सृजन और संतति में ही अमरत्व है

– हृदयनारायण दीक्षित

काल से बड़ा कोई नहीं। यमराज भी उनके कहे अनुसार चलते हैं। उगना, खिलना, पकना, झरना काल के खेल हैं। प्राचीन मान्यता है कि स्वर्ग में न बुढ़ापा है और न ही मृत्यु। कठोपनिषद् के अनुसार स्वर्ग प्राप्ति का साधन अग्नि-विद्या है। नचिकेता ने यमराज से वही अग्नि रहस्य पूछा था। यमराज ने नचिकेता को अग्निविद्या बताई। नचिकेता इस रहस्य को फौरन जान गये। तबसे यही अग्नि-विद्या ‘नाचिकेतस अग्नि’ कही जाती है। लेकिन हमारी, आपकी सबकी जिज्ञासा रहती है कि मरने के बाद होता क्या है? जीवन का दिया बुझने के बाद ज्योतिर्मय तत्त्व आखिरकार कहाँ चला जाता है? यह बात यमराज से ज्यादा भला कौन जानता होगा? नचिकेता ने यम से यही प्रश्न पूछा कि मृत्यु के बाद इस आत्मा का क्या होता है? कुछ लोग कहते हैं कि यह मृत्यु के बाद भी रहता है तो कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के साथ सब कुछ नष्ट हो जाता है। नचिकेता का यह प्रश्न उत्तर वैदिक काल का है। साफ जाहिर है कि तब भी दो विचारधाराएं थी। एक विचार मृत्यु के साथ सब कुछ खत्म हो जाने का विश्वासी था। दूसरा विचार आत्म तत्व के बच जाने पर यकीन रखता था। लेकिन यमराज ने इस बहस को और भी प्राचीन बताया कि पूर्वकाल में देवताओं के बीच भी इस पर संशय थे – देवैरात्रापि विचिकित्सतं पुरा। कठोपनिषद् के अनुसार यमराज ने नचिकेता को तमाम प्रलोभन दिये और इस प्रश्न का उत्तर देने में टालमटोल की। लेकिन नचिकेता अड़ गया। यमराज ने जीवन का श्रेय समझाया, फिर कहा कि यह आत्मतत्व गूढ़ चिंतन से नहीं ज्ञात होता। यह अणु से भी सूक्ष्म है। अणुप्रमाणात् अणीयान। आगे कहा यह न तो जन्मता है, न मरता है, न इससे कोई प्रकट हुआ है और न ही इसे किसी ने प्रकट किया है। शरीर के नष्ट हो जाने पर भी इसका नाश नहीं होता – न हन्यते हन्यमाने शरीरे। शरीर विनाशी है लेकिन वह अविनाशी है।

दर्शन में भले ही आत्मा अजर अमर है लेकिन जीवन का मुख्य उपकरण यह शरीर ही है। शरीर में स्थित इन्द्रियां ही हमारे और संसार के बीच सेतु है। इन्द्रिय बोध का विस्तार ही हम सबका संसार है। संसार काल और दिक् के भीतर है। असली बात है काल। अथर्ववेद में भृगु ने बताया है कि काल में सब समाहित है। काल में प्राण हैं, जीवन है। काल में गति है, प्रगति है और सद्गति है। काल ही हमारा पिता है और वही पुत्र भी है। वह काल सर्वत्र व्यापी है, भीतर बाहर है, ऊपर और नीचे है। काल अखंड सत्ता है। हम सब काल की मुट्ठी में हैं। सो काल ही रूप, रस, गंध, श्रुति, स्मृति और अनुभूति का मनःसंसार है अंततः वही मृत्यु भी है। सो सृष्टि के प्रत्येक प्राणी की मृत्यु सुनिश्चित है। यह सब जानते हुए भी व्यक्ति मृत्यु की तैयारी नहीं करता। सजग व्यक्ति जीवन के सभी कार्यो की योजना बनाते हैं लेकिन काल की योजना के अनुसार मृत्यु की तैयारी नहीं करते। जीवन में तमाम दुख हैं, तमाम कठिनाईयाँ हैं तो भी मन करता है कि अभी और जियें। जीने की यही इच्छा भय बनती है, डर पैदा करती है। लोग सुरक्षा व्यवस्था करते हैं। ईश्वर आस्था में रमते हैं।

जीवन और मृत्यु दरअसल ऊर्जा रूपांतरण के खेल हैं। प्रत्येक प्राणी के भीतर जीवन की एक सघन चेतना है। काल इस चेतना का वाहक है। शरीर इसी जीवन चेतना का रूप-आकार है। शरीर एक नगर या पुर है। इसी पुर के भीतर चेतना का निवास है। चेतना की सघनता जीवन है, चेतना की जीर्णता बुढ़ापा है और चेतना की शून्यता मृत्यु है। शरीर में प्रतिपल जीवन और मृत्यु के खेल हैं। हमारे भीतर जीवन के साथ मृत्यु की भी उपस्थिति है। कितना जीवन है? और कितनी मृत्यु? इसका पता लगाना आसान नहीं है। लेकिन 70-80 या 100 वर्ष के आसपास करोड़ों पृथ्वीवासियों ने जीवन खोया है। सो वैदिक पूर्वजों ने काम करते हुए 100 वर्ष के जीवन की प्रार्थनाएं की हैं। यहां काम करते हुए शब्द ध्यान देने योग्य हैं। यों ही पड़े थके मंदे जीने का कोई मतलब नहीं। इसके लिए आंख, कान, हाथ, पैर सहित शरीर के सभी अंगों का बुढ़ापे में भी पुष्ट होना जरूरी है। वैदिक साहित्य में इन अंगों के पुष्ट रखने की ढेर सारी प्रार्थनाएं हैं। लेकिन काल अपना काम करता रहता है। वह विश्राम नहीं करता। सो प्रत्येक शरीर बूढ़ा होता है। अंग पकते हैं, जीर्ण होते हैं, लुढ़कते हैं, काल की इस गतिविधि को टाला नहीं जा सकता। मेरी अपनी सुनिए। मैं बिना कुछ करे धरे ही बुजुर्ग और वृध्द हो गया। मैंने किसी जुगाड़ के जरिए वरिष्ठता नहीं पायी। जवानी भी अपने आप ही आई थी। फिर धीरे-धीरे अपने आप हमारे कर्म और काया को देखते हुए अपने आप विदा हो गयी। सबकी तरह हम भी चाहते थे कि जवानी थोड़ा और रूके लेकिन विश्व इतिहास की कोई भी खूबसूरत जवान नायिका बूढे क़े साथ नहीं रूकी। सो हमारी जवानी भी हमको बुढ़ाता देख चली गयी। संसार जगत् है, जो जाता है वही जगत् है। जैसे बुढ़ापा देख जवानी साथ छोड़ गयी वैसे ही गाढ़ा बुढ़ापा देख शरीर भी साथ छोड़ता है। लेकिन चेतना तो भी बचती है वह नये बचपने, नई जवानी और नये बुढ़ापे की खोज में नई यात्रा पर निकल जाती है – वासांसि जीर्णानि यथा विहाय। दृश्यमान जगत स्वतः स्फूर्त संभवन है। कालचक्र की घड़ी आटोमेटिक है। आस्थाओं के अनुसार कालचक्र की घड़ी में ईश्वर या ब्रह्म, प्रजापति या कोई विश्वकर्मा चाभी भरता है लेकिन ऋग्वेद की शानदार घोषणा है कि वह बिना वायु के ही स्वचालित श्वसन लेता है – अनादीवातं स्वधया तदेकं। असल में हमारा होना हमारे बूते के बाहर की बात है। हम चाहे तो भी होने या न होने के संभवन चक्र में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते। संभवन की गति का नाम काल है। काल में संभवन की विवशता है, यही ऋत है, यही प्रकृति है, इसी में सत् और असत् की सत्ता है। संभवामि युगे-युगे प्रकृति का संविधान है।

काल से टक्कर ही दरअसल मनुष्य की जिजीवीषा है। हम सब जीना चाहते हैं, योग करते हैं, नियम बनाते हैं, खानपान ठीक करते हैं, प्रार्थनाएं करते हैं। हम सब वृध्दावस्था का स्थगन चाहते हैं। आधुनिक मनुष्यता तमाम औषधियों में भी रमती है। बात नहीं बनती तो बाल रंगती है, खाल रंगती है। बाल से खाल छुपाती है, खाल से बाल निकालती है। लेकिन अंततः काल ही जीत जाता है। मनुष्य की अदम्य जिजीवीषा भी काल के सामने हार जाती है। मनुष्य प्रकृति की सृजन कार्रवाई पर गौर नहीं करता। प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी को अमरत्व दिया है। लेकिन प्राण ही अमर हैं, शरीर मरणधर्मा है। प्रकृति ने अमरत्व की कार्रवाई जारी रखने के लिए ही संतान प्रवाह चलाया है। अपनी संतानों के जरिए मनुष्य स्वयं अपना नया शरीर पाता है। अक्सर वैसा ही चेहरा, हावभाव और स्वभाव भी पाता है। अमरत्व की यह कार्यवाही सतत् प्रवाही है। काल इस कार्यवाही को गति देता है। मनुष्य मर कर भी संतति प्रवाह में अमर रहता है। तैत्तिरीय उपनिषद् के ऋषि ने दीक्षा पाए शिष्यों को लगातार अध्ययन प्रवचन करते हुए संतति प्रवाह को न तोड़ने के निर्देश दिये हैं – प्रजनश्च स्वाध्याय प्रवचने च और प्रजातंतु मा व्यवच्छेत्सीः।

मनुष्य जीना चाहता है, प्रकृति चक्र में लगातार जीने की व्यवस्था है। संतान प्रवाह के अतिरिक्त भी अमरत्व के सर्जन है। वस्तुतः प्रत्येक सृजन ब्रह्म की ही गतिविधि है। काम आनंद सृजन का आनंद है, संतान इसका सुफल है। काव्य सृजन भी ऐसा ही आनंद है, कवि के लिए काव्य की प्रत्येक पंक्ति पुत्र या पुत्री हैं। पुत्र अपने मां पिता का नाम यश आगे बढ़ाते है। कविता भी अपने रचनाकार को अमर करती है। निराला की शक्ति पूजा या तुलसीदास के रामचरित मानस ने किसी भी पुत्र की तुलना में ज्यादा अमरत्व दिया है। कलाएं भी कलाकारों की पुत्र, पुत्रियां है। कला चिन्तक अनर्स्ट फिशर ने ठीक ही सृजनात्मकता को मनुष्य के अमरत्व का मानवीय प्रयास बताया है। सृजन और जीवन पर्यायवाची हैं। काल आबध्द जीवन विसर्जित होता है लेकिन सृजन अमर रहता है। विश्वामित्र नहीं हैं लेकिन उनका देखा, रचा, गाया गायत्री मंत्र अमर है। वशिष्ठ नहीं है लेकिन उनका महामृत्युंजय काव्य अमर है। वह महामृत्युंजयी भी है। अथर्वा भूमिसूक्त रचकर अमर हैं। अमरत्व हमारी जिजीवीषा है तो सृजन इस अमर तत्व की कुंजी है। परमात्मा भी इसीलिए अमर है कि वह बिना रूके बिना थके रोज कुछ न कुछ बनाए जा रहा है। विश्व कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने ठीक कहा था, जब भी किसी बच्चे के जन्म की सूचना मिलती है। मैं आशावाद से भर जाता हूँ कि परमात्मा निराश नहीं हुआ। वह रोज नई प्रतिमाएं गढ़े जा रहा है। सर्जन में ही अमरत्व है और तब काल ठिठक जाता है।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

2 COMMENTS

  1. लेखक के जेहन में आलेख का भाव चाहे जो सन्निहित हो .किन्तु ब्रह्मसूत्र पद उपनिषद उद्धरण एवं मीमां सा के तात्विक विश्लेषणों से लक्ष्यार्थ को सार्थक बहस का सामान उपलब्ध करने में दीक्षित जी आप सफल होंगे एंसी शुभकामना .
    आपने प्रकृति के गूढ़तम सृजनकारी अवयवों को काव्य शिल्प की सृजनशीलता से सुंदर सटीक तुलनात्मक झांकी प्रस्तुत कर कवियों .लेखकों .कलाकारों तथा मानव समाज के उन तमाम शुभचिंतकों का होसला आफजाई किया है .जो विभिन्न बिपरीत धर्मी व्यक्तियों .समाजों .को एकसूत्रता में पिरोकर न केवल एक सुखद संपन्न भारत अपितु सारे संसार में अमन शांति भाईचारा चाहते हैं .

  2. गहन स्वाध्याय और चिंतन के परिपाक की फलश्रुति -यह बताना गैर जरूरी था कि लेखक मंत्री रह चुके हैं -यह रेशमी टाट पर गंदे कपडे का का पैबंद सा लगा -एक विसंगति ,एक असंगति !

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