कोरोना कहर से बदली जिन्दगी को स्वीकारें

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-ः ललित गर्ग:-
कोरोना महासंकट ने हमारी सोच एवं संवेदना ही नहीं बदली बल्कि हमारा सम्पूर्ण जीवन बदल दिया है। जनसंख्या की दृष्टि से विश्व का दूसरा सबसे बड़ा और लोकतंत्र व्यवस्था में सबसे बड़ा राष्ट्र, कोरोना महामारी को नियंत्रित करने में अब तक सफल रहा हैं। हमने भी देशव्यापी लाॅकडाउन, सोशल डिस्टेंसिग, निजी स्वच्छता, संयम, आत्मबल जैसे उपायों से कोरोना वायरस के भयावह प्रसार को रोकने की कोशिश की है। सामुदायिक व्यवहार में इस संयम, स्व-विवेक, सादगी एवं अनुशासन के अभीष्ट परिणाम भी मिले हैं। जहां-जहां इन उपायों का कड़ाई से पालन किया गया है, वहां पर रोगियों की संख्या तथा मृत्यु दर में कमी दर्ज की गई है। इसके विपरीत जहां इन उपायों का उल्लंघन या उनके पालन में ढिलाई बरती गई, वहां पर रोगियों की संख्या में तेजी देखी गई है। अब कोरोना असली चुनौती बन रहा है। अभी हमें पूरी सावधानी एवं सतर्कता बरतनी होगी, अन्यथा कोरोना का कहर सब कुछ नष्ट कर देगा।
आज जिन्दगी ठहरी हुई है, ऊबाऊ है, घरों में कैद है-लेकिन इसी कारण जिन्दगी बची हुई भी है। आज की जिन्दगी में ‘हरिअप’ यानी जल्दीबाजी का आतंक नहीं है। इसी कारण साफ एवं स्वच्छ आकाश देखने को मिल रहा है, साफ-सुथरी प्रकृति से रू-ब-रू हो रहे हंै। जिन्दगी को भार नहीं, आभार मानकर जीने की जरूरत है। यहां ग्रीक दार्शनिक एपिक्यूरस की इस उक्ति को याद करने की जरूरत है- जो नहीं है, उसके बारे में सोचकर उन चीजों को न खोएं, जो आपके पास हैं।’ जबकि ऐसी बातों के बारे में सोचें, जो खुशी देती हैं। अच्छी तस्वीरें देखना, अच्छी बातें याद करना, अपने बच्चों की रिकॉर्डिंग देखना, संगीत सुनना- ऐसा करना तुरंत बोरियत दूर करते हुए मूड को तरोताजा कर देगा। अगर जानते हैं कि अभी जिन्दगी सामान्य होने में समय ज्यादा लगेगा तो इस समय को सकारात्मक चिन्तन में लगाये, भविष्य की योजनाओं पर चिन्तन करें।
लोग उबाऊ हो रहे है, ना ही कोई काम उनके पास है। जिन्दगी का मजा नहीं आ रहा होता। महान दार्शनिक नीत्शे तो यहां तक कहते हैं कि यह जीवन बोर होने के लिए बहुत ही छोटा है। दरअसल, बोरियत हमारी वह ऊर्जा है, जो सही काम में नहीं लग रही होती। हमें वे काम झल्लाते हैं, जो पसंद नहीं होते। हम बोरियत से दूर नहीं भाग सकते, पर उसे देखने का तरीका जरूर बदल सकते हैं। अपनी ऊर्जा को नई दिशा दे सकते हैं। हर इंसान दर्द झेल रहा है, लेकिन उसका स्वरूप सबके लिए अलग-अलग है। आप इस दुनिया को नहीं कह सकते कि वह आपको दुखी न करे। आगे बढ़ने की राह में किसी ना किसी मोड़ पर दुख और चुनौतियों से सामना होगा ही। पर आप जैसे-जैसे तकलीफ झेलते जाएंगे, वैसे-वैसे और ज्यादा मजबूत भी बनते जाएंगे। एक दिन आपको अपने आत्मविश्वास एवं आत्मस्थ होने पर नाज होगा। धीरे-धीरे पाएंगे कि तरक्की का रास्ता उन चुनौतियों को झेलने की सामथ्र्य में से ही निकल रहा था। यह भी समझ पाएंगे कि आप उतने भी कमजोर नहीं हैं, जितना खुद को समझ रहे थे। यह विश्वास होगा कि आप कोरोना जैसी हर मुश्किल का सामना कर सकते हैं। यही भरोसा आपकी ताकत भी है।
आज की जिन्दगी में भागमभाग नहीं, ठहराव है। आज जीवन की जो गति है, उसे देखकर भविष्य में जीवन की कल्पना करें तो दहशत होती है, डर लगता है। लेकिन जीवन से, अस्तित्व से जुड़ना है तो तनिक रुककर सोचना होगा, अपनी रफ्तार कम करनी होगी। तेज रफ्तार जिन्दगी के बीच इस सत्य को पाया है कि हमेशा तेज रफ्तार ही नहीं, धीमी रफ्तार से चलने से भी जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है। कोरोना महामारी ने इस सोच को अधिक पुष्ट किया है। कार्ल होनोरे की किताब ‘इन प्रेज आॅफ स्लोनेस’ का प्रारंभ ही महात्मा गांधी के इन शब्दों से होती है कि जिन्दगी में रफ्तार बढ़ाने के अलावा और भी बहुत कुछ है।’ धीमी गति से काम करने में एक सुन्दरता है, एक शांति है और इसके परिणाम भी सुखद है। जैसे धीमी आंच पर बने खाने का स्वाद निराला होता है। तेज रफ्तार जिन्दगी हिंसक होती है, उथले एवं अधकचरे विचारों एवं परिणामों वाली होती है। तनिक-सी बाधा आते ही हम मरने-मारने पर उतारू हो जाते हंै, तनावग्रस्त एवं आक्रामक हो जाते हैं। हम तेजी से आगे बढ़ना चाहते हैं। सफल होने के लिए शॉर्टकट अपनाते हैं। कारण, हमें यही लगता रहता है कि हम पीछे रह गए हैं और दूसरे आगे निकल गए हैं। लेकिन आज हम इस तरह के ‘टाइम-सिकनेस’ की स्थिति के शिकार नहीं हैं। हम जब कोरोना मुक्ति की स्थिति में पहुंच जायेंगे, असली खुशी तो उस मंजिल पर पहुंचकर ही मिलेगी। लेखक डब्ल्यू पी किंसेला कहते हैं, ‘जो चाहते हैं, उसे पाना सफलता है। जो मिला है, उसे चाहना खुशी है।’
बाहर कितनी भी रफ्तार बढ़ा ले, लेकिन जीवन के वास्तविक सुख एवं सत्य को खोजने एवं पाने की रफ्तार नहीं बढ़ाई जा सकती। अगर लगातार अपनी जीवनशैली या काम से बोरियत हो रही है, या फिर मन नहीं लग रहा है तो यह संकेत है कि अपने काम में या फिर काम के तरीके में बदलाव लाया जाए, सोच को परिस्थितियों के अनुरूप बदला जाये। कई बार काम के बीच छोटे-छोटे ब्रेक लेना भी मानसिक तौर पर राहत देता है। हमारी भागमभाग की जिन्दगी में कोरोना के रूप में एक तरह का ब्रेक मिला है, जिसे सकारात्मक नजरिये से देखें। शरीर की स्वस्थता के लिये  आत्मा को नष्ट नहीं किया जाना चाहिए, यह देश एवं उसकी जनता ने भलीभांति समझा है। हमारी परम्परागत सोच, संवेदना एवं संयम-संस्कृति को जीवंतता देकर हमने दुनिया के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है, अब कुछ और संयम का उदाहरण देना जरूरी है। इसे इस तरह समझें – मान लीजिए आप बस का इंतजार कर रहे हैं तो खुद को कहें कि ‘बस वेटिंग मेडिटेशन’ कर रहे हैं। अब आप उस पल को नए ढंग से महसूस करेंगे।
कोरोना महामारी हमारी अग्नि-परीक्षा का काल है। जिसने न केवल हमारी पारंपरिक सांस्कृतिक, धार्मिक उत्सवों-पर्वो में व्यवधान उत्पन्न किया है, बल्कि हमारी शैक्षणिक और आर्थिक गतिविधियों को भी बाधित किया है। इसने हमारे देश की जनसंख्या के एक बड़े वर्ग को भूख एवं अभावों की प्रताड़ना एवं पीड़ा दी है, अपनों से दूर किया है। रोजगार छीन लिये हैं, व्यापार ठप्प कर दिये हैं, संकट तो चारों ओर बिखरे हैं, लेकिन तमाम विपरीत स्थितियों के हमने अपना संयम, धैर्य, मनोबल एवं विश्वास नहीं खोया है। हम सब एक साथ मिलकर इन बढ़ती हुई चुनौतियों एवं संकटों का समाधान खोजने में लगे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के फौलादी एवं सक्षम नेतृत्व में सभी राजनैतिक एवं प्रशासनिक शक्तियां जटिल से जटिल होती स्थितियों पर नजर बनाए हुए हैं और कठिनाइयों को कमतर करने के लिए हरसंभव सुविचारित कदम उठा रहे हैं। घरों में रहकर, सुरक्षित रहकर ही हम इन खौफनाक एवं डरावनी स्थितियों पर काबू पा सकते हैं। हमें निरंतर सतर्क रहना होगा, ढिलाई की गुंजाइश नहीं है। हमारी एक भूल अनेक जीवन को संकट में डाल सकती है। इसलिये यह समय है, जब हम अपने संकल्प और प्रयासों में एकता दिखाएं। वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए परस्पर दूरी बनाएं रखें, लेकिन मनुष्य के रूप में अपनी मानवीय संवेदना का अहसास सबको कराये। हम अपने धर्म-संप्रदाय के मूल संस्कारों, उपदेशों को फिर से समझें। हम अपना ख्याल रखें और संभव हो, तो अपने पास रहने वालों का भी ध्यान रखें। तभी कोरोना मुक्ति का सुर्योदय जन-जन के जीवन का उजाला बन सकेगा।

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