दोहे

अविनाश ब्यौहार

मानवता कुबड़ी हुई, पैसा सबका बाप।
मात, पिता, भाई, बहिन, झेल रहे संताप।।

दफ्तर सट्टाघर हुए, पैसा चलता खूब।
अब बरगद के सामने, तनी हुई है दूब।।

पुलिस व्यवस्था यों हुई, सेठ हो गए चोर।
न्याय व्यवस्था तो हमें, करती है अब बोर।।

जनता तो नाराज है, राजनीति है भ्रष्ट।
मौज मस्तियों को मिले, फिर अनचाहे कष्ट।।

ऐसी दुनिया देखकर, रोने लगे कबीर।
असहनीय थी वेदना, कौन बँधाए धीर।।

कवि तो कविता कह गए, तुलसी हों या सूर।
दुनिया माने न माने, थे आँखों के नूर।।

अविनाश ब्यौहार
रायल एस्टेट कटंगी रोड
जबलपुर

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