कोरोना महामारी: चुनौतियाँ और अवसर

आज विश्व के लगभग सभी देश कोविड-19 वायरस की चपेट में हैं | कोरोना वायरस भयंकर महामारी बन चुका है | वर्तमान चिकित्सा जगत के पास इसका न कोई उपचार है और न कोई टीका | प्रतिदिन मौतों का आंकडा बढ़ता ही जा रहा है | इस संक्रमण को रोकने का एक ही उपाय है- “शारीरिक दूरी” और इसी के लिए विभिन्न सरकारें लाकडाउन का सहारा ले रहीं हैं| जनजीवन एकदम ठहर सा गया है| मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे सब बंद हैं | आर्थिक गतिविधियाँ लगभग शून्य हो गई हैं| किसी विज्ञानिक, अर्थशास्त्री या रणनीतिकार को कोई समाधान नहीं सूझ रहा है| 21वी सदी के उन्नत विज्ञानं और तकनीक की संयुक्त शक्ति भी एक सूक्ष्म वायरस के समक्ष पस्त हैं | 

यह तूफ़ान तो कुछ दिनों में गुजर ही जाएगा, पर कितनी मानव आबादी इसकी भेंट चढ़ेगी कोई नही जानता| पर इतना तो तय ही है कि मानव जाति और हम में से बहुत सारे लोग इस महामारी के बाद की दुनिया देखने को अवश्य ज़िंदा बचेंगे, परन्तु वह एक अलग दुनिया होगी | लोगों के सामजिक सरोकार, परस्पर अभिवादन के ढंग, जीवन शैलियाँ व् जीवन मूल्य, फैक्ट्रियों और दफ्तरों की कार्य प्रणालियाँ, शिक्षा के तौर-तरीके, देश की स्वास्थ सेवाएँ, प्रकृति और पर्यावरण के प्रति दृष्टिकोंण, वैश्विक राजनैतिक समीकरण, इन सभी में भारी बदलाव होंगे | दुनिया भर के देशों, उनकी अर्थव्यवस्थाओं और रोजगारों पर बड़ा भयावह प्रभाव पड़ने वाला है| विश्व आर्थिक मंदी की ओर अग्रसर है, जिसका दूरगामी परिणाम होगा|

इतिहास साक्षी है कि कोई भी बड़ी आपदा चाहे वो महामारी हो, बाढ़ हो, सूखा हो, महायुद्ध, या कोई अन्य दैविक त्रासदी, उसका एक कारण जाने या अनजाने में मनुष्य अवश्य होता है और प्रकृति मनुष्य की उस भूल के सुधार के लिए अपने कम्पूटर में रिसेट बटन दबा कर रिप्रोग्रामिंग करती है| कोरोना प्रकोप मनुष्य द्वारा पर्यावरण और प्रकृति के साथ किये गए दुर्व्यवहार का दण्ड है | यदि मानव सभ्यता को महाविनाश से बचाना है तो मनुष्य और प्रकृति के संबन्धों की पुनः व्याख्या करनी ही होगी | प्रकृति केवल मनुष्य के उपभोग हेतु है अथवा प्रकृति और मनुष्य का सहअस्तित्व है? प्रकृति का अनियंत्रित शोषण चाहिए या न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ती हेतु मात्र दोहन? प्रकृति भोग्या है या ममतामयी माँ? कोरोना संकट ने ये प्रश्न आज पुनः मानव जाति के समक्ष खड़े किये हैं | भारत इस विषय में विश्व का मार्ग दर्शक बन सकता है |

कोरोना महामारी से जूझते हुए विश्व में सर्वाधिक चर्चा भारत की है| इस महामारी के विरुद्ध संघर्ष में विश्व की महाशक्तियाँ पस्त दिख रहीं हैं, केवल भारत ही डट कर मुकाबला कर रहा है| इसके पीछे कुछ ठोस कारण हैं| भारत का मानसिक बल, सरकार का दृढ संकल्प, लोक कल्याण की सामूहिक भावना, यहाँ का सात्विक भोजन और आध्यात्मिक संस्कार युक्त जीवन शैली के कारण भारत के लोगों की प्रतिरोधक क्षमता बाकी अन्य से अधिक मजबूत है| रोम फाउंडेशन के डा० अमी स्पर्बर के नेतृत्व में 33 देशों के 76 हजार लोगों पर एक विस्तृत अध्ययन किया गया है जिसकी रिपोर्ट अभी हाल में प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय जर्नल “गैसट्रोएंट्रोलोजी” में छपी है| इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि भारत में पेट की बीमारियों की दर बाकी देशों से बहुत कम है| दुनिया के शीर्ष चिकित्सकों ने भी माना है कि आम भारतीयों का पेट सेहतमंद होने से यहाँ कोरोना का प्रकोप भी कम है | कहते हैं कि उपचार से बचाव बेहतर है | भारतीय जीवन शैली अपना कर शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई जा सकती है और संक्रमण से बचना संभव है |अतः अब भारतीय योग के साथ आयुर्वेद के प्रति भी दुनिया में आकर्षण बढेगा | भारत को इस अवसर का लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिए | 

विश्व के उत्तम स्वास्थ्य सेवाओं वाले राष्ट्रों में कोरोना वायरस ने जो कहर बरसाया है, उससे दुनिया यह सोचने को अवश्य मजबूर होगी कि भविष्य का स्वास्थ्य माडल कैसा हो? वर्तमान स्वास्थ्य माडल “इलाज केंदित” है | इस माडल में स्वास्थ्य का चिंतन बीमार होने के बाद शुरू होता है | अच्छे स्वास्थ्य माडल का मापदंड है अधिक अस्पताल, यानि हेल्थ की परिभाषा है अस्पतालों की संख्या | भारत अपनी पुरातन आरोग्य प्रणाली में ऐसे स्वस्थ समाज पर जोर देता है जहाँ लोग कम से कम बीमार हों | स्वास्थ्य चिंतन का सही दृष्टिकोण यही है | भारतीय योग और आयुर्वेद, भारतीय खान-पान और संयम-पूर्ण जीवन शैली भविष्य में विश्व के आकर्षण का केंद्र होंगे | अनेक उत्पादों के नामों में परिवर्तन जैसे कोलगेट-वेद्शक्ति, बबूल-आयुर्वेद आदि भविष्य की दिशा के संकेतक हैं|    

दुर्भाग्यवश पिछली दो शताब्दियों में हम अपने उत्तम संस्कारों को छोड़ कर भोग और विलासिता प्रिय एक ऐसी सभ्यता के अनुगामी बन गए है जिसमें मनुष्य अपनी इच्छाओं की पूर्ती के लिए पूर्णतया स्वछन्द है| इच्छाएं अनन्त हैं और अनन्त की पूर्ती असंभव है | फिर भी मनुष्य अपनी इच्छाओं की पूर्ती के लिए जल, थल और आकाश को खोजता हुआ अंतरिक्ष तक जा पहुंचा है परन्तु उसकी इच्छाएं शांत नहीं हो रही, सुरसा के मुख की भाँती बढ़ती ही जा रही हैं | वह प्रकृति के संसाधनों का अंधाधुंध शोषण और पर्यावरण को प्रदूषित करने में ज़रा भी संकोच नहीं करता | पिछले कुछ दशकों में पर्यावरण संरक्षण पर राष्ट्रीय ओर अंतर्राष्ट्रीय स्तरों चर्चाएँ व् गोष्ठियाँ तो बहुत हुई परन्तु भौतिक विकास की होड़ में हम प्रकृति के साथ सामंजस्य व् संतुलन स्थापित नहीं कर सके | दैविक आपदाएँ प्रकृति के असंतुलन को दूर करने का माध्यम होती हैं| जिन नदियों की सफाई और वायु प्रदूषण को दूर करने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठन अनेक वर्षों से असफल प्रयास करते रहे, उसे कोरोना ने मात्र 30-35 दिन में कर दिया है| आज वायुमंडल इतना स्वच्छ है कि सहारनपुर से हिमालय के हिम आच्छादित शिखर दिखाई देने लगे हैं, गंगा का जल आचमन योग्य हो गया, यमुना में तैरती मछलियां दिखने लगीं, और पेड़ों पर कोयल की कूक और चिड़ियों का शोर सुनाई देने लगा है| इस घटना ने पर्यावरण शुद्ध करने के सरकारी और गैर-सरकारी सभी प्रयासों की पोल खोल कर रख दी है | भारत एक मात्र देश है जहाँ धरती, हवा, पानी और वृक्षों को देव तुल्य मान कर पूजा की जाती है, परन्तु हमने  पश्चिम की भौतिक प्रगति की चकाचौंध में अपने जीवन मूल्यों को भुला दिया जिसका परिणाम अब सामने है| कोरोना संकट ने हमें एक अवसर दिया है कि हम विकास को भारतीय परम्परा के अनुसार पुनः परिभाषित करें, अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करें और प्रकृति के दोहन की एक सीमा तय करें|

एल्विन टाफ्लर के “तीसरी तरंग (थर्ड वेव)” माडल के अनुसार आज की दुनिया कृषि समाज और औद्योगिक समाज की पहली व् दूसरी तरंगों से निकल कर अब तीसरी तरंग के ज्ञान समाज युग में पहुँच गई है जिसमें उद्योगों की बर्बर शक्ति का स्थान ज्ञान आधारित आर्थिक शक्ति ने ले लिया है | आवागमन के द्रुत साधनों, इन्फोर्मेशन टेक्नोलोजी और इन्टरनेट ने ज्ञान के अनन्त कोष को भीषण विस्फोट के साथ प्रत्येक मनुष्य को सुलभ करा दिया है | भूमंडलीकरण का युग है| बहुराष्ट्रिय कम्पनियों के व्यापार हेतु राष्ट्रों की सीमाएं धुधली होने लगी हैं, पूरा विश्व उनका कार्य क्षेत्र है, मानवीय संवेदनाएँ समाप्त हो गई हैं और मनुष्य इस आर्थिक तन्त्र का एक संसाधन मात्र बन गया है | वर्तमान भूमंडलीकरण का आधार केवल आर्थिक है| इसमें अधिकाधिक उत्पादन और अधिकतम लाभ की व्यवस्था है | साधारण मनुष्य इस भीमकाय विशाल उत्पादन तन्त्र में मात्र एक पुर्जा है और लाभ केवल चन्द कॉर्पोरेट घरानों का होता है | आवश्यकता से अधिक उत्पादन को खपाने के लिए बाज़ार चाहियें अतः विकसित राष्ट्र अविकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में आर्थिक उपनिवेश निर्माण करते हैं | पश्चिम के समृद्ध राष्ट्रों द्वारा प्रायोजित सम्पूर्ण विश्व में मुक्त व्यापार की अवधारणा के इस भूमंडलीकरण में मानव और मानवता पूर्णतया उपेक्षित है | चीन की मानवीय संवेदना विहीन आर्थिक महत्वाकांक्षा का ही परिणाम है- कोरोना महामारी | विकास की अवधारणा में यदि मानव हित ही उपेक्षित है तो विकास निरर्थक है | 26 मार्च 2020 को कोरोना वैश्विक संकट पर आयोजित जी-20 देशों के वीडियो शिखर सम्मलेन में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में विश्व की महाशक्तियों को चेताया था कि कोरोना संकट से उबरने के बाद बहुराष्ट्रवाद और वैश्वीकरण की अवधारणा में आर्थिक पक्ष के साथ-साथ मानवता को भी शामिल करना होगा | विकास में मानवता को कैसे प्राथमिकता दी जाये, इस विषय पर एकात्म मानववाद  के भारतीय चिंतन की भूमिका महत्वपूर्ण होगी |

भूमंडलीकरण के चलते बहुराष्ट्रीय कम्पनियां लागत कम करने के लिए अपने उत्पादों के विभिन्न पुर्जे कई अलग-अलग देशों में निर्माण करती हैं | यदि किसी एक देश से भी पुर्जों की आपूर्ति किसी कारणवश रुक जाये तो पूरा उत्पाद ही रुक जाएगा | इस महामारी के कारण वैश्विक आपूर्ति श्रंखला अस्त व्यस्त हो गई है | अतः विनिर्माण के वैश्विक प्रारूप से हटकर सभी राष्ट्र स्वदेशी आत्म निर्भरता की ओर बढ़ेंगे | दुनिया के अनेक विकसित देश आज उपभोक्ता सामान के लिए चीन पर पर निर्भर हैं, परन्तु इस महामारी में चीन ने जिस प्रकार से खराब मेडिकल टेस्ट किट्स और अन्य सामान मनमाने दामों पर बेचा है उससे सभी राष्ट्रों में आत्म निर्भरता की प्रवृत्ति जोर पकड़ेगी | मुक्त वैश्विक व्यापार के स्थान पर विभिन्न राष्ट्रों में अपने-अपने व्यापारिक हितों के संरक्षण की प्रवृत्ति जोर पकड़ेगी|  वैसे भी डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही अमेरिका अपने वैश्विक व्यापार में संरक्षणवाद को बढ़ावा दे रहा है और फिर इस वर्ष वहाँ चुनाव भी होना है अतः संरक्षणवाद के सुर और जोर पकड़ेंगे | अमेरिका प्रवर्तित भूमंडलीकरण को गहरा आघात लगना तय है | 

कोरोना प्रकोप चीन की वैश्विक वर्चस्व की महत्वाकांक्षा के दुराग्रह का परिणाम है | चीन उसके लिए किसी भी हद तक जा सकता है | कोरोना वायरस की उत्पत्ति और फैलाव के बारे में चीन का आचरण आशंकाओं से घिरा हुआ है| कई देश अपने-अपने देशों में हुए नुकसान का चीन से हर्जाना मांग रहे हैं | अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां चीन में अपनी फैक्ट्रियाँ बन्द करके अन्यत्र स्थानांतरित कर रही है| जापान ने तो अपनी विनिर्माण कम्पनियों को स्थानांतरित करने के लिए 2.2 अरब डालर का कोष ही बना दिया है| विदेशी कम्पनियों का चीन से पलायन भारत के लिए एक सुनहरा अवसर है | आज चीन के विरुद्ध वैश्विक सहमति का वातावरण बना है | कोरोना संकट समाप्त होने के बाद संसार के विभिन्न देश चीन पर आर्थिक निर्भरता कम करने की दिशा में बढ़ेंगे | चीन से आर्थिक दूरी एक नया दस्तूर बनेगी | वैश्विक संबंधों में नये शक्ति केन्द्रों का उदय होगा | सयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका पर प्रश्न उठने शुरू हो गए हैं, अतः इनमें भारी उलट-फेर हो सकते हैं |

दैविक आपदाएं कष्ट देती हैं, जीवन छीनती हैं परन्तु अनेक अवसर और अनुभव भी देती हैं | लाकडाउन में लोगों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है, परन्तु जीवन, समाज और राष्ट्र के प्रति एक नवचेतना का सृजन हुआ है जिसका दूरगामी प्रभाव होगा | सामाजिक शिष्टाचार बदल रहें हैं, लोग दूर से अभिवादन कर रहे हैं, धार्मिक और सामाजिक आयोजनों में भीड़ कम हो रही है, स्वच्छता स्वभाव बनने लगी है, प्रगतिशील लोग तुलसी-गिलोय का काढा पी रहे हैं, वायु शुद्ध है, पृथ्वी और आकाश दोनों की गंगा साफ़ हो गई है, नदियों में मछलियाँ दिखने लगीं और आकाश में तारे | इन उपलब्धियों को संजोना होगा | महामारी का संकट कष्टपूर्ण तो अवश्य है परन्तु इसकी उपलब्धियाँ भावी संसार में शांति और सहयोग का मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं | 

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