जंग, दिल और दिमाग़ की

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misery-signals-of-malice-and-the-magnum-heart‘जब दिल ही टूट गया, हम जी कर क्या करेंगे ’ पुराना गाना है, पर शायद सबने सुना हो। दिल टूटने के बाद जी ही नहीं सकते, जब आपके पास ऐसा कोई विकल्प है ही नहीं, तो ये क्या कहना कि जी कर क्या करेंगे!

शायरों को थोड़ा सा जीव-विज्ञान का ज्ञान होता तो बहुत से बेतुके गीत न बनते जैसे ‘दिल के टुकड़े हज़ार हुए इक यहाँ गिरा इक वहाँ गिरा ’, दिल न हुआ काँच का गिलास हो गया, दिल मे तो एक मामूली सा छेद हो जाय तो बड़ा सा आपरेशन करवाना पड़ता है।

शायर और कवि तो दिल से ऐसे खेलते हैं, मानो दिल ना हो कोई खिलौना हो, ‘खिलौना जानकर तुम दिल ये मेरा तोड़े जाते हो’ जैसा गीत ही लिख डालते हैं।

गीत हों या संवाद ,फिल्म हो या टी.वी. धारावाहिक, उपन्यास हो या कहानी, नया हो या पुराना, दिल से ऐसे ऐसे काम करवाये जाते हैं जो हो ही नहीं सकते । गुर्दे की चोरी हो सकती है, क्योंकि वो दो होते हैं, एक चोरी हो जाय दूसरा पूरा काम संभाल लेता है, पर दिल निकालने से तो आदमी तुरन्त मर जायेगा , फिर भी हमारे बुद्धिजीवी कवि प्यार मे दिल चुराने की बात करते थकते नहीं,’ चुरा लिया है तुमने जो दिल नज़र नहीं चुराना सनम’ दिल चोरी होने के बाद नज़र यानि आँख चुराने के लियें कोई ज़िन्दा बचेगा क्या ? ये तो सीधे सीधे क़त्ल का मामला हो जयेगा !

एक और गाना याद आया ‘दिल विल प्यार व्यार मै क्या जानू रे’ सही कहा दिल के बारे मे कवि महोदय ने, दिल तो सिर्फ ख़ून को पूरे शरीर मे पम्प करके भेजता है प्यार व्यार जैसे काम तो दिमाग़ कुछ हारमोन्स के साथ मिलकर करता है, और कवि ठीकरा उस बेचारे मुठ्ठी भर नाप के दिल के सर फोड़ते हैं।

‘ ऐ मेरे दिले नादान तू ग़म से न घबराना’, अजी साहब ! नादान तो कवि हैं, दिल को तो घबराना आता ही नहीं, ये काम भी दिमाग़ का ही है। घबराने के लियें दिमाग़ को कुछ ज़्यादा ही रक्त की आवश्यकता पड़ती है, इसलियें दिल को तेज़ी से धड़कना पड़ता है वह तो बस दिमाग़ को घबराट के लियें तेज़ी से ख़ून भेजता है और कवि समझने लगते हैं दिल ही घबरा रहा है।

कभी कोई अंतर्द्वन्द हो तो लेखक दिल और दिमाग़ को आमने सामने लाकर खड़ा करने से भी नहीं चूकते। फिल्मों मे, टी.वी. धारावाहिकों मे एक ही किरदार आमने सामने खड़ा होकर बहस करता है। एक भावुक सा लगता है जो दिल से सोचता हुआ बताया जाता है और दूसरा थोड़ा तर्क करता है, व्यावहारिक सा होता है, वह दिमाग़ से सोचता है,जबकि भावनायें और तर्क दोनो ही दिमाग़ से ही उपजती हैं, दिल बेचारे को तो सोचना आता ही नहीं है।

जब कोई दुविधा होती है, किसी पात्र को तो दूसरा कोई पात्र आकर उसे दिल दिमाग़ पर एक भाषण दे डालता है कि ‘’भैया, दिल से सोच दिमाग़ की मत सुन, दिल से लिया गया निर्णय ही हमेशा सही होता है।‘’ अब लेखक दिल और दिमाग़ मे ही जंग शुरू करवा देते है कि दिल का ओहदा बड़ा है या दिमाग़ का, यह जंग एकदम बेमानी है ,दिल का काम दिमाग़ नहीं कर सकता और दिमाग़ का काम दिल नहीं कर सकता, इंसान दोनो के बिना जी ही नहीं सकता। दिमाग़ देखा जाय तो सोच पर ही नहीं शरीर पर भी नियंत्रण रखता है पर यदि कुछ सैकिंड भी दिल दिमाग को ख़ून न भेजे तो दिमाग़ को निष्क्रिय होते देर नहीं लगेगी। मेरे प्रिय लेखक भाई बहनो ! दिल और दिमाग़ की लड़ाई मत करवाइये, दोनो को अपना अपना काम करने दीजिये। दिल या दिमाग़ की लड़ाई मे सिर्फ डाक्टरों का ही फायदा होगा।

दिल और दिमाग़ के बीच सभी भाषाओं मे भ्रांतियाँ हैं। हिन्दी मे ‘हार्दिक प्रेम’,’ हार्दिक आशीर्वाद’ जैसे वाक्याँश हमेशा से प्रयोग हुए हैं, उर्दू मे ‘दिली ख्वाहिश’ और ‘दिल से मुबारकबाद’ कहने का रिवाज है। इंगलिश मे भी ‘ hearty congratulations’ कहा जाता है, जबकि प्यार बधाई और ख़्वाहिश सब दिमाग़ से जुड़ी हैं, दिल से नहीं। मेरे विचार से देश की अन्य भाषाओं और विदशों की भाषाओं मे भी ऐसे वाक्याशों का प्रयोग होता ही रहा होगा। अब इस विषय मे तो भाषावैज्ञानिकों को शोध करने की ज़रूरत है। जीव विज्ञान मे तो इस विषय मे कोई भ्रांति है ही नहीं। अतः मेरा मानना है कि अब इन वाक्याशों की जगह दिमाग़ या मस्तिष्क से जुड़े वाक्याँश तलाशने की ज़रूरत है।

‘दिमाग़ी आशीर्वाद’ या ‘मस्तिष्कीय प्यार’ भी जमा नहीं। मानसिक शब्द लोगों को मानसिक बिमारियों या मनोविकार की याद दिलाता है, अतः वह भी प्रयोग नहीं कर सकते।एक चीज़ होती है ‘मन’ जो मस्तिष्क मे ही कहीं छुपा बैठा होता है, उससे कोई वाक्याँश सोचते हैं -‘मन से आशीर्वाद’’ ‘मन से प्यार’ कैसा रहेगा ? मुझे तो ठीक लग रहा है। बस, थोड़ी आदत डालने की बात है!

मैने अपने कवि और लेखक भाई बहनो से दिल और दिमाग़ या हृदय और मस्तिष्क या heart और brain (मुझे और कोई भाषा नहीं आती है) के बारे मे काफ़ी चर्चा करली है। आशा है कि अब कोई भ्रम किसी को नहीं होगा, फिर भी यदि कोई शंका हो तो टौल -फ्री न. 1900-123456 से संपर्क करें ये हैल्पलाइन 24 घंटे सातों दिन उपलब्ध है। आप चाहें तो हमारी वैब साइट www.dildimag.com पर भी log in कर सकते हैं। हमारा E-mail ID dildimag@gmail.net है । हम इस विषय पर देश विदेश के जीववैज्ञानिकों और साहित्यकारों के साथ एक संगोष्ठी के आयोजन पर भी विचार कर रहे हैं। आप अपने विचार प्रतिक्रिया के बौक्स मे लिख देंगे तो हमे इस आयोजन को करने मे सुविधा होगी। यह विश्व स्तरीय आयोजन करने मे कुछ समय तो लगेगा इसलयें इसकी संभावित तारीख़ 1 अप्रैल 2013 सोची हुई है। सभी से सहयोग की अपेक्षा रहेगी।

6 COMMENTS

  1. एक अच्छा व्यंग्य…..लगता है हम कवि एवं शायर आपके प्रिय विषय हैं……. 😛

  2. बीनू जी,
    आपने बहुत अच्छा व्यंग्य लिखा है।
    विजय निकोर

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