साहस को पहाड़ से ऊंचा दिखाती है ‘मांझी- द माउंटेन मैन’

 

कलाकार: नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, तिग्मांशु धूलिया, गौरव द्विवेदी, प्रशांत नारायण
निर्माता: नीना लथ गुप्ता, दीपा साही

निर्देशक: केतन मेहता
लेखक: केतन, अंजुम रजबअली, महेन्द्र जाखड़

संगीत: संदेश शांडिल्य, हितेश सोनिक
स्टार: 4

manjhi the mountain manअपने मुख्यमंत्री रहते जीतन राम मांझी ने जब यह स्वीकार किया था कि वे मुहसर जाति से हैं और अपनी गरीबी में उन्होंने चूहे मार कर खाए हैं तो सहसा विश्वास नहीं हुआ था किन्तु केतन मेहता की ‘मांझी- द माउंटेन मैन’ देखकर यकीन हो गया कि बिहार में जातिवाद और गरीबी की जड़ें कितनी गहरी थीं। ‘मांझी- द माउंटेन मैन’ दशरथ मांझी की सच्ची कहानी पर बनाई गई फिल्म है जिसके रिलीज़ होने का समय भी बिहार चुनाव के नजदीक है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के डीएनए पर सवाल उठाए थे और राजनीति से परे बिहार का डीएनए मेहनतकश रहा है। 1934 में पैदा हुए दशरथ मांझी बिहार के गया जिले के एक दृढ़संकल्पी व्यक्ति थे जिन्होंने अकेले ही पहाड़ काटकर रास्ता बना दिया था। दशरथ मांझी को गहलौर पहाड़ काटकर रास्ता बनाने का जूनून तब सवार हुआ जब पहाड़ के दूसरे छोर पर लकड़ी काट रहे अपने पति के लिए खाना ले जाने के क्रम में उनकी पत्नी फगुनी पहाड़ के दर्रे में गिर गई और इलाज के अभाव में उसने दम तोड़ दिया। दशरथ मांझी ने संकल्प लिया कि वह अकेले दम पर पहाड़ के बीचों बीच से रास्ता निकालेंगे और 22 वर्षों की सतत साधना के पश्चात उन्होंने असंभव कार्य कर दिखाया।
कहानी: फिल्म की कहानी खून से सने कपड़े पहने दशरथ (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) से होती है जहां वहां पहाड़ के सामने सीना तान के खड़ा है और कहता है ‘बहुत अकड़ है न तोरे मा, देख तेरी अकड़ कैसे तोड़ते हैं।’ इसके बाद फिल्म फ्लैशबैक में चलती है और जातिवाद की जकड़न में कैद बिहार की गरीबी और जमींदारों के आतंक से रूबरू करवाती है। अपने पिता की जमींदार को रेहन की पेशकश पर दशरथ गांव छोड़कर भाग जाता है और 7 साल बाद जब वह वापस आता है तबतक सरकार छुआछूत को खत्म करने का कानून पास कर चुकी है। हालांकि गांव के परिवेश में अब भी कोई अंतर नहीं आया है। बचपन के ब्याह दिए गए दशरथ को पता चलता है कि उसकी पत्नी फगुनिया (राधिका आप्टे) है तो वह उसे ससुराल के विरोध के बावजूद उठा लाता है। दोनों हंसी-ख़ुशी जीवन यापन करते हैं कि अचानक एक हादसे से दशरथ की जिंदगी का मकसद बदल जाता है। फिल्म की कहानी सभी को पता है लेकिन सिनेमाई परदे पर इसे देखकर महसूस करना अद्भुत है।
निर्देशन: केतन मेहता ने दशरथ मांझी की कहानी को सामने लाकर समाज के सच्चे नायक और देश के रत्न से हमारा परिचय करवाया है। हालांकि ऐन बिहार चुनाव के पहले इस फिल्म को लाकर उन्होंने दशरथ मांझी को राजनीतिक ब्रांड बना दिया है जिसे भुनाने की कोशिश सभी दल कर रहे हैं। महादलित दशरथ मांझी के नाम पर एकजुट हो सकते हैं इसका अंदाजा जीतन राम मांझी से लेकर पप्पू यादव तक; सभी को है। यह बात और है कि जीते-जी किसी सरकार ने दशरथ मांझी के त्याग को नहीं समझा। इससे हास्यास्पद बात और क्या होगी कि जिस पहाड़ को काटकर वे रास्ता बनाने की जिद पकडे थे, नितीश सरकार ने उनकी मौत के 4 साल  बाद वहां पक्की सड़क का निर्माण करवाया। केतन मेहता ने फिल्म के माध्यम से राजनीति की नंगाई को सामने रखा है जो खून खौला देती है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इमरजेंसी से पहले गहलौर में आम सभ लेने आती हैं और जब मंच टूटने लगता है तो दशरथ मांझी और उसके साथी अपना कंधा देकर उनकी जान बचाते हैं मगर घमंड में चूर इंदिरा न तो भाषण देना बंद करती हैं और न भाषण के बाद जख्मी लोगों का हाल पूछती हैं। दशरथ मांझी के त्याग और बलिदान को भी वे मुस्कुराकर छोटा कर देती हैं। केतन मेहता के कुछेक ऐसे प्रसंग यकीनन आगामी चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

अभिनय: नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने अपने जीवंत अभिनय से दशरथ मांझी को आदरांजलि दी है। उनकी आंखों की भाषा, भाव-भंगिमा, गुस्सा सब कुछ दशरथ मांझी के साक्षात दर्शन करवा देता है। हां, प्रणय को जिस तरह दैहिक सुख तक समेटा गया है वह अखरता है और नवाज उन दृश्यों में सहज भी नहीं लगते। राधिका आप्टे ने अपनी भूमिका में ग्रामीण परिवेश को आत्मसात कर जान डाल दी है। फिल्म इंडस्ट्री में उन जैसी प्रतिभावान अभिनेत्री कम ही हैं। बेदर्द जमींदार के किरदार में तिग्मांशु धूलिया जमे हैं। बेबस और गरीब किसान से लेकर नक्सली बनने की भूमिका को प्रशांत नारायण ने बखूबी निभाया है। बाकि कलाकार भी ठीक हैं।

गीत-संगीत: ‘मांझी- द माउंटेन मैन’ का संगीत फिल्म के मूड के हिसाब से अच्छा है। बीच-बीच में उस दौर के गानों का प्रयोग और कहानी की रफ़्तार में सामंजस्य है।

सारांश: ‘मांझी- द माउंटेन मैन’ देखकर आपको लगेगा कि गरीब और आम आदमी किस तरह राजनीतिक कुचक्र में फंसकर बेबस हो जाता है? सरकारें किस तरह गरीबी हटाओ का नारा देकर भी गरीबों की गरीबी दूर नहीं कर पातीं? माझी की यह बात कि भगवान भरोसे मत बैठो, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो; जीवन में कर्म करने की प्रेरणा देती है। फिल्म हर क्लास के दर्शक की कसौटी पर खरी उतरेगी। खुश होने पर मांझी अक्सर बोलता था- शानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद। फिल्म देखने के बाद आप भी यही बोलेंगे। मेरी राय यही है कि पहली फुर्सत में मांझी के साहस को देख डालिए।

सिद्धार्थ शंकर गौतम

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

2 COMMENTS

  1. महोदय ,
    मांझी की कहानी सु नी थी तो बहुत आश्चर्य हुआ था की क्या ऐसा भी कभी हो सकता है —लेकिन यह जान कर की किस तरह से इस एक इंसान ने इतना बड़ा काम कर दिखाया —-सोच कर ही हैरानगी होती है ——सच में अगर कोई इंसान अपने मन मेंन ठान ले तो कुदरत भी साथ देती है—भगवान भी —क्यों कि भगवान भी उनही की मदद करता है जो अपनी मदत खुद करते हैं ——-आज हर इंसान को यह सोचने पैर मजबूर होना होगा की जाट पात के चक्कर से ऊपर उठ कर देश के लिय्रे कुछ करें ओर सोचे —-और इस में फिलम ज गत हमारी बहुत मदद कर सकता है —इसी तरह कोई अच्छी अच्छी फिलमे बना कलर लोगों को प्रोत्साहित केर के एक नै लहर लाइ जा सकती है —–
    धन्यवाद

  2. इस फिल्म को भारत की अधिकृत एंट्री के तौर पर ऑस्कर के लिए भेजा जाये! उम्मीद है कि इस यथार्थ पर आधारित फिल्म को वहाँ उचित सम्मान मिलेगा!हो सके तो केतन मेहता को इस फिल्म का सब टाइटल युक्त प्रिंट तैयार कराकर अकादमी अवार्ड कमिटी के सदस्यों को अभी से भेज देना चाहिए!अगर यह फिल्म विदेशी सिनेमाघरों में भी रिलीज़ हुई है तो और भी अच्छा है!भारत सरकार को भी अपने स्तर से इस फिल्म को उचित प्रोत्साहन देना चाहिए!

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