भ्रष्टाचार, हमारा मूलभूत अधिकार

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बुजुर्गों का कहना है कि बेटे कब बड़े और बेटियां कब जवान हो जाती हैं, इसका पता ही नहीं लगता। यही हाल हमारे महान भारत देश का है। कब, किस दिशा में हम कितना आगे बढ़ जाएंगे, कहना कठिन है।

भारत में आजादी के बाद से ही उच्च शिक्षा पर बहुत जोर दिया गया है। सरकार केन्द्र की हो या राज्य की, सब हाथ-मुंह धोकर इसके पीछे पड़े हैं। उनका बस चले, तो पैदा होते ही बच्चे का नाम डिग्री कॉलिज में लिखवा दें; पर उच्च शिक्षा के इस अभियान के साथ-साथ कुछ चीजें और भी उच्चता को प्राप्त कर रही हैं। आप सोचेंगे कि मैं छात्रों की अनुशासनहीनता, छेड़छाड़, नकल या मोबाइल रोग की चर्चा करूंगा। जी नहीं। आज की बात का सम्बन्ध अध्यापकों से है।

असल में कुछ दिन पूर्व केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावडेकर ने बताया है कि देश में अस्सी हजार प्राध्यापक तीन या चार जगह से वेतन ले रहे हैं। ये ऊंची शिक्षा देते हैं, तो इनके वेतन भी ऊंचे ही हैं; पर बुरा हो आधार कार्ड बनाने वाले नंदन नीलकेणी और उसे सब जगह लागू करने वाले मोदी का, जिनके कारण यह चोरी पकड़ी गयी।

अब इससे आगे क्या होगा; ये जेल जाएंगे या जुर्माना देकर छूट जाएंगे; इनकी नौकरी का क्या होगा ? कुछ लोगों का मत है कि इनकी डिग्रियों की भी जांच होनी चाहिए। हो सकता है वहां भी ऐसा ही घपला हो। ऐसे में उन छात्रों का क्या होगा, जिन्हें इन महानुभावों ने पढ़ाया है। फर्जी प्राध्यापकों के निर्देशन में की गयी पी.एच-डी. और डी.लिट. भी तो फर्जी ही मानी जाएगी।

हमारे शर्मा जी हर बात को बिल्कुल नये तरीके से सोचते हैं। उनका कहना है कि नेता, पुलिस और सरकारी कर्मचारी तो वैसे ही बदनाम हैं; पर खिलाड़ी से लेकर कारोबारी तक, डॉक्टर से लेकर इंजीनियर तक, वकील से लेकर चपरासी तक, जिसे देखो वही भ्रष्टाचार में डूबा है। तो फिर बेचारे अध्यापकों पर ही गाज क्यों गिराई जा रही है। आखिर उनके बीवी-बच्चों को भी तो खाने-खेलने का हक है।

अखबार में लिखा था कि इन प्राध्यापकों ने काफी कम वेतन पर कुछ लोग रख लिये थे, जो इनकी जगह जाकर पढ़ाने की खानापूर्ति करते थे। प्राध्यापक महोदय हफ्ते में एक बार जाकर रजिस्टर में पूरे हस्ताक्षर कर देते थे। इस प्रकार यह फर्जीवाड़ा हो रहा था।

शर्मा जी का कहना है कि पुराने समय में देवी-देवताओं और राक्षसों के कई हाथ होते थे। इससे वे एक साथ कई काम कर लेते थे। जब उस समय ऐसा हो सकता था, तो अब क्यों नहीं हो सकता ? छात्र को पढ़ना ही तो है। उसे असली प्राध्यापक पढ़ाए या नकली ? बल्कि अनुभव ऐसा है कि सिर पर तलवार लटकी होने से नकली अध्यापक ज्यादा गंभीरता और मेहनत से पढ़ाते हैं। जबकि पक्की नौकरी के कारण असली प्राध्यापक इस ओर कुछ ध्यान नहीं देते। इसलिए सरकार को चाहिए कि हर जगह असली की जगह नकली प्राध्यापक रख ले। इससे खर्चा कम होगा और पढ़ाई अच्छी। यानि कम चीनी में ज्यादा मीठा।

– लेकिन शर्मा जी, इस तरह तो आप भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप दे रहे हैं ?

–  देखो वर्षों से क्रिकेट में दलाली हो रही है। कुछ लोगों का कहना है कि इसे वायदा और शेयर बाजार की तरह मान्यता दे देने से लोग खुलेआम यह करेंगे और सरकार को टैक्स मिलेगा। मैच फिक्सिंग को भी इस श्रेणी में ला सकते हैं। जैसे फिल्मों के अंत में कई रहस्य खुलते हैं, ऐसे ही मैच में भी अंत में जाकर पता लगे कि ये किसके पक्ष में फिक्स हुआ था। इससे दर्शक, खिलाड़ी और सरकार तीनों का लाभ होगा। जो काम सदियों से हो रहा है, उससे लड़ने की बजाय उसके साथ चलने का तरीका ढूंढना चाहिए। हमारी पार्टी के नेता तो यही कर रहे हैं। हो सके, तो मोदी को भी ये समझा दो।

– लेकिन शर्मा जी, एक प्राध्यापक कई जगह से वेतन ले, ये तो गलत है।

– कैसी पागलों जैसी बातें कर रहे हो वर्मा ? जब एक व्यापारी कई जगह व्यापार कर सकता है, तो अध्यापक कई जगह क्यों नहीं पढ़ा सकते ? गनीमत है कि असली हों या नकली, पर ये कुछ पढ़ा तो रहे हैं। देश के अंदरूनी भागों में हजारों स्कूल ऐसे हैं, जहां न छात्र है न अध्यापक; पर हर महीने लाखों रु. वेतन निकल रहा है।

मुझे शर्मा जी से और ज्यादा सिर मारना उचित नहीं लगा। मैं समझ गया कि जिस आदमी ने दफ्तर में सदा गलत-सलत काम किये हों, वह भ्रष्टाचार का विरोध नहीं कर सकता। उनका बस चले, तो भ्रष्टाचार को जनता के मूल अधिकारों में शामिल करवा दें। अब तक संविधान में सैकड़ों संशोधन हुए ही हैं, तो एक और सही। जय हो।

– विजय कुमार,

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