कोरोनाः सूक्ष्म-जीव का अनंत विस्तार

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प्रमोद भार्गव

हरि अनंत, हरि कथा अनंता‘ की तर्ज पर सूक्ष्म-जीव कोरोना का दुनिया में अनंत विस्तार होता जा रहा है। अमेरिका समेत 100 देशों की मानव आबादी में कोरोना विषाणु ने अपना असर छोड़ दिया है। हजारों लोग मर चुके हैं और 1 लाख से भी ज्यादा लोग संक्रमित हैं। चीन में नोबेल कोरोना नाम के जिस वायरस ने हल्ला मचाया है, उसे चीन के महानगर वुहान में स्थित वायरस प्रयोगशाला पी-4 में उत्सर्जित किए जाने की आशंका दुनिया के वैज्ञानिकों ने जताई थी, उनकी पुष्टि उन दो किताबों से भी हो रही है, जिनमें से एक 40 साल पहले तो दूसरी 12 साल पहले छपी थी। 1981 में डीन कोंटोज नामक लेखक ने ‘द आइज ऑफ डार्कनेस‘ पुस्तक लिखी थी, इसमें वुहान-400 नामक एक ऐसे वायरस की चर्चा है, जिसे वुहान शहर से बाहर एक आरडीएनए प्रयोगशाला में बनाया गया है। किताब के अनुसार यह जैविक हथियार 400 लोगों के माइक्रोगैनिज्म को मिलाकर बनाया गया था। 2008 में छपी दूसरी किताब सिल्चिया ब्राउन ने ‘एंड ऑफ डेजः प्रिडिक्शन एंड प्रोफेसीज अबाउट द एंड ऑफ द वर्ल्ड‘ शीर्षक से लिखी थी। इसमें भी कोरोना वायरस की कृत्रिम तरीकों से उत्पत्ति का उल्लेख है।दरअसल आजकल जीवाणु व विषाणुओं की मूल संरचना में जेनेटिकली परिवर्तन कर खतरनाक जैविक हथियार बनाए जाने लगे हैं। यह आशंका इसलिए जताई गई है क्योंकि चीन ने एक महीने तक इसकी जानकारी किसी को नहीं दी। बीमारी फैलने के बाद चीन करीब डेढ़ महीने तक इसे मामूली बीमारी बताता रहा। जब यह बेकाबू होती गई तब चीन ने इसकी जानकारी विश्व-स्वास्थ्य संगठन के साथ दुनिया के अन्य देशों से भी साझा की। दरअसल वायरस एवं बैक्टीरिया से डर इसलिए लगता है क्योंकि पिछली सदी में प्लेग, हैजा और स्पेनिश फ्लू जैसी महामारियों से करोड़ों लोग मारे गए थे। इसी दौरान वैज्ञानिकों ने एंटीबाॅयोटिक दवाएं और वैक्सीन का आविष्कार कर इन बीमारियों पर नियंत्रण पा लिया था लेकिन 21वीं सदी की शुरूआत के बाद से एक के बाद एक वायरस जन्म लेते जा रहे हैं। कोविड-19, स्वाइन फ्लू, साॅर्स, मर्स ऐसे वायरस रहे हैं, जो वुहान से ही निकले हैं। इसलिए यह आशंका स्वाभाविक है कि इनका कहीं वुुहान की प्रयोगशाला में उत्सर्जन तो नहीं किया जा रहा है।कहने को तो वैज्ञानिक विषाणु (वायरस) एवं जीवाणु (बैक्टिरिया) को जीव जगत की सबसे सरल रचनाएं मानते हैं। लेकिन इनकी जटिल संरचना को न तो समझना आसान होता है और न ही इनके चित्र लेना है। जीव-जगत की ये शुरूआती संरचनाएं हैं। बावजूद अभीतक यह निश्चित नहीं हो पाया है कि इन्हें जीव माना जाए या वनस्पति क्योंकि हमारी सृष्टि में जितना भी जीव-जगत उपलब्ध है, उसे दो भाग जीव और वनस्पति में वर्गीकृत किया गया है। घातक कोरोना वायरस नया-नया है इसलिए इसकी संरचना कैसी है, वैज्ञानिक इसकी पड़ताल नहीं कर पाए हैं। हालांकि ‘डेली मेल‘ अखबार में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण चीन के शेनजेन में शोधार्थियों ने कोरोना की कोशिका का एक चित्र फ्रोजेन इलेक्ट्राॅन माइक्रोसोप ऐनालिसिस की तकनीक से हासिल कर लिया है। इस तकनीक का प्रयोग कर पहले वायरस को निष्क्रिय किया गया और फिर उसका चित्र लिया गया। इस जैविक नमूने से यह तय किया जाएगा कि जीवित अवस्था में वायरस कैसा था और किस तरह जीवन प्रणाली चलाता था। इस शोध से जुड़े वैज्ञानिक लिउ चुआंग का कहना है कि ‘वायरस की जिस संरचना को हमने देखा है, वह बिल्कुल वैसा ही है, जैसा जीवित अवस्था में होता है। अब इसकी डीएनए संरचना का विश्लेषण कर इसका क्लिनिकल परीक्षण कर इसके जीवन चक्र को समझा जाएगा।दरअसल जीवाणु एवं विषाणुओं को एक निर्जीव कड़ी के रूप में देखा जाता है। लेकिन जब ये किसी प्राणी की कोशिका को शिकार बनाने की अनुकूल स्थिति में आ जाते हैं तो जीवित हो उठते हैं। इसलिए इनके जीवन चक्र के इतिहास को समझना मुश्किल है। इनके जीवाश्म भी नहीं होते हैं इसलिए भी इनके डीएनए की संरचना समझना कठिन हो रहा है। जबकि मनुष्य के शरीर में जो डीएनए है, उसके निर्माण में मुख्य भूमिका इसी वायरस की रहती है। बावजूद दुनिया के वैज्ञानिक इनके जीन में परिवर्तन कर खतरनाक वायरसों के निर्माण में लगे हुए हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाॅकिंग ने मानव समुदाय को सुरक्षित बनाए रखने की दृष्टि से जो चेतावनियां दी हैं, उनमें एक चेतावनी जेनेटिकली इंजीनियरिंग अर्थात आनुवांशिक अभियंत्रिकी से खिलवाड़ करना भी है। आजकल खासतौर से चीन और अमेरिकी वैज्ञानिक विषाणु और जीवाणु से प्रयोगशालाओं में छेड़छाड़ कर एक तो नए विषाणु व जीवाणुओं के उत्पादन में लगे हैं, दूसरे उनकी मूल प्रकृति में बदलाव कर उन्हें और ज्यादा सक्षम व खतरनाक बना रहे हैं। इनका उत्पादन मानव स्वास्थ्य के हित के बहाने किया जा रहा है लेकिन ये बेकाबू हो गए तो तमाम मुश्किलों का भी सामना करना पड़ सकता है? कई देश अपनी सुरक्षा के लिए घातक वायरसों का उत्पादन कर खतरनाक जैविक हथियार भी बनाने में लग गए हैं। कोरोना वायरस को भी ऐसी ही आशंकाओं का पर्याय माना जा रहा है।हम आए दिन नए-नए बैक्टीरिया व वायरसों के उत्पादन के बारे खबरें पढ़ते रहते हैं। हाल ही में त्वचा कैंसर के उपचार के लिए टी-वैक थैरेपी की खोज की गई है। इसके अनुसार शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को ही विकसित कर कैंसर से लड़ा जाएगा। इस सिलसिले में स्टीफन हाॅकिंग सचेत किया था कि इस तरीके में बहुत जोखिम है। क्योंकि जीन को मोडीफाइड करने के दुष्प्रभावों के बारे में अभीतक वैज्ञानिक खोजें न तो बहुत अधिक विकसित हो पाई हैं और न ही उनके निष्कर्षों का सटीक परीक्षण हुआ है। उन्होंने यह भी आशंका जताई थी कि प्रयोगशालाओं में जीन परिवर्धित करके जो विषाणु-जीवाणु अस्तित्व में लाए जा रहे हैं, हो सकता है, उनके तोड़ के लिए किसी के पास एंटी-बायोटिक एवं एंटी-वायरल ड्रग्स ही न हों?कुछ समय पहले खबर आई थी कि जेनेटिकली इंजीनियर्ड अभियांत्रिकी से ऐसा जीवाणु तैयार कर लिया है जो 30 गुना ज्यादा रसायनों का उत्पादन करेंगे। जीन में बदलाव कर इस जीवाणु के अस्तित्व को आकार दिया गया है। माना जा रहा है कि यह एक ऐसी खोज है, जिससे दुनिया की रसायन उत्पादन कारखानों में पूरी तरह जेनेटिकली इंजीनियर्ड बैक्टीरिया का ही उपयोग होगा। विस इंस्टीट्यूट फाॅर बाॅयोलाॅजिकली इंस्पायर्ड इंजीनियंरिंग और हावर्ड मेडिकल स्कूल के शोधकर्ताओं के दल ने यह शोध किया है। अनुवांशिकविद जाॅर्ज चर्च के नेतृत्व में किए गए इस शोध के तहत बैक्टीरिया के जींस को इस तरीके से परिवर्धित किया गया, जिससे वे इच्छित मात्रा में रसायन का उत्पादन करें। बैक्टीरिया अपनी मेंटाबाॅलिक प्रक्रिया के तहत रसायनों का उत्सर्जन करते हैं। यह तकनीक हालांकि नई नहीं है। लेकिन नई खोज से ऐसी तकनीक विकसित की गई है, जिससे वैज्ञानिक किसी भी तरह के बैक्टीरिया का इस्तेमाल करके अनेक प्रकार के रसायन तैयार कर सकेंगे।इस शोध के लिए वैज्ञानिकों ने ई-काॅली नामक बैक्टीरिया का इस्तेमाल किया है। इसमें बदलाव के लिए इवोल्यूशनरी मैकेनिज्म को उपयोग में लाया गया। दरअसल जीवाणु एक कोशकीय होते हैं, लेकिन ये स्वयं को निरंतर विभाजित करते हुए अपना समूह विकसित कर लेते हैं। वैज्ञानिक इन जीवाणुओं पर ऐसे एंटीबायोटिक्स का प्रयोग करते हैं, जिससे केवल उत्पादन क्षमता रखने वाली कोशिकाएं ही जीवित रहें। इन कोशिकाओं के जीन में बदलाव करके ऐसे रसायन उत्पादन में सक्षम बनाया जाता है, जो उसे एंटिबायोटिक से बचाने में सहायक होता है। ऐसे में एंटीबायोटिक का सामना करने के लिए बैक्टीरिया को ज्यादा से ज्यादा रसायन का उत्पादन करना पड़ता है। रसायन उत्पादन की यह रफ्तार एक हजार गुना ज्यादा होती है। यह खोज ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट‘ के सिद्धांत पर आधारित है। इस सिद्धांत के अनुरूप यह चक्र निरंतर दोहराए जाने पर सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले चुनिंदा जीवाणुओं की कोशिकाएं ही बची रह जाती हैं। मानव शरीर में उनका उपयोग रसायनों की कमी आने पर किया जा सकेगा, ऐसी संभावना जताई जा रही है। इस खोज से फार्मास्युटिकल बायोफ्यूल और अक्षय रसायन भी तैयार होंगे। लेकिन मानव शरीर में इसके भविष्य में क्या खतरे हो सकते हैं, यह प्रश्न फिलहाल अनुत्तरित ही है।इन विषाणु व जीवाणुओं के उत्पादन पर सवाल उठ रहा है कि क्या वैज्ञानिकों को प्रकृति के विरुद्ध विषाणु-जीवाणुओं की मूल प्रकृति में दखलंदाजी करनी चाहिए? प्रयोग के लिए तैयार ऐसे जीवाणु व विषाणु कितनी सुरक्षा में रखे गए हैं? यदि वे जान-बूझकर या दुर्घटनावश बाहर आ जाते हैं तो इनके द्वारा जो नुकसान होगा, उसकी जबावदेही किसपर होगी? ऐसे में वैज्ञानिकों की ईश्वर बनने की महत्वाकांक्षा पर यह सवाल खड़ा होता है कि आखिर वैज्ञानिकों को अज्ञात के खोज की कितनी अनुमति दी जानी चाहिए? अंततः ज्ञान की सीमा ऐसी अंधेरे में की जा रही अनंत गहराई है, जिसके खतरों की डोर आखिर मनुष्य से ही जुड़ जाती है।

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