण्डा फहराया। कैसे कोई स्मरण न करे उस विद्यावती का जिसका पुत्र फांसी के तख्ते पर खड़ा था और मां की आंखों में आंसू देखकर पत्रकारों ने पूछा कि एक शहीद की मां होकर आप रो रही हैं तो विद्यावती का उत्तर था कि ‘मैं अपने पुत्र की शहीदी पर नहीं रो रही, कदाचित् अपनी कोख पर रो रही हूं कि काश मेरी कोख ने एक और भगत सिंह पैदा किया होता, तो मैं उसे भी देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर देती।’ ऐसा था भारतीय माताओं का आदर्श। ऐसी थी उनकी राष्ट्र के प्रति निष्ठा।

परिवार के केन्द्र में नारी है। परिवार के सारे घटक उसी के चतुर्दिक घूमते हैं, वहीं पोषण पाते हैं और विश्राम। वही सबको एक माला में पिरोये रखने का प्रयास करती है। किसी भी समाज का स्वरूप वहां की नारी की स्थिति पर निर्भर करता है। यदि उसकी स्थिति सुदृढ़ एवं सम्मानजनक है तो समाज भी सुदृढ़ एवं मजबूत होगा। भारतीय महिला सृष्टि के आरंभ से अनन्त गुणों की आगार रही है। पृथ्वी की सी सहनशीलता, सूर्य जैसा तेज, समुद्र की गम्भीरता, पुष्पों जैसा मोहक सौन्दर्य, कोमलता और चन्द्रमा जैसी शीतलता महिला में विद्यमान है। वह दया, करूणा, ममता, सहिष्णुता और प्रेम की पवित्र मूर्ति है। नारी का त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है। बाल्यावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त वह हमारी संरक्षिका बनी रहती है । सीता, सावित्री, गार्गी, मैत्रेयी जैसी महान् नारियों ने इस देश को अलंकृत किया है। निश्चित ही महिला इस सृष्टि की सबसे सुन्दर कृति तो है ही, साथ ही एक समर्थ अस्तित्व भी है।

वह जननी है, अतः मातृत्व महिमा से मंडित है। वह सहचरी है, इसलिए अर्धांगिनी के सौभाग्य से श्रृंगारित है। वह गृहस्वामिनी है, इसलिए अन्नपूर्णा के ऐश्वर्य से अलंकृत है। वह शिशु की प्रथम शिक्षिका है, इसलिए गुरु की गरिमा से गौरवान्वित है। महिला घर, समाज और राष्ट्र का आदर्श है। कोई पुण्य कार्य, यज्ञ, अनुष्ठान, निर्माण आदि महिला के बिना पूर्ण नहीं होता है। सशक्त महिला सशक्त समाज की आधारशिला है। महिला सृष्टि का उत्सव, मानव की जननी, बालक की पहली गुरु तथा पुरूष की प्रेरणा है।

यदि महिला को श्रद्धा की भावना अर्पित की जाए तो वह विश्व के कण-कण को स्वर्गिक भावनाओं से ओतप्रोत कर सकती है। महिला एक सनातन शक्ति है। वह आदिकाल से उन सामाजिक दायित्वों को अपने कन्धों पर उठाए आ रही है, जिसे अगर पुरुषों के कन्धे पर डाल दिया गया होता, तो वह कब का लड़खड़ा गया होता। पुरातन कालीन भारत में महिलाओं को उच्च स्थान प्राप्त था। पुरूषों के समान ही उन्हें सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक कृत्यों में भाग लेने का अधिकार था। वे रणक्षेत्र में भी पति को सहयोग देती थी। देवासुर संग्राम में कैकेयी ने अपने अद्वितीय रणकौशल से महाराज दशरथ को चकित कर दिया था। याज्ञवल्क्य की सहधर्मिणी गार्गी ने आध्यात्मिक धन के समक्ष सांसारिक धन तुच्छ है, सिद्ध करके समाज में अपना आदरणीय स्थान प्राप्त किया था। विद्योत्तमा की भूमिका सराहनीय है, जिसने कालिदास को संस्कृत का प्रकाण्ड पंडित बनाने में सफलता प्राप्त की। तुलसीदास जी के जीवन को आध्यात्मिक चेतना देने में उनकी पत्नी का ही बुद्धि चातुर्य था। मिथिला के महापंडित मंडनमिश्र की धर्मपत्नी विदुषी भारती ने शंकराचार्य जैसे महाज्ञानी व्यक्तित्व को भी शास्त्रार्थ में पराजित किया था।

लेकिन चूंकि भारत के अस्सी प्रतिशत से अधिक तथाकथित विद्वान गौतम बुद्धोत्तरकालीन भारत को ही जानते पहचानते हैं और उनमें भी प्रतिष्ठा की धुरी पर बैठे लोग, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा अंग्रेजी में लिखे ग्रन्थों से ही, भारत का अनुभव एवं मूल्यांकन करते हैं, अतः नारी विषयक आर्ष-अवधारणा तक वे पहुंच ही नहीं पाते। उन्हें केवल वह नारी दिखाई पड़ती है जिसे देवदासी बनने को बाध्य किया जाता था, जो नगरवधू बनती थी अथवा विषकन्या के रूप में प्रयुक्त की जाती थी। महिमामयी नारी के इन संकीर्ण रूपों से इंकार तो नहीं किया जा सकता। परंतु हमें यह समझना चाहिए कि वे नारी के संकटकालीन रूप थे, शाश्वत नहीं। हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि रोमन साम्राज्य (इसाई जगत, इस्लाम जगत) तथा अन्यान्य प्राचीन संस्कृतियों में नारी की जो अवमानना, दुर्दशा एवं लांछना हुई है- जिसके प्रामाणिक दस्तावेज उपलब्ध हैं, वैसा भारतवर्ष में कम से कम, मालवेश्वर भोजदेव के शासन काल तक कभी नहीं हुआ।

इस्लामिक आक्रमणों के अनन्तर भारत का सारा परिदृश्य ही बदल गया। मलिक काफूर, अलाउद्दीन तथा औरंगजेब-सरीखे आततायियों ने तो मनुष्यता की परिभाषा को ही झूठला दिया। सल्तनत-काल के इसी नैतिकता-विहीन वातावरण में नारियों के साथ भी अपरिमित अत्याचार हुए। उसके पास विजेता की भोग्या बन जाने अथवा आत्मघात कर लेने के अतिरिक्त और उपाय ही क्या था? फलतः असहाय नारियाँ आक्रांताओं की भोग्या बनती रही। लेकिन यह ध्यान रहे कि यह भारत की पराधीनता के काल थे, स्वाधीनता के नहीं।

अब हम स्वतंत्रता आंदोलन के कालखंड को देखें तो हम देखते हैं कि भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में महिलाओं ने जितनी बड़ी संख्या में भाग लिया, उससे सिद्ध होता है कि समय आने पर महिलाएं प्रेम की पुकार को विद्रोह की हुंकार में तब्दील कर राष्ट्रीय अखण्डता को अक्षुण्ण बनाने में अपना सर्वस्व समर्पित कर सकती हैं। रानी लक्ष्मीबाई, सरोजनी नायडू, मादाम भिखाजी कामा, अरुणा आसफ अली, एनी-बेसेन्ट, भगिनी निवेदिता, सुचेता कृपलानी, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, दुर्गा भाभी एवं क्रांतिकारियों को सहयोग देने वाली अनेक महिलाएँ भारत में अवतरित हुईं, जिन्होंने राष्ट्र निर्माण के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। इतिहास साक्षी है जब-जब समाज या राष्ट्र ने नारी को अवसर तथा अधिकार दिया है, तब-तब नारी ने विश्व के समक्ष श्रेष्ठ उदाहरण ही प्रस्तुत किया है।

मैत्रेयी, गार्गी, विश्ववारा, घोषा, अपाला, विदुषी भारती आदि विदुषी स्त्रियाँ शिक्षा के क्षेत्र में अपने बहुमूल्य योगदान के लिए आज भी पूजनीय हैं। आधुनिक काल में महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चैहान, महाश्वेता देवी, अमृता प्रीतम आदि स्त्रियों ने साहित्य तथा राष्ट्र की प्रगति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। कला के क्षेत्र में लता मंगेश्कर, देविका रानी, वैजयन्ती माला, सोनाल मानसिंह आदि का योगदान वास्तव मे प्रशंसनीय है। वर्तमान में महिलाएँ समाज सेवा, राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र-उत्थान के अनेक कार्यों में लगी हैं। महिलाओं ने अपनी कर्तव्य परायणता से यह सिद्ध किया है कि वे किसी भी स्तर पर पुरूषों से कम नहीं हैं। बल्कि उन्होंने तो राष्ट्र निर्माण में अपनी श्रेष्ठता ही प्रदर्शित की है।

शारीरिक एवं मानसिक कोमलता के कारण महिलाओं को रक्षा सम्बन्धी सेवाओं के उपयुक्त नहीं माना जाता था, किंतु भारत की पहली महिला ‘आईपीएस’ श्रीमती किरण बेदी ने ही अपनी कर्तव्यनिष्ठा से इस मिथक को पूरी तरह तोड़ दिया। अत्यंत ही हर्ष का विषय है, कि अब महिला जगत का बहुत बड़ा भाग अपनी संवादहीनता, भीरूता एवं संकोचशीलता से मुक्त होकर सुदृढ़ समाज के सृजन में अपनी भागीदारी के लिए प्रस्तुत है। समस्त सामाजिक संदर्भों से जुड़ी महिलाओं की सक्रियता को अब न केवल पुरूष वरन् परिवार, समाज एवं राष्ट्र ने भी सगर्व स्वीकारा है। वर्तमान में नारी शक्ति का फैलाव इतना घनीभूत हो गया है कि कोई भी क्षेत्र इनके सम्पर्क से अछूता नहीं है। आज नारी पुरूषों के समान ही सुशिक्षित, सक्षम एवं सफल है। चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो, साहित्य, चिकित्सा, सेना, पुलिस, प्रशासन, व्यापार, समाज सुधार, पत्रकारिता, मीडिया एवं कला का क्षेत्र हो, नारी की उपस्थिति, योग्यता एवं उपलब्धियांं स्वयं अपना प्रत्यक्ष परिचय प्रस्तुत कर रही है। घर परिवार से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक उसकी कृति पताका लहरा रही है।

दोहरे दायित्वों से लदी महिलाओं ने अपनी दोगुनी शक्ति का प्रदर्शन कर सिद्ध कर दिया है कि समाज की उन्नति आज केवल पुरूषों के कन्धे पर नहीं, अपितु उनके हाथों का सहारा लेकर भी ऊंचाइयों की ओर अग्रसर होती है। उन्नत राष्ट्र की कल्पना तभी यथार्थ का रूप धारण कर सकती है, जब महिला सशक्त होकर राष्ट्र को सशक्त करें। महिला स्वयं सिद्धा है, वह गुणों की सम्पदा हैं। आवश्यकता है इन शक्तियों को महज प्रोत्साहन देने की। यही समय की मांग है।

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