देश चाहता है मजबूत विपक्ष

विपक्ष

oppositonराष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का ओज
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त अपनी कविता ‘उद्बोधन’ में लिखते हैं :-
‘‘हम हिंदुओं के सामने आदर्श जैसे प्राप्त हैं-
संसार में किस जाति को किस ठौर वैसे प्राप्त हं?
भव सिन्धु में निज पूर्वजों की रीति से ही हम तरें,
यदि हो सके वैसे न हम तो अनुकरण तो भी करें।।
क्या कार्य दुष्कर है भला यदि इष्ट हो हमको कहीं,
उस सृष्टिकत्र्ता ईश का ईशत्व क्या हममें नही?
यदि हम किसी भी कार्य को करते हुए असमर्थ हैं-
तो उस अखिल कत्र्ता पिता के पुत्र ही हम व्यर्थ हैं।।’’
यह ‘उद्बोधन’ कवि ने अपने काल में हिंदू जाति के संदर्भ में दिया है। कवि के पास ओज होता है, और वह अपने ओज से राष्ट्रवासियों में तेज भरने का कार्य करता है। एक प्रकार से उसके पास इतनी ऊर्जा होती है कि उससे वह समस्त राष्ट्रवासियों को ही ऊर्जान्वित कर डालता है। इसलिए कवि की कविता और उसके शब्दों का विशेष महत्व होता है। इस कविता में जहां वत्र्तमान के प्रति आह्वान है वहीं अतीत के प्रति सम्मान है, श्रद्घा है और है गौरवानुभूति। जहां ये तीनों बातें एक साथ होती हैं वहां प्रेरक इतिहास होता है, प्रेरक अतीत होता है।

बना रहा एक ही लक्ष्य
जैसे सल्तनत काल में देश की हिंदू जाति अपने पूर्वजों के सम्मान और इतिहास के स्मारकों के लिए संघर्षरत रही वैसे ही उसका प्रतिरोध मुगल काल में मुगल बादशाहों के विरूद्घ भी यथावत और पूर्ववत जारी रहा। हमने बाबर के काल में राम-जन्मभूमि को लेकर संघर्षों और आंदोलनों पर सूक्ष्म सा प्रकाश डाला है। तथ्य बताते हैं कि राममंदिर के विध्वंस को लेकर सारा देश ही आंदोलित हो उठा था। उदाहरण ऐसे भी हैं कि लोगों ने किसी राजा या शासक की भी प्रतीक्षा नही की। अपनी सेना अपने आप बनायी, अपना नेता अपने आप चुना और निकल पड़े-संघर्ष की राह पर-राम मंदिर को या राम जन्मभूमि को पुन: मुक्त कराने के लिए।

शत्रु लेखकों ने क्रांति की भावना को उठाकर फेंक दिया
पूरे देश में क्रांति मच रही थी-हिंदू उपद्रवी, हिंसक, विप्लवी और उग्र हो उठा था। फलस्वरूप वह नित्य बलिदान दिये जा रहा था और विदेशी शासकों का यहां रूके रहना कठिन होता जा रहा था। अपनी स्वतंत्रता को लेकर हिंदू के उपद्रवी, हिंसक और विप्लवी या उग्र होने के स्वभाव को इतिहास में उल्लेखित नही किया गया है। उसके द्वारा मचाई गयी राष्ट्रीय क्रांति की सारी भावना को उठाकर बाहर फेंक दिया गया है।
हिंदू को उपद्रवी आदि के स्थान पर दब्बू और सर्वथा मौन रहने वाले ऐसे निरीह प्राणी के रूप में निरूपित किया गया है कि जैसे उसे अपने पूर्वजों के सम्मान और इतिहास बोध का तनिक भी ज्ञान नहीं था। इसलिए हिंदू क्रांति की तत्कालीन ज्वाला को उन इतिहास लेखकों ने यह कहकर हमारी दृष्टि से ओझल कर दिया कि हिंदू तो सहिष्णु है, और उसने अपनी सहिष्णुता का परिचय देते हुए नये शासक बाबर और उसके नये राजवंश (मुगल वंश) को बड़ी सहजता से स्वीकार कर लिया। इस सहिष्णुता को हमारे संदर्भ में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है जैसे हिंदू स्वभाव से ही दब्बू होता है और राष्ट्रभक्ति उसके भीतर तनिक भी नही होती, वह क्रूर से क्रूर शासक को भी अपने लिए स्वीकार कर लेता है।

इतिहासकारों के अत्याचार
इसके साथ ही साथ बाबर को एक उदार और धर्मसहिष्णु शासक के रूप में स्थापित किया गया है। हमें हमारी सहिष्णुता, उदारता और मानवता के विषय में इतना अधिक समझाया गया है कि हम अपनी मिथ्या प्रशंसा के भंवरजाल में फंसकर अपने पूर्वजों के बलिदानी और गौरवपूर्ण इतिहास को ही उपेक्षित कर गये, अथवा विदेशियों के द्वारा हमारे इतिहास के विषय में रचे गये षडय़ंत्र को हम समझकर भी पचा गये। हमारे साथ यह घटना कुछ वैसे ही घटी है जैसे समाज में दो लोगों या दो भाइयों के मध्य के मध्य हुए संपत्ति विवाद को लेकर जब पंचायत आहूत की जाती है, तो उन दोनों में से जो अधिक उग्र और दुष्ट होता है उसे लोग उग्र और दुष्ट न कहकर दूसरे से ही कहते हैं कि-‘देखिये! तुम तो समझदार हो और सब बातों को समझते हो।
हम जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति आपकी अपेक्षा समझदार नही है, वह दोषी भी है, परंतु फिर भी हम कहते हैं कि तुम ही मान जाओ और उसे ‘थोड़ा और अधिक’ दे दो।’ कुल मिलाकर पंच यही न्याय करते हैं कि जो पहले ही उत्पीडि़त है-उसी को न्याय के नाम पर और अधिक उत्पीडि़त कर जाते हैं।
वास्तव में यह उत्पीडऩ है और उत्पीडऩ को समाज में लोग ‘पंच’ होकर बढ़ाते रहते हैं। यदि ये पंच लोग उग्र और दुष्ट को उग्र और दुष्ट कहना सीख लें, और उसे कठोर शब्दों में बतायें कि वास्तव में दोषी तू है और तुझे अपने किये हुए पर प्रायश्चित स्वरूप दूसरे व्यक्ति से क्षमायाचना करनी चाहिए तो हमारे समाज की कई विकृतियों का सहज समाधान हमें मिल सकता है।
यही बात हमें अपने इतिहास के संबंध में माननी और जाननी चाहिए। हमने इतिहास में उग्र और दुष्ट पक्ष को उग्र और दुष्ट न कहकर स्वयं अपराध करते हुए सहज और सरल व्यक्ति के साथ अन्यायपूर्ण उत्पीडऩ किया है, जो वास्तव में उग्रता और दुष्टता का निर्लज्ज प्रदर्शन कर रहा था।

हमने लेखनी की तलवार से समझौता कर लिया
हर इतिहासकार उसी पंच की भूमिका में है जो सहज और सरल व्यक्ति से यह कहता है कि-‘तुम तो समझदार हो, तुम ही मान जाओ।’… और हम मानते गये। हमने तलवार से शत्रु का सामना किया और अपने तलवार धर्म से कभी समझौता नही किया, परंतु लेखनी की तलवार पर हम समझौता कर गये, और उस समझौता करने या मानते चले जाने का परिणाम क्या निकला? यही कि आज हमारी पीढिय़ां ही हमसे प्रश्न कर रही हैं कि उग्रता और दुष्टता का प्रतिरोध हमने लेखनी के माध्यम से अपने इतिहास का पुनर्लेखन करके क्यों नही किया? क्या हम परंपरागत रूप से कायर रहे हैं? इत्यादि।
जिस इतिहासकार ने हिंदू की सहिष्णुता आदि गुणों को इस प्रकार प्रस्तुत किया कि उसका यह गुण ही उसके लिए मिथ्या प्रशंसा का कारण बन गया, जिसने उसे इतिहास में दब्बू और कायर बना कर रख दिया। ऐसे इतिहासकार के पास तो इस प्रश्न का कोई उत्तर है ही नही। पूरा हिंदू समाज भी इस पर अपनी वत्र्तमान पीढ़ी के सामने मौन खड़ा रह जाता है। यह स्थिति हमारे लिए सचमुच लज्जास्पद है।

हमने इतिहास को यूं लिखा और यूं पढ़ा
हमने मिथ्या बातों को पढऩा आरंभ कर दिया। जैसे कि एक इतिहासकार हमें बताता है-‘बाबर रूढि़वादी सुन्नी था, पर वह धर्मांध नही था। न ही वह इस्लाम के धर्माचार्यों से प्रेरित होता था। जब ईरान और तूरान में शियाओं और सुन्नियों के मध्य भयानक पंथगत लड़ाईयां होती थीं तब भी उसका दरबार धार्मिक और पंथिक टकरावों से मुक्त था। उसने सांगा से अपनी लड़ाई को ‘जिहाद’ ठहराया और जीतने के पश्चात गाजी की उपाधि धारण की, पर इसके स्पष्ट रूप से राजनीतिक कारण थे।’
दोषी पक्ष की उग्रता और दुष्टता का कितना अच्छे ढंग से बचाव किया गया है। इतिहास के न्यायालय में इतिहासकार स्वयं ही दोषी का अधिवक्ता बन गया है। यही इतिहासकार आगे कहता है-‘यद्यपि बाबर का काल युद्घों का काल था-पर मंदिरों के विध्वंस की कुछ ही मिसालें मिलती हैं। इसका कोई प्रमाण नही है कि स्थानीय सूबेदारों द्वारा संभल तथा अयोध्या में बनवायी गयी मस्जिदें हिंदू मंदिरों को तोडक़र बनवायी गयी थीं।’
(संदर्भ : ‘मध्यकालीन भारत’, सतीशचंद्र, पृष्ठ 205)
‘क्या कहती सरयू धारा?’ (श्रीराम जन्मभूमि की कहानी) के लेखक श्री प्रताप नारायण मिश्र ने राममंदिर के विध्वंस के पश्चात जनसाधारण की ओर से और देश के साधु-संतों की ओर से किये गये प्रतिशोधात्मक आंदोलनों की ऐसी रूपरेखा खींची है कि भारत का तत्कालीन समग्र हिंदू समाज ही अपने वैभव और गौरव के प्रतीक राममंदिर को लेकर बहुत ही अधिक संवेदनशील था?

मीरबांकी खान को बाबर ने भेज दिया था लंबी छुट्टी पर
उन दिनों राजा से लेकर रंक तक और मंत्री से लेकर संतरी तक हर व्यक्ति आक्रोश और प्रतिशोध की भावना से भर उठा था। इनके आक्रोश और प्रतिशोध के भाव को देखकर बाबर को मीरबांकी खान को शीघ्र ही यहां से स्वदेश छुट्टी पर भेजना पड़ गया था। इसके पीछे बाबर का उद्देश्य भारत के हिंदू समाज के आक्रोश को शांत करना था, क्योंकि राममंदिर का विध्वंसक मीरबांकी खान हिंदू जनमानस को फूटी आंख भी नही सुहा रहा था। हिंदुओं के हृदय में प्रतिशोध की यह भावना ही उन्हें अपना अस्तित्व बचाये रखने में सहायक बनी।

मिलता है सेर को सवा सेर
वीर सावरकर का कथन है कि –‘‘यह एक अकाट्य सत्य है कि यदि विद्रोह, रक्तपात और प्रतिशोध का भय (विदेशी आक्रांता के मन में) नही होता तो लूट-खसोट और अत्याचारों के पाश में जकड़ी वसुंधरा कसमसाती ही रहती। यदि अत्याचारी और अन्यायियों को आज या कल, शीघ्र अथवा विलंब से प्रकृति द्वारा प्रतिशोध ले लिये जाने का भय न होता तो इस भूमंडल पर जार (रूस का तानाशाह) सरीखे तानाशाहों और रक्त पिपासुओं का ही दौर-दौरा रहता। किंतु प्रत्येक ‘हिरण्यकशिपु’ को नरसिंह, प्रत्येक ‘दु:शासन’ को भीम अत्याचारी पर नियंत्रण के लिए सेर को सवा सेर मिलता है। इसी से तो विश्व में यह भावना विद्यमान रहती है कि अत्याचार और अनाचार सदैव नही रह सकते। अत: प्रतिशोध का सीधा सा अर्थ है अन्याय का नाश करने के लिए प्राकृतिक प्रक्रिया।’’
(संदर्भ : 1857 का स्वातंत्रय समर, पृष्ठ 254)
बात स्पष्ट है कि भारतवर्ष में रावण के अत्याचारों के विनाश के लिए उसी के काल में राम खड़े हैं तो कृष्ण कंस का विनाश करने के लिए उसी के साथ खड़े हैं। इसी प्रकार हिरण्यकशिपु का नाश करने के लिए नरसिंह खड़े हैं।
तब किसी पंच ने या इतिहासकार ने राम से यह नही कहा कि-‘गलती तो रावण ने ही की है, जो तुम्हारी पत्नी को उठा ले गया, पर इसके उपरांत भी हम तुमसे ही यह कहना उचित मानते हैं कि तुम सीता को ‘शांति’ बनाये रखने के दृष्टिगत रावण को ही दे दो।’
हमारे यहां तो दुष्ट को दुष्ट और मर्यादा पुरूषोत्तम को मर्यादा पुरूषोत्तम कहते आने की पुरानी परंपरा है। हमने उन रावणों की कब्रों को ‘पीर’ के रूप में पूजने की भूल कभी नही की जो जीवित रहते हमारे ही पूर्वजों को काटते रहे या हमारी ही माता-बहनों का शीलभंग करते रहे और मृत्यु के उपरांत उनके लोगों ने उन्हें पूजने के लिए पीर के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया। इसके विपरीत हमने हर रावण का पुतला दहन करने की परंपरा का प्रचलन किया और संदेश दिया कि दुष्टता कहीं पुतले के या बिजूखे के रूप में भी न दिखने पाये।

राष्ट्र पुरूष से विराट पुरूष बनाया हमने राम को
हमने मंदिरों में मर्यादा पुरूषोत्तम को बैठाया और उन्हें राष्ट्रपुरूष से ‘विराट पुरूष’ का रूप देकर संपूर्ण भूमंडल के लिए पूजनीय और वंदनीय बनाया, इसके पीछे हमारा उद्देश्य यही रहा कि मानवता के लिए जीने वाले लोग और न्याय करने में सदा तत्पर रहने वाले शासक लोग ही मानवता के लिए पूजनीय और वंदनीय हो सकते हैं। इसके विपरीत जिन लोगों ने भारत में आकर पहले दिन से ही मानवता के प्रति घोर अपराध किये और निरपराध लोगों का रक्त बहाने में तनिक भी संकोच नही किया, उन्हें भारत में भला कैसे पूजनीय और वंदनीय माना जा सकता था।

जौहर बन गया था ‘अग्निपरीक्षा’
हमारे अपने राम की मर्यादा को जब विदेशियों ने यहां आकर तार-तार करना आरंभ किया तो नारी के रूप में ‘सीता’ स्वयं अपनी अस्मिता की रक्षार्थ उठ खड़ी हुई। क्योंकि वह समझ चुकी थी कि एक ‘सीता’ के हरण के पश्चात उसे कैसे ‘अग्निपरीक्षा’ से गुजरना पड़ा था। मध्यकालीन भारत की ‘सीता’ ने ‘रावण वध’ के पश्चात ‘अग्निपरीक्षा’ देना उचित नही समझा, अपितु उसने रावण के हाथ लगने से पूर्व ही ‘अग्निपरीक्षा’ दे डाली। उसने जौहर का मार्ग अपना लिया और हजारों-लाखों सीताओं ने रावण के सोने के मृग के मायावी रहस्य को समझकर उसे रावण के लिए ही छोड़ दिया। जौहर करती अनेकों सीताओं की चिता पर जब रावण कभी ‘अलाउद्दीन’ और कभी ‘बहादुरशाह’ के रूप में पहुंचा तो उस दुष्ट आततायी को एक ऐसी ‘लक्ष्मण-रेखा’ (जलती चिताओं के रूप में) खिंची मिली कि वह उसे पार करने का साहस ही नही जुटा पाया। हताश और निराश होकर ऐसे कितने ही रावण लौट गये, जिन्हें ‘सीताहरण’ का अवसर ही नही मिला। समय के अनुसार सीता कितनी सजग हो गयी थी-यह एक इतिहास है, और हमें इस इतिहास पर वास्तव में गर्व होना चाहिए।

जौहर की वंदनीय परंपरा
इस जौहर की परंपरा पर प्रकाश डालते हुए वीर सावरकर लिखते हैं-‘‘युद्घ में पराक्रम प्रदर्शित करते हुए भी जब कभी विदेशी अथवा विधर्मी आक्रमणकारी के सम्मुख पराजय स्वीकार करने का दुर्भाग्यपूर्ण क्षण उपस्थित होता था, उस समय विदेशी विधर्मी आक्रमणकारी की शरणागति स्वीकार करने की अपेक्षा स्वधर्म और स्वाभिमान की रक्षा के लिए आत्माहुति दे देना श्रेयस्कर समझा जाता था। पुरूष जब समरांगण में शत्रु का संहार करते हुए ‘वीरगति’ को प्राप्त होते थे, तब उनकी वीरांगनाएं अपने बच्चों को हृदय से लगाकर ‘जयहर जयहर’ का घोष करती हुई स्वयं के द्वारा प्रज्ज्वलित की गयी अग्नि शिखाओं में प्रवेश कर भस्मसात हो जाती थीं। इसी को ‘जौहर’ कहा जाने लगा। वास्तव में यह वीरता की, पराक्रम की, स्वाभिमान रक्षक क्षात्रधर्म की और तेजस्विता की पराकाष्ठा ही तो थी।
जिन्होंने ‘जौहर व्रत’ स्वीकार कर अग्नि की लपटों का कवच धारण कर लिया, उन्हें अपमानित करने या दास बनाने का, अथवा स्पर्श करने का भी साहस किसी सिकंदर अलाउद्दीन अथवा सलीम को तो क्या शैतान को भी नही हो सकता था। उन तेजस्वी अग्नि शिखाओं के निकट पहुंचते ही उनकी प्रखरता से शत्रु हतप्रभ होकर निराश हो जाता था।’’
(‘भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ,’ पृष्ठ-26)
स्वाभिमान, सम्मान, गौरव और स्वसंस्कृति-धर्म की रक्षार्थ-इतनी उच्च वीरता के उत्कृष्ट प्रदर्शन का नाम ही तो इतिहास है।

आशा का नाम इतिहास है
पुराने समय की बात है। एक पथिक अपने पाथेय की प्राप्ति के लिए दस दिन से पैदल यात्रा कर रहा था।
लक्ष्य था कि अभी दूर ही जान पड़ रहा था, पर वह भी रूकने का नाम नही ले रहा था। बहुत दूर निकल जाने पर मार्ग में उसे चार बूढ़ी महिलाएं दिखाई दीं। जब वह पथिक उन महिलाओं के निकट आया तो उसने उनसे नमस्ते की।
बूढ़ी महिलाओं ने नमस्ते का उत्तर तो दे दिया, पर वे उसकी नमस्ते को लेकर परस्पर झगडऩे लगीं। उनमें से प्रत्येक महिला कहती थी कि इस पथिक ने नमस्ते मुझसे की है, दूसरी कहती कि नही मुझसे की है।
तब उनमें से एक महिला ने कहा कि-चलिए! हम पथिक से ही पूछ लेते हैं कि इसने हम में से किसे श्रेष्ठ और वरिष्ठ मानते हुए नमस्ते की थी?
इस पर इस महिला ने जाते हुए पथिक को आवाज देकर रोक लिया और अपने निकट आने का संकेत उसे किया।
पथिक चारों महिलाओं के निकट आ गया। तब आवाज लगाने वाली महिला ने उसे बताया कि हम चारों इस बात पर झगडऩे लगी हैं कि तुमने हममें से किसे श्रेष्ठ और वरिष्ठ मानकर नमस्ते की थी?
तब उस पथिक ने उन चारों का परिचय लेना चाहा। उसने पहली बुढिय़ा से कहा-माताजी, आपका क्या नाम है? इस पर उस बुढिय़ा ने कहा-बेटा मेरा नाम भूख है। पथिक ने कहा-‘‘माताजी, आप स्वयं को औरों से बड़ा क्यों मानती हो?’’
तब बुढिय़ा ने कहा-‘‘बेटा, संसार में भूखा व्यक्ति बड़े से बड़ा पाप और अन्याय कर सकता है।’’ तब पथिक ने कह दिया-‘‘माताजी संसार की अधिकांश जनता नित्यप्रति भूखे पेट सोती है, संसार के सारे अन्याय और अत्याचार यही कराती है, यह मानवता की जीत न होकर हार है। इसलिए तुम तो बड़ी नही हो।’’
तब दूसरी बुढिय़ा से उसने कहा-‘माताजी! आपका क्या नाम है? और तुम स्वयं को कैसे बड़ा मानती हो?’
तब उस बुढिय़ा ने अपना नाम ‘प्यास’ बताया। कहने लगी कि भूख के बिना तो व्यक्ति जी सकता है पर मेरे बिना तो कोई भी प्राणी जी नही सकता। बड़ी बड़ी नहरें बांध और तालाब इत्यादि का निर्माण व्यक्ति मेरी तृप्ति के लिए ही करता है।
तब उस पथिक ने कहा कि-‘‘इतने पुरूषार्थ और उद्यम के उपरांत भी व्यक्ति की प्यास बुझी कहां है? आज भी करोड़ों लोग प्यासे हैं। स्पष्ट है कि भूख की भांति तुम भी लोगों की समस्या का समग्रता से समाधान नही कर सकी हो।’’
तब तीसरी बुढिय़ा से उसने वही प्रश्न किया तो उसने अपना नाम नींद बताया। वह कहने लगी कि बड़े-बड़े योद्घा भी युद्घ के पश्चात या बीच में ही थकने पर उन्हें मेरी आवश्यकता पड़ती है।
तब पथिक ने कहा-‘माता तुम भी निरर्थक ही अपने बड़े होने का भ्रम पालती हो, क्योंकि तुमने तो बहुतों को हजारों वर्षों की नींद में ऐसा सुला दिया कि वे अपनी निजता को ही भूल बैठे।’
तब उसने चौथी बुढिय़ा से भी वही प्रश्न किया, तो उसने कहा कि ‘मेरा नाम आशा है। मैं किसी भी प्रकार से हारे थके व्यक्ति को संबल देती हूं और उसे हर स्थिति परिस्थिति में संघर्ष करने की प्रेरणा देती हूं।’
तब वह पथिक प्रसन्नता से उछल गया। बोला-‘माते! पिछले दस दिन से भूखा, प्यासा और थका मांदा (उनींदा) होकर भी अपने लक्ष्य की ओर बढऩे की प्रेरणा अंतत: मुझे तुमसे ही मिल रही है, इसलिए तुम सबसे श्रेष्ठ हो। अत: मैंने तुम्हें ही नमस्ते की थी।’

हम भी शिक्षा लें
एक पथिक आशा को नमस्ते कर सकता है, तो हमें भी अपने उन आशावादी आर्य पूर्वजों को ‘नमस्ते’ करनी ही चाहिए जिन्होंने भूख, प्यास, अत्याचार और अपमान के 1200 वर्षों से अधिक के काल को केवल आशावादी रहकर काट दिया और हमें ‘उजालों का सम्राट’ बना दिया। धन्य हैं-हमारे ऐसे पूर्वज और उनके बलिदान।
कवि ने कितना सुंदर कहा है-
‘‘कितने शहीद गुमनाम रहे,
कर गये मौनव्रती महाप्रयाण
मांगा नही मोल शहादत का
वह मनुष्य नही थे, महाप्राण
न लिखी कभी कोई आत्मकथा, न रचा गया कोई वांग्मय
चुपचाप जहां में आए थे,
चुपचाप जहां से विदा हुए
थी आंखें में तेरी ही छवि,
तेरा ही असर तेरा पयाम
हे! राष्ट्रध्वज तुझे शत-शत प्रणाम।’’
अपने केसरिया ध्वज के लिए ऐसे प्राण देने वालों को हम सबका कोटिश: प्रणाम।
क्रमश:

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