दुनिया का कोई भी धर्म, मत, पंथ, सम्प्रदाय, मजहब, समाज, संस्था या संगठन ऐसा नहीं है, जिसमें समय के अनुसार कुछ सुधार या परिवर्तन न हुआ हो। कुछ में यह स्वाभाविक रूप से हुआ, तो कुछ में भारी खून खराबे के बाद। स्थिरता और जड़ता मृत्यु के प्रतीक हैं, तो परिवर्तन जीवन का। इसीलिए परिवर्तन को प्रकृति का नियम कहा गया है।
पिछले दिनों भारत में एक महत्वपूर्ण घटना घटी है। मुसलमानों के एक बड़े वर्ग में एक साथ तीन तलाक कहकर अपनी बीवी को छोड़ देने की कुरीति प्रचलित है। इसे ‘तलाक ए बिद्दत’ कहते हैं। अब मुंह से बोलने की बजाय फोन या चिट्ठी से भी यह काम होने लगा है। यद्यपि दुनिया के कई देश इसे छोड़ चुके हैं; पर भारत के मुसलमान अभी लकीर के फकीर ही बने हैं। उनके मजहबी नेता कहते हैं कि अल्ला के बनाए कानून में फेरबदल नहीं हो सकती; पर वे इस पर चुप रहते हैं कि यदि ये अल्ला का कानून है, तो मुस्लिम देशों ने इसे क्यों छोड़ दिया; क्या वहां के मुसलमान और उनके नेता मूर्ख हैं ? इसलिए किसी मुस्लिम विद्वान ने ठीक ही कहा है कि ये अल्ला का नहीं, मुल्ला का कानून है, जिसकी व्याख्या हर मुल्ला अपने हिसाब से कर देता है।
भारत में लाखों महिलाएं इस कुप्रथा की शिकार होकर बच्चों के साथ धक्के खा रही हैं। उनकी पीड़ा को अब तक किसी ने नहीं समझा। बरसों पहले इंदौर की 62 वर्षीय वृद्धा शाहबानो का प्रकरण हुआ था। न्यायालय ने उसके पति को आदेश दिया था कि वह शाहबानो को गुजारा भत्ता दे। इस पर मुसलमानों ने आसमान सिर पर उठा लिया। उन दिनों राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। इंदिरा गांधी की हत्या से मिली सहानुभूति के कारण उन्हें लोकसभा में 3/4 बहुमत मिला था। इसके बावजूद वे डर गये और इसके विरुद्ध कानून बनवा दिया। इससे मुसलमान महिलाओं का मनोबल गिर गया। उन्होंने इस जलालत को अपनी नियति मान लिया; पर अंदर ही अंदर आग सुलगती रही। इसके बाद कई सरकारें आयीं; पर किसी में इस विषय को छेड़ने की हिम्मत नहीं हुई।
कहते हैं कि 12 साल में घूरे के भी दिन फिरते हैं; लेकिन मुसलमान महिलाओं के दिन फिरने में 40 साल गये। 2014 में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने मुस्लिम महिलाओं की इस पीड़ा को समझा। इसी का परिणाम है कि लोकसभा में यह प्रस्ताव पारित हो गया है। अब राज्यसभा की बारी है। यद्यपि वहां भा.ज.पा. और रा.ज.ग. की संख्या कम है; पर जैसे कांग्रेस ने लोकसभा में साथ देकर अपनी पुरानी गलती मानी है, आशा है वह राज्यसभा में भी ऐसा ही करेगी।
इस कानून से मुस्लिम समाज का बहुत भला होगा। इससे महिलाओं और समझदार पुरुषों का आत्मविश्वास जगेगा कि यदि वे प्रयास करते रहें, तो सफलता मिलती ही है। यद्यपि पिछली बार की तरह इस बार भी कुछ मुल्ला और उनके समर्थक शोर मचा रहे हैं; पर अब उन्हें सुनने को कोई तैयार नहीं है। क्योंकि अब मुस्लिम समाज के अंदर से ही परिवर्तन की आवाज उठी है। पिछली बार ऐसा नहीं था। तब शाहबानो अकेली पड़ गयी थी और शासन भी मुल्लाओं के तलवे चाटने वाला था। अतः समाज सुधार का यह प्रयास सफल नहीं हो सका।
सच तो यह है कि समाज सुधार की आवाज जब तक अंदर से नहीं उठती, तब तक केवल कानून से कुछ नहीं होता। भारत में कानून तो दहेज, बाल विवाह और भ्रूण हत्या के विरुद्ध भी हैं। फिर भी ये हो रहे हैं। क्योंकि समाज अभी इसे मानने को तैयार नहीं है। कानून तो तब काम करता है, जब कोई उसके विरुद्ध खड़ा हो। यदि बहुमत कुरीति के पक्ष में हो, तो आसानी से कोई विरोध का साहस भी नहीं करता।
इसलिए यह हर्ष की बात है कि इस बार जहां एक ओर मुस्लिम महिलाएं ताल ठोक कर खड़ी हैं, वहां बड़ी संख्या में मुसलमान पुरुष भी उनका साथ दे रहे हैं। शिया तो खुलकर इस कुप्रथा के विरोध में हैं। अब केवल सुन्नी बचे हैं। शासन और समाज का दबाव बढ़ने पर उन्हें भी अक्ल आ जाएगी। आखिर अयोध्या के श्रीराममंदिर विवाद पर भी वे पीछे हट ही रहे हैं। वे समझ गये हैं कि न्याय और जनमत दोनों उसके विरुद्ध है। अतः इज्जत से पीछे हटने में ही समझदारी है।
इस्लाम चूंकि एक मजहब है। इसलिए वहां कोई भी परिवर्तन आसान नहीं है। यद्यपि मजहब तो ईसाई भी है; पर शिक्षा के प्रसार से उनकी सोच बदली है। आशा है अब समझदार मुसलमान भी आगे आकर उन मजहबी नेताओं को ठुकराएंगे, जो उन्हें कूपमंडूक बनाए रखना चाहते हैं। चूंकि इसी से उनकी राजनीतिक दुकान चलती है।
एक बार परिवर्तन और समाज सुधार की लहर चली, तो वह कब और कैसे आंधी बन जाएगी, पता ही नहीं लगेगा। अभी तो प्रस्ताव केवल लोकसभा में ही पारित हुआ है। कानून बनने की मंजिल अभी काफी दूर है; पर अभी से बहुविवाह, बुर्का, हलाला, और कुर्बानी जैसी कुप्रथाओं के विरुद्ध मुसलमान बोलने लगे हैं। आशा है उनकी यह मुहिम भी शीघ्र पूरी होगी। चूंकि कोई भी सुधार तभी होता है, जब उसकी शुरुआत अंदर से हो है। तीन तलाक के विरुद्ध कानून इस मामले में मील का पत्थर बनने वाला है।
– विजय कुमार