पंचायत चुनाव में शौचालय की अनिवार्यता का संकट

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मनोज कुमार

घरेलू प्रताडऩा से तंग महिला को पुलिस की सुरक्षा दिलाने और उसकी जिंदगी में खुशहाली लौटाने की पहल करने वाली सेमरिया ग्राम पंचायत की पंच संध्या को चुने जाने के एक साल तक इस बात का इल्म ही नहीं था कि उसे करना क्या है? हंगर प्रोजेक्ट की कार्यशाला में जाने के बाद उसे इन बातों की जानकारी मिली तो थोड़े ही समय में उसने अपने पंचायत की तकदीर बदलने में जुट गई। भोपाल पहुंच कर वह लोगों से सीधे बात करती है। अपनी कामयाबी और चुनौती की कहानी बयान करते समय संध्या का आत्मविश्वास देखते ही बनता है। अपने बीते पांच वर्ष के कार्यकाल में एक साल उसका जानकारी के अभाव में बेकार गया लेकिन बचे चार साल उसकी कामयाबी के साल रहे। जिन लोगों को पेंशन नहीं मिल पा रही थी, उन्हें पेंशन दिलाने के लिए संध्या आगे आई और पौने दो सौ लोगों की जगह पर हकदार 6सौ लोगों को पेंशन मिलने लगी। पानी की समस्या को हल करने में जुट गई है तो शिक्षा के स्तर को सुधारने के साथ ही अपने पंचायत क्षेत्र में आईटीआई की स्थापना कराने में प्रयासरत है।संध्या एक मिसाल है मध्यप्रदेश की उस पंचायती राज व्यवस्था की जिसका स्वप्र महात्मा गांधी ने देखा था। सरकारों की नेक-नीयती के कारण पचास फीसदी आरक्षण महिलाओं को दिया गया। लक्ष्य सुनिश्चित था कि पंचायतों को सुदृढ़ किया जाए। कहना ना होगा कि बीते पांच साल का जो परिणाम आया, वह बेमिसाल है। मध्यप्रदेश की कई पंचायतें ऐसी हैं जहां पचास नहीं, बल्कि सौफीसदी महिलाओं का वर्चस्व है। इन सालों में सरपंच पति की भूमिका वाली खबरें भी हाशिये पर चली गई। अब सत्ता निर्वाचित महिला सरपंच के हाथों में है। निर्वाचित महिला सरपंचों को अपने अधिकारों और दायित्वों की समझ बढ़ी है और वे पोषण से शिक्षा और सडक़ से अस्पताल तक की जरूरतोंं को प्राथमिकता से पूरी कराने में जुट गई हैं। महिला सुरक्षा हो या महिलाओं के लिए टॉयलेट की व्यवस्था, वे हरदम प्रयासरत हैं।मध्यप्रदेश पंचायती राज व्यवस्था में बीते दो दशक में जो चेहरा पंचायतों का बदला है, वह मिसाल है लेकिन इस बार होने वाले चुनाव में इन महिला सरपंचों के समक्ष एक संकट खड़ा हो गया है। इस बार के पंचायत चुनाव में बाध्यता रखी गई है कि जिसके घर में शौचालय होगा, वही चुनाव लडऩे का पात्र होगा। इसके साथ ही एक बाध्यता चुनावी बजट को लेकर है। पहले शौचालय के मुद्दे पर चर्चा। फौरीतौर पर शौचालय अनिवार्य किया जाना  बाध्यता नहीं, आवश्यकता लगती है लेकिन ऐसा है नहीं। शौचालय स्वस्थ्य जीवन की आवश्यकता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन हमारे समाज का ताना-बाना ऐसा है कि इस तरह के फैसले परिवार के साथ मिलकर लिए जाते हैं। इसमें महिला की भूमिका छोटी बल्कि नगण्य होती है। जिस उत्साह से पंचायतों को सशक्त बनाने की दिशा में महिलाएं कार्य कर रही हैं, वे शौचालय की अनिवार्यता की बाध्यता के कारण चुनाव लडऩे से वंचित हो जाएंगी। ऐस में मोटामोटी यह मान लिया जाएगा कि धन-सम्पन्न परिवारों की महिलाओं का पंचायतों पर कब्जा हो जाएगा और पंचायती राज का गांधीजी का स्वप्र टूटने लगेगा। शौचालय की अनिवार्यता की बाध्यता को दूर कर यह बाध्यता आवश्यक हो कि चुनाव जीतने के बाद निर्वाचित पंच-सरपंच प्राथमिकता से समय-सीमा के भीतर अपने अपने घरों में शौचालय का निर्माण कराएंगे। यह एक रास्ता हो सकता है जिससे महिला सशक्तिकरण की दिशा में आने वाली रूकावट को दूर किया जा सकेगा।चुनाव लडऩा व्यक्ति का लोकतांत्रिक अधिकार है। यदि वह उम्र एवं आरक्षण संबंधी पात्रता रखते हैं तो उसे हम किसी अन्य शर्तों के आधार पर उसे चुनाव लडऩे के हक से वंचित नहीं कर सकते। शौचालय की अनिवार्यता की बाध्यता को समाप्त करने के बारे में आम सहमति है। महिला पंचायत प्रतिनिधियों ने पंचायत चुनाव में शौचालय की अनिवार्यता के प्रावधान को भी खत्म किए जाने की बात कही। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता श्याम बोहरे ने कहा कि समाज के सबसे कमजोर व्यक्ति के पास शौचालय नहीं होते हैं। इस दशा में इस प्रावधान के जरिये हम सबसे कमजोर तबके के व्यक्ति को चुनाव लडऩे की प्रक्रिया से वंचित कर रहे हैं। वाटरएड के चंचल ने कहा कि हम शौचालय को सिर्फ एक साधन की तरह देख रहे हैं। इस दशा में शौचालय को चुनाव लडऩे की पात्रता रखने से स्वच्छता का लक्ष्य हासिल नहीं होगा। बल्कि यह प्रावधान के कारण समाज के कमजोर तबके के लोगो को चुनाव प्रक्रिया से बाहर करेगा। एडीआर की रोली शिवहरे ने कहा कि यह प्रावधान लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है और इस प्रावधान  वंचित को चुनाव लडऩे के हक से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। राजेन्द्र बन्धु कहते हैं कि शौचालय परिवार का विषय है, व्यक्ति का नहीं। इसलिए इस बाध्यता को खारिज किया जाना उचित होगा। पंचायत चुनाव में प्रत्याशी के लिए चुनाव खर्च पर आम सहमति यही थी कि पंचायत चुनाव प्रचार में प्रत्याशियों के लिए खर्च की सीमा होनी चाहिए। क्योंकि गांव में कई सम्पन्न लोग होते हैं तो अपने धन—बल के आधार पर चुनाव को प्रभावित करते हैं। उनका कहना था कि पंचायत चुनाव में खर्च की सीमा नहीं होने से फ्री एवं फेयर चुनाव एक चुनौती बन जाता है। देश के कई राज्यों जैसे राजस्थान, उड़ीसा, हरियाणा, उत्तराखंड आदि पंचायत चुनाव प्रत्याशी के लिए खर्च की सीमा तय की गई है। सभी का मानना था कि चुनाव में खर्च की सीमा होना जरूरी है।द हंगर प्रोजेक्ट मध्यप्रदेश की राज्य समन्वयक शिबानी शर्मा कहती हैं कि शिबानी का कहना है कि वे शौचालय के खिलाफ नहीं हैं । पंचायती राज व्यवस्था के लिए मध्यप्रदेश रोल मॉडल है और ऐसे में शौचालय की बाध्यता को समाप्त नहीं किया गया तो पूरी व्यवस्था पर इसका असर होगा वहीं चुनाव में प्रत्याशी की खर्च की सीमा तय होना चाहिए क्योंकि इससे अकारण भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं मिल पाएगा। 

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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