साम्प्रदायिक हिंसाचार के कवरेज की सामाजिक परिणतियां

साम्प्रदायिक हिंसाचार की टेलीविजन पर प्रत्यक्ष प्रस्तुति साम्प्रदायिक विवाद और ध्रुवीकरण को तेज करती है। चैनलों को चिंता है कि घटना को सीधे या लाइव प्रसारण दिखाया जाए। लाइव टेलीकास्ट के तात्कालिक फायदे हैं। इससे हत्यारे गिरोहों और हिंसा को बेनकाब करने में मदद मिलती है। किंतु इससे हिंसाचार को स्थानीय स्तर से उठाकर राष्ट्रीय स्तर तक फैलने का मौका मिलता है। इस तरह का प्रसारण हिंसा करने वालो को राष्ट्रीय स्तर पर वैचारिक मदद करता है। हिंसा का प्रसारण हिंसा को खत्म नहीं करता बल्कि हिंसा को वैध बनाता है। प्रस्तुति चाहे जिस परिप्रेक्ष्य में की जाए हिंसा अंतत: हिंसा को जन्म देती है। यह वाचिक हिंसा हो सकती है या फिर कायिक हिंसा हो सकती है। साम्प्रदायिक हिंसाचार का प्रदर्शन दर्शक के मन में बैठी हुई भ्रांतियों और साम्प्रदायिक मनोभावों को सतह पर ले आता है। इसके कारण साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह प्रबल हो उठते हैं। टेलीविजन वालों की चिन्ता ताजा घटना बताने की है किन्तु इसके प्रभाव की ओर से वे ऑंखें बंद किए रहते हैं। ध्यान रहे किसी भी प्रसारण के प्रभाव को सिद्ध करना बेहद मुश्किल काम है। किसी प्रस्तुति विशेष को देखने वाला व्यक्ति अन्य अनुभवों और प्रस्तुतियों के संपर्क में भी आता है। इन अनुभवों के प्रभाव से उस प्रस्तुति विशेष के प्रभाव को पृथक् कर पाना सरल नहीं होता। अंतत: इस बारे में फैसला समाज के किसी शासक समूह के मानकों अथवा समाज के सामान्य विवेक के आधार पर लिया जाता है।

गुजरात के जनसंहार पर टेलीविजन प्रस्तुतियों को हमें टेलीविजन कार्यक्रमों में प्रसारित हिंसक कार्यक्रमों के फ्लो के संदर्भ में भी देखना चाहिए। साथ ही टेलीविजन से निरंतर साम्प्रदायिक संगठनों के नेताओं के अशालीन और बेहूदे बयानों के साथ रखकर भी देखना चाहिए। हम यह भी देखें कि टेलीविजन चैनल कितना समय साम्प्रदायिक संगठनों को देते हैं और उनकी किस तरह की बातों को प्रसारित करते हैं। अनेक माध्यम विशेषज्ञों ने कहा कि गुजरात के नरसंहार के प्रत्यक्ष प्रसारण या खबरों में हिंसा के दृश्यों ने साम्प्रदायिक संगठनों को नंगा किया है। उन्हें अलग-थलग किया है। यह भी कहा गया कि इस तरह की प्रस्तुतियां धर्मनिरपेक्ष एजेण्डे को आगे बढ़ाती हैं। इस तरह का तर्क देने वाले यह भूल जाते हैं कि जब हिंसा का प्रत्यक्ष समर्थन, उकसाने या भड़काने की कार्रवाई या केबल चैनलों से हिंसा या बलात्कार की झूठी खबरें बवाल मचा सकती हैं तो वास्तव खबरें क्या बवाल नहीं मचाएंगी? माध्यम विशेषज्ञ यह मानकर क्यों चल रहे हैं कि गुजरात के हिंसाचार का एक्सपोजर साम्प्रदायिक संगठनों के प्रति घृणा पैदा करेगा। हमारे पास इस तरह के अभी तक शोध नहीं हैं जो हिंसाचार के प्रसारण को दिखाने पर हिंसा के प्रति घृणा पैदा होती है, इस धारणा की पुष्टि करते हों।

टेलीविजन के प्रभाव के बारे में सभी रंगत के विचारक यह मानते हैं कि प्रभाव के बारे में सुनिश्चित रूप से कुछ भी कहना संभव नहीं है। एल बिर्कोविट्त्ज ने काफी अर्सा पहले माध्यम प्रक्षेपित हिंसा के मनोवैज्ञानिक पक्षों का सटीक मूल्यांकन किया था। एल.बिर्कोविट्त्ज ने ”सम आस्पेक्ट्स ऑफ आब्जर्वड एग्रेसन” में लिखा कि गुस्साए लोगों के सामने टेलीविजन हिंसा का प्रदर्शन उनके आक्रामक व्यवहार में वृद्धि करता है। प्रस्तुति में जो चीजें दिखाई जाती हैं वे आक्रामक व्यवहार के लिए प्रारम्भिक सूत्र का काम करती हैं। जब इन प्रारम्भिक सूत्रों को बाद में यथार्थ जीवन में देखने या खोजने की कोशिश की जाती है तो इससे पुन:आक्रामक व्यवहार में इजाफा होता है। एक अन्य निबंध ”सम डिटर्मिनेन्ट्स ऑफ इम्पलसिव एग्रेशन:दि रोल ऑफ मेडीएटेट एसोसिएशन्स विद रीइनफोर्समेंट्स फार एग्रेसन”में लिखा कि कुण्ठाएं या फ्रस्टेशन आक्रामकता के लिए तैयार करता है। आक्रामकता के लिए दो चीजें जरूरी हैं पहली है व्यक्ति के अंदर गुस्सा या कुण्ठा, दूसरी चीज है अनुकूल वातावरण। एक अन्य निबंध ”सम इफेक्टस ऑफ थॉट आन एण्टी एंड प्रो सोशल इन्फ्लुएंस ऑफ मीडिया इवेन्ट” में लिखा कि व्यक्ति जब गलती करता है तब गुस्सा करता है। आक्रामक व्यवहार तब भी पैदा हो सकता है जब व्यक्ति किसी एक्शन से व्यक्तिगत तौर पर प्रभावित न हो। मसलन् जब माहौल गरम हो तब व्यक्ति को गुस्सा आता है। जबकि गरमी व्यक्तिगत तौर पर उसके लिए पैदा नहीं की जाती। व्यक्ति संवेदनाओं के स्तर पर हमला करने के बारे में तब महसूस करता है जब उस पर सिलसिलेवार ढ़ंग से वाचिक या शारीरिक हमला हो। गुस्से में व्यक्ति दो स्तरों पर सक्रिय रहता है हमला और पलायन। हमले के समय गुस्सा मदद करता है। वहीं दूसरी ओर गुस्से के कारण पलायन करता है, जिम्मेदारी से भागता है। यह असल में भय की प्रतिक्रिया है। इसको प्रतिकूल परिस्थिति में सक्रिय होते हुए देखा जा सकता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में गुस्सा क्यों आता है? इसके बारे में बिर्कोविट्त्ज का मानना है कि क्रोध के साथ अनेक किस्म के भाव जुड़े होते हैं। विरोधी भाव भी जुड़े होते हैं। साथ ही प्रतिकूल आक्रामक आचरण भी जुड़ा होता है। गुस्सा या आक्रामक व्यवहार के समय इनमें से कोई भी तत्व सक्रिय हो सकता है। यह भी संभव है जिसे कमजोर तत्व समझा जा रहा है वह आक्रामकता में वृध्दि करे। यह भी देखा गया है कि व्यक्ति जब पूर्व घटना के बारे में सोचता है तब आक्रामक हो उठता है। अथवा विरोधी विचारों का सामना करता है तब आक्रामक हो उठता है। जब दर्शक टेलीविजन पर किसी घटना को देखता है तब उसकी जानकारी में इजाफा होता है। यह प्रक्रिया स्वचालित रूप में घटित होती है।इसमें सचेत विचारों की थोड़ी भूमिका होती है। साथ ही ज्योंही दर्शक हिंसाचार के चित्र देखता है तब अन्य हिंसाचार के चित्र उसके जेहन में स्वत: आने लगते हैं। बिर्कोविट्त्ज का मानना है कि हिंसा की एक भी घटना का उद्धाटन तय मानसिकता को पूरी आक्रामकता के साथ उभार देता है। आक्रामकता तब तक अपनी भूमिका अदा नहीं करती जब तक दर्शक आक्रामकता को महसूस न करे। सिर्फ फिल्म के प्रदर्शनमात्र से आक्रामक रवैयया पैदा नहीं होता।जब लोग यह सोचते हैं कि किसी घटना को उनसे छिपाया गया या सुचिंतित भाव से गलत ढ़ंग से पेश किया गया या सुचिंतित भाव से दिखाया जा रहा है तो नाखुश होते हैं, गुस्सा होते हैं। इसके अलावा परिवेशगत स्थितियां और व्यक्तिगत कारण भी संवेदनाओं को प्रभावित करते हैं। साथ ही घटना को व्यक्ति कैसे व्याख्यायित करता है, इसका भी प्रभाव होता है।

माध्यमों के द्वारा संप्रेषित हिंसाचार के संदर्भ में प्रभाव को लेकर सभी एकमत हैं कि माध्यमों की हिंसा का आम लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अमेरिका में समाचारों के संदर्भ में किए गए एक सर्वे से पता चला है कि 92फीसदी अमेरिकन सोचते हैं कि उनके देश में टेलीविजन का हिंसा बढ़ाने में अवदान है। जबकि 65फीसदी सोचते हैं कि टेलीविजन के मनोरंजन कार्यक्रमों का अमेरिकी जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। 500 कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षकों में सर्वे के बाद पता चला है कि 66फीसदी की धारणा थी कि हिंसा का टेलीविजन के जरिए उद्धाटन आक्रामक व्यवहार को बढ़ाता है। माध्यम हिंसा देखते समय यह महसूस होता है कि हम तो हिंसा नहीं कर रहे यही बात माध्यम प्रस्तोता भी कहते हैं।यह सच है कि हिंसा दिखाने वाले व्यक्तिगत तौर पर कभी हिंसा नहीं करते। टेलीविजन पर विचार करते समय प्रभाव और उत्पीडन को एकमेक नहीं करना चाहिए। जबकि ये दो अलग-अलग चीजें हैं। साम्प्रदायिक दंगों या गुजरात जैसे हिंसाचार के प्रसारण का क्या प्रभाव हुआ इसके बारे में अभी तक कोई मीडिया प्रभाव संबंधी शोध हमारे सामने नहीं है। फिर भी कुछ अनुमान हैं। मसलन् जब हिंसाचार दिखाया जाता है तब हमें उसके तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभावों के बारे में सोचना चाहिए। तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि हिंसाचार तेजी से सारे देश के सामने आ गया। सरकार रक्षात्मक मुद्रा में आ गई। हिंसाचार में शामिल तत्व तत्काल सबके सामने आ गए।खबरों में ताजापन या जीवन्त खबर का तत्व आ गया। दीर्घकालिक और तात्कालिक तौर पर इससे हिंसाग्रस्त इलाकों में हिंसाचार घटने की बजाए बढ़ा।हिंसक गिरोहों का जनसमर्थन बढ़ा। इलाके के अन्य समूहों में भय का वातावरण बना। मुसलमानों में सारे देश में भय और असुरक्षा का वातावरण बना। राज्य और केन्द्र सरकार के प्रति उनकी आस्थाएं कमजोर हुईं। पुलिस बलों के प्रति अविश्वास गहरा हुआ। चूंकि हिंसक लोग हिंसा करके सकुशल भागने में सफल रहे अत: मौका मिलने पर अन्य क्षेत्रों में ऐसी हिंसा या लूट में शामिल होने पर बचा जा सकता हैं। यह संदेश गया। यह भी संदेश गया कि अपराध करके बचे रहने की संभावनाएं हैं। कारण यह है कि लूटते, आग लगाते और हिंसा करके भागते हुए समूह तो दिखाए गए किन्तु गिरफ्तार लोगों या पुलिस बलों की कार्रवाई पर कोई फुटेज नहीं दिखाया गया। साथ ही बड़ी बेशर्मी के साथ हिंसा में शामिल संगठनों के नेताओं के बयान,साक्षात्कार आदि का प्रसारण किया गया। इससे दशकों में भय की सृष्टि हुई।एक भय वह होता है जो शरीर में सिहरन पैदा करता है और एक भय वह होता है जो धीरे-धीरे मन में जगह बना लेता है और पल्लवित होता रहता है। इन दोनों की ही सृष्टि हुई। इसी तरह संवेदनहीनता का भी तात्कालिक और दीर्घकालिक असर होता है। तात्कालिक तौर पर चेतना पर किस तरह प्रभाव होता है। इसके बारे में उन फिल्मों के अध्ययन से हमें मदद मिल सकती है जहां बच्चे अन्य बच्चों को हिंसा करते देखते हैं। बच्चा ऐसी हिंसा देखकर अपने को इससे पृथक कर लेता है। अथवा हिंसा के शिकार से अलग कर लेता है। ऐसा बच्चा हिंसा के प्रभाव को समझने की कोशिश करता है।यह बोध वह संवेदना के स्तर पर ग्रहण करता है। किंतु इसे तुरंत ज्ञानात्मक संवेदना में रूपान्तरित नहीं कर पाता।इसी तरह हिंसा के प्रति बच्चों और वयस्कों का रवैयया एक जैसा नहीं होता। बच्चों की तुलना में वयस्कों में हिंसा के प्रति ज्यादा सहिष्णु भाव पाया गया है। यह संभावना है कि जिन लोगों ने गुजरात के हिंसाचार को टेलीविजन पर देखा उनके मन में हिंसाचार के प्रति तटस्थभाव पैदा हुआ हो। सहिष्णु भाव पैदा हुआ हो।

साम्प्रदायिक हिंसाचार का जब भी अध्ययन किया जाए यह बात ध्यान रखनी होगी कि साम्प्रदायिक हिंसा किसी घटना विशेष से शुरू जरूर होती है। घटना विशेष उसका प्रधान कारण नहीं बल्कि बहाना मात्र है। साम्प्रदायिक हिंसाचार हमेशा साम्प्रदायिक विचारधारात्मक प्रचार अभियान के बाद जन्म लेता है। पहले वाचिक हिंसा के जरिए माहौल बनाया जाता है और बाद में उपयुक्त अवसर देखकर या किसी बहाने साम्प्रदायिक हिंसा की शुरूआत होती है।

हिंसाचार का टेलीविजन और फिल्मों के माध्यम से प्रसारण नियंत्रित किया जाना चाहिए।हिंसा का मनोरंजन या अन्य बहाने से प्रसारण अंतत:हिंसा के प्रति तटस्थ बनाता है, उसके साथ सामंजस्य पैदा करता है। देखने वाले तुरंत ही हिंसा से पृथक् कर लेते हैं। फिल्मी हिंसा देखते हुए बच्चा पीड़ित की इमेज से अपने को अलग कर लेता है।वह यह मानकर चलता है कि हिंसा अन्य बच्चे करते हैं। वह नहीं करता। इस दृष्टिकोण से यदि साम्प्रदायिक हिंसाचार को देखा जाए तो पाएंगे कि देखने वाला यह मानकर चलता है कि पीड़ित वह नहीं पीड़ित तो अन्य है। साथ ही ज्ञानात्मक स्तर पर उसका अनुभव वही नहीं होता जो पीड़ित का होता है। माध्यम प्रक्षेपित हिंसा बच्चों, वयस्कों और पीड़ितों के एटीट्यूट्स में परिवर्तन करती है। स्त्रियों के खिलाफ क्रूर हिंसा या हल्की हिंसा का रूपायन दर्शक को स्त्री हिंसा के प्रति सहिष्णु बनाता है। आक्रामक कामुक फिल्मों को देखने वाले वयस्कों में बलात्कार की शिकार महिलाओं के प्रति कम सहानुभूति होती है। जो बच्चे हिंसा के कार्यक्रम देखने के आदी हो जाते हैं या हिंसा के इक्का-दुक्का कार्यक्रम देखने के आदी होते हैं। उनमें हिंसा के प्रति सहिष्णुता बढ़ जाती है। इसका अर्थ यह भी है कि हिंसा के प्रति दर्शक संवेदनहीन हो जाता है। वह वास्तव में जब हिंसा देखता है तब उसकी संवेदना जागने में समय लगता है। ऐसे में वह असहाय भाव से मदद की गुहार लगाता है।यह स्थिति किसी एक कार्यक्रम या लंबे समय तक चलने वाले कार्यक्रम के प्रभाव द्वारा भी संभव है। संवेदनहीनता का एक सकारात्मक पक्ष भी है।खासकर जिन चीजों से डरना चाहिए उनके प्रति भय खत्म हो जाता है। क्योंकि जो चरित्र हिंसा करते हैं या जिन एक्शन में हिंसा होती है उनका बार-बार प्रक्षेपण भय निकाल देता है। हिंसकों को किस नाम से पुकारें यह भी विवाद का विषय है। आप उन्हें किसी भी नाम से पुकारें इससे हिंसा का बुनियादी चरित्र और प्रस्तुत चित्र के सामाजिक प्रभाव में बुनियादी फ़र्क नहीं आने वाला। हिंसा के तर्क हिंसक की ताकतवर सामाजिक भूमिका से तय होते हैं।हिंसा का बोध वक्तव्य से नहीं हिंसा के दृश्य और हिंसक गिरोहों के सामाजिक आधार से तय होता है।

गोधरा की घटना स्वर्त:स्फूत्त थी या नियोजित थी या गुजरात का जनसंहार नियोजित या प्रतिक्रियास्वरूप हुआ इससे हिंसा के चरित्र में बदलाव नहीं आता। हिंसा सिर्फ हिंसा है।उसका स्वभाव और प्रभाव वक्तव्य से नहीं बदला जा सकता। हिंसा जिसने भी की हो यदि आप हिंसक के नाम का भी उद्धाटन कर देते हैं तब भी उसके प्रति घृणा पैदा करना असंभव है। क्योंकि हिंसा का प्रदर्शन दर्शक को हिंसा केप्रति सहिष्णु और संवेदनहीन बनाता है। आज जो जितना सूचना संपन्न है वह उतना ही ज्यादा डरपोक है। सामाजिक हस्तक्षेप से परहेज रखता है। संकट की अवस्था में घर में बंद रहकर जीना चाहता है। साम्प्रदायिक और आतंकी हिंसा की खबरें जागरूकता और निर्भयता का बोध पैदा नहीं करतीं।बल्कि दर्शक को समाज से काटती हैं।दर्शक का समाज में बढ़ता हुआ अलगाव और साम्प्रदायिक-आतंकी संगठनों का बढ़ता प्रभाव इसकी पुष्टि करता है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

3 COMMENTS

  1. जगदीश्वर जी कुछ काम की बात नहीं कर सकते ! सांप्रदायिक संगठनों के बारे में तो आप ऐसे बात करते है जैसे इन्होने आपको घर में घुस कर मारा हो, अगर मार खाई है तो पुलिस के पास जाइये , इस माध्यम के जरिये औरों का दिमाग क्यों ख़राब करते है ………………………

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