सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद क्‍या है ?

‘फेसबुक’ पर विचारशील चर्चा के उद्देश्‍य से हमने एक शृंखला की शुरुआत की है। बुद्धिजीवी मित्र इस चर्चा में हिस्‍सा ले रहे हैं और अपने विचार से सबको लाभान्वित कर रहे हैं। आपसे भी निवेदन है कि इस परिचर्चा में भाग लें, जिससे हम सबके ज्ञानराशि में वृद्धि हो सके। (सं.) 

वैचारिक प्रबोधनमाला – 3. 

9-b4सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद क्‍या है ? 

[सरल शब्‍दों में; पूर्व में, भारतवर्ष के विभिन्‍न प्रदेशों में अलग-अलग स्‍वाधीन राज्‍य थे। राजनीतिक दृष्टि से विभिन्‍न राज्‍यों में विभक्‍त होते हुए भी सांस्‍कृतिक दृष्टि से पूरा भारतवर्ष एक राष्‍ट्र माना जाता था। 

यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहां से/अब तक मगर है बाकी नामोनिशां हमारा/कुछ बात है कि हस्‍ती मिटती नहीं हमारी/सदियों रहा है दुश्‍मन दौरे जहां हमारा- यह जो ‘कुछ बात है’ यह हमारी सांस्‍कृतिक निष्‍ठा ही है। 

भारत की एकता और अखंडता का आधार सांस्‍कृतिक एकता है इसलिए यह स्‍वाभाविक है भारतीय राष्‍ट्रवाद को सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद की संज्ञा दी जाए।]

 

Rajesh Jha सांस्कृतिक राष्ट्रवाद राष्ट्रिय पहचान का सभ्यतामूलक आधार और नागरिक जीवन का चरम उत्कर्ष है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद समान विरासत से उदभासित समुदायों का गठजोर है जो एक जैसा स्वप्न जीते है और एक जैसा भविष्य पसंद करते हैं।

 

संजीव सिन्हा एक महत्‍वपूर्ण संदर्भ : प्रदीप जैन बनाम भारत संघ 1984 मामले में निर्णय देते हुए उच्‍चतम न्‍यायालय के मुख्‍य न्‍यायाधीश जस्टिस पीएन भगवती और अमरेंद्र नाथ तथा जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने कहा था- ”यह इतिहास का रोचक तथ्‍य है कि भारत का राष्‍ट्र के रूप में अस्तित्‍व बनाए रखने का कारण एक समान भाषा या इस क्षेत्र में एक ही राजनैतिक शासन का जारी रहना नहीं है, बल्कि सदियों पुरानी चली आ रही एक समान संस्‍कृति है। यह सांस्‍कृतिक एकता है, जो किसी भी बंधन से अधिक मूलभूत और टिकाऊ है, जो किसी भी देश के लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसने इस देश में एक राष्‍ट्र के सूत्र में बांध रखा है।

 

Chandan Srivastava मैने प्रवक़्ता पर भी पूछा था कि कोई मित्र जानकारी दें कि राष्ट्र और राज्य मे क्या अंतर है?? मै महीनो से इस सवाल का जवाब तालाश रहा हूं लेकिन मिल नही रहा. कृपया मदद करें.

 

शिवानन्द द्विवेदी सहर भारत शुरू से ही सांस्कृतिक एवं उदार राष्ट्रवाद का समर्थक रहा है । यही इसकी मूल संस्कृति भी है । भारत के राष्ट्रवाद को आप जमर्नी के राष्ट्रवादी नजरिये से देखने की भूल नही कर सकते ।

 

संजीव सिन्हा राज्य एक राजनीतिक अवधारणा है, जो कानून के बलपर चलती है और कानून को सार्थक रखने के लिए उसके पीछे राज्य की दण्डशक्ति खड़ी रहती है। ……राष्‍ट्र एक सांस्‍कृतिक अवधारणा है, जिस देश में लोग रहते हैं, उस भूमि के प्रति उन लोगों की भावना, इतिहास में घटित घटनाओं के सम्बन्ध में समान भावनाएँ और समान संस्कृति, इन सबसे राष्‍ट्र बनता है।

 

Chandan Srivastava शुक्रिया सर.

 

Rohit Gautam मेरे मत अनुसार भारतीय या हिन्दू या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद शब्द तात्विक रूप से सही नहीं है क्यूंकी राष्ट्र अपने आप में वह इकाई है जिसका आधार संस्कृति या कुछ जीवन मूल्य हैं तो राष्ट्रवाद कहते समय ही यह बात स्पष्ट है कि इसमें संस्कृति , भारतीयता और हिन्दुत्व हैं ………. अतः केवल राष्ट्रवाद पर्याप्त है ………. यह ऐसे ही है जैसे ” शुद्ध घी ” … घी तो घी है जो शुद्ध नहीं वो घी नहीं …. अतः “शुद्ध घी ” नहीं केवल ” घी ” ….. ऐसे ही राष्ट्रवाद बस

 

Umesh Chaturvedi भारत में राजनीतिक राष्ट्रीयता की अवधारणा सही मायने में फलीभूत हुई 1947 में आजादी मिलने के बाद…आजादी के पहले बेशक करीब दो सौ साल तक अंग्रेजों का राज रहा, लेकिन पूरे देश पर उनका राजनीतिक एकाधिकार जैसा कुछ नहीं था। विदेश, रक्षा और मुद्रा जैसी कुछ चीजें उन्होंने अपने हाथ में रखी थी। लेकिन राज यानी शासन उनके अलावा करीब 600 सौ रजवाड़ों-जमींदारों-रियासतों के हाथ में था। फिर अगर हम अपने हजारों साल पुराने संकल्प मंत्रों में जंबू द्वीपे की बात ना सिर्फ दक्षिण-पूरब-पश्चिम और उत्तर बल्कि आज के पाकिस्तान और बांग्लादेश के इलाकों में भी करते हैं तो इसका मतलब साफ है कि भारतवर्ष की राष्ट्रीय अवधारणा राज पर आधारित नहीं, बल्कि संस्कृति पर आधारित रही है। 1947 के बाद संस्कृतिआधारित राष्ट्र की अवधारणा में राज का भी आधार शामिल हो गया..1947 के पहले हमारे पुरखे राजनीतिक आधार पर भारत में तमाम अलगावों के बावजूद भी इसे एक राष्ट्र के तौर पर स्वीकार कर लेते थे..लेकिन आजादी के बाद संस्कृति के आधार में राज का आधार इतने गहरे तक संपृक्त हो गया कि अब राष्ट्रीयता की अवधारणा संस्कृति के साथ राज पर भी आधारित हो गई है..दुर्भाग्य यह है कि हमारे कुछ मित्र इस तथ्य को जानने-समझने के बावजूद राष्ट्र की संस्कृति आधारित अवधारणा को कूपमंडूकता का पर्याय मानते रहे हैं।

 

Shriniwas Rai Shankar पहली शंका.-क्या अधूरे राष्ट्रवाद से काम चल जायेगा..सर्वांगीण राष्ट्रवाद की जरुरत नहीं..?क्या बिगत में हमारे राष्ट्रवाद में कुछ अपूर्णता नहीं थी,जिसके चलते हम बारम्बार गुलामी में फंसे..?हमारा बड़ा जनसमुदाय..अशिक्षा..और पिछड़ेपन में डूबा रहा .क्या १९४७ के विभाजन और फिर शेष भारत के पुनर्गठन के बाद देश एक नए तरह के राष्ट्रवाद के दौर में नहीं पहुँच गया है..?क्या आज हमारी सांस्कृतिक बुनियाद नयी मंजिलों का निर्माण नहीं कर रही है..?पुराने राष्ट्रवाद..संस्कृति..और सभ्यता को हम आज अधुरा क्यों नहीं मान लेते ..?दिक्कत क्या है..समय का चक्र नवीनता लेकर आता है..जो..सबको बदलने पर मजबूर कर देता है..मेरा सुझाव है..की राष्ट्रवाद के सभी अंगों..आयामों..और स्वरूपों पर चर्चा हो..और यह समझते हुए..हो..की दुनिया के सभी मुल्को का राष्ट्रवाद संक्रमण और परिवर्तन के दौर में है….सबको सर्वांगीण राष्ट्रवाद की आवश्यकता है.राष्ट्र वाद में संस्कृति जरुर सबसे महत्वपूर्ण तत्व था ,है..और रहेगी .

 

बृजभूषण गोस्वामी संस्कृति एक विचार है

वह नदी की धार है

पेड़ की डार सी

नदी की धार सी

टेडी मेडी

जुडती बटती पगढार है

हमारी संस्कृति की बिशेषता।

अनेकता में एकता।

बृक्षो में मूल,

नदियों में उद्गम की बूंद,

पारिवारिकता अपेक्षित ब्यवहारिकता,

नियम संयम अहिंसा व आस्तिकता,

जो चिरवंश बिचार बीज में सुप्त ।

यही है उदगमी हिन्दुत्व ।

जो बिदेशो में बिषम ब्यक्त,

स्वदेश की समब्यक्तता।

जो हर हिस्से में जीवन बन पहुचता।

वही तुममे एकता के रूप में दीखता।

यही है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ……

 

पंकज कुमार झा संस्कृति और राष्ट्र के संबंधों को एक सरल प्रश्न के द्वारा समझने की कोशिश. एक राष्ट्र के रूप में भारत आखिर कितना पुराना है? क्या कोई भी व्यक्ति यह कहेगा की भारत मात्र 66 वर्ष पुराना राष्ट्र ही है? तो आज़ादी से पहले अलग-अलग राज्यों में बंटा ढेर सारे आक्रमणकारियों द्वारा अलग-अलग कब्जाये गए ढेर सारे भू-खंड कैसे भारत के रूप में जाने जाते रहे हैं. मेरे दादा जी जिस भारत में रहते थे वह भारत आखिर क्या था और कैसे वह मद्रास और आसाम के साथ कनेक्ट था? जबाब मिलता है की ‘संस्कृति’ ही वह आधार था जिस पर केरल के किसी कालडी गाँव का युवक शंकर भी मिथिला तक को अपना ही देश मानते हुए हिंदुत्व का जयघोष करने निकल पड़ता है. ऐसे ही कोई बंगाली युवक नरेन्द्र जब शिकागो पहुचता है तो वह किसी बंगाल देश का प्रतिनिधि नहीं बल्कि भारत का सांस्कृतिक दूत ही होता है. किसी खेतरी के राजा का आतिथ्य भी वह ‘भारतीय’ के रूप में ही प्राप्त करता है. तो उस समय भी खेत्री को नरेन्ज से जोड़ने वाला एकमात्र कारक ‘संस्कृति’ ही था न? यह भारत ही है न जिसकी ‘संस्कृति के चार अध्याय’ दिनकर ने लिखा और नेहरू ने जिसकी प्रस्तावना लिख उसपर मुहर लगाई थी. इसके अलावा हुड नेहरू जिस ‘भारत की खोज’ करने निकले थे वह भी उस राज्य की खोज तो बिलकुल नहीं कर रहे थे न जो 1947 में अस्तित्व में आना था…है न? तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आशय यही है की राष्ट्र का आधार संस्कृति ही होना चाहिए.

 

नरेश भारतीय विश्व भर में यह एक सर्वमान्य मत है कि कोई भी भूखंड तभी एक राष्ट्र माना जाता है जब एक सांस्कृतिक सूत्र में बंधा हो. भारत हमेशा से अनेक विविधताओं का भूखंड रहा है और इस पर भी युग-युगों से एक विशिष्ट संस्कृति में सूत्रबद्ध रहने के कारण एक राष्ट्र के रूप में स्थापित रहा है. राज्य और राष्ट्र की परिभाषाएं यहीं पर भिन्न होती हैं. अयोध्या के श्रीराम और महाभारत के श्रीकृष्ण इसी के बल पर राज्यों की सीमाओं के बंधन से मुक्त एक विशाल भूखंड के एक कोने से दूसरे कोने तक जाने और माने गए. भारत को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बाँधने वाले वही हैं.

 

नरेश भारतीय वर्तमान सन्दर्भ में भी विभिन्न भाषाओँ, समुदाय, मज़हब-सम्प्रदायों, पूजा उपासना विधियों के होते हुए भी भारत के एक राष्ट्र होने की अवधारणा कहीं भी क्षीण नहीं होती. जिस किसी ने भारत की धरती पर जन्म लिया है, इसका अन्न जल ग्रहण किया है वह इस भारत राष्ट्र का अंग है. इसका राष्ट्रीय है. भारत के ऐसे राष्ट्रीय होने के नाते उससे अपेक्षित है कि वह अपने इस देश की संस्कृति, परम्पराओं, इसके इतिहास को जानते हुए और मान्यता देते हुए इस धरती को अपने पुरखों की धरती मान कर इसके हितार्थ ही अपना कर्तव्य करने के लिए सतत तत्पर रहे. यही अन्तराष्ट्रीय स्तर पर मान्य सोच है.

11 COMMENTS

  1. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चर्चा करने से पहले हमें ब्रिटिशइण्डिया, ज़र्मनी, इज़्रैल और सोवियत संघ के विघटन के कारणों पर भी चिंतन करना होगा । कुछ अपवादों को छोड़कर भारतीय उपमहाद्वीप के राष्ट्रों की संस्कृतियों में मूलभूत अंतर दिखायी नहीं देते …और जितने दिखायी देते हैं उतने तो एक राष्ट्र के विभिन्न प्रांतों में भी दिखायी देते हैं । यदि हम संस्कार से संस्कृति के सम्बन्ध को स्वीकारते हैं तो मैं पहले व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय संस्कृति की भी बात करना चाहूँगा । भारत में विभिन्न धर्मावलम्बी परिवारों के संस्कारों में अंतर स्पष्ट देखा जा सकता है । उनकी सामाजिक और राष्ट्रीय प्राथमिकतायें भी किंचित भिन्न हैं ; इतना ही नहीं उनकी धार्मिक और आध्यात्मिक प्राथमिकतायें भी भिन्न हैं । जब किसी समाज की सामूहिक प्राथमिकतायें भिन्न होती हैं तो निश्चित ही उनमें विरोधाभास और टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है। यह स्थिति सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं करती । मनुष्य स्वभाव से भिन्नताप्रेमी होता है किंतु धर्म और आध्यात्म उन्हें आपस में जोड़ने का कार्य करते हैं । ये ही वे सात्विक तत्व हैं जो एक जैसे सामूहिक लक्ष्य और एक जैसे मार्ग पर चलने की भूमिका का निर्माण करते हैं । यदि लक्ष्य और मार्ग में ….साध्य और साधन में एकरूपता नहीं है तो निश्चित ही टकराव की स्थिति उत्पन्न होगी, यदि यह टकराव विभाजन की सीमा का निर्माण करने लगे तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अस्तित्व संकट में पड़ जायेगा । भारत के संदर्भ में देखें तो यहाँ के दार्शनिक-आध्यात्मिक स्तर ने एक विशिष्ट प्रकार की सांस्कृतिक रचना की है । यह सांस्कृतिक रचना जीवन के उदात्त मूल्यों, सार्वभौमिक सिद्धांतों और अखिल ब्रह्माण्ड के कल्याण के प्रति व्यक्ति के समर्पण की अपेक्षा करती है । अस्तु, भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की सीमायें सुदूर सूरीनाम और मॉरीशस की भौगोलिक सीमाओं को भी स्पर्श करती प्रतीत होती हैं ।

  2. चन्दन जी राज्य का सम्बन्ध राजा से है. इस प्रश्न का बहुत अच्छा उत्तर “चाणक्य” सीरिअल में दिया गया है. उसमें राज्य की उपमा एक वृक्ष से दी. राजा राज्य रुपी वृक्ष का मूल है, मंत्री-परिषद् उसका धड़ है, सेनापति उसकी शाखाएं हैं, सैनिक उसके पल्लव हैं, प्रजा उसके पुष्प हैं, देश की सम्पन्नता उसके फल और समस्त देश उसका बीज है. इस प्रकार राज्य एक शासन व्यवस्था है.

    राष्ट्र एक वैदिक कल्पना है. संस्कृत के विराट शब्द का सम्बन्ध राष्ट्र, सम्राट, एकराट (मनुष्य) आदि से है. विराट का अर्थ है “एक ऐसा विशाल जिसमें सब चमकते हैं”. सीधी भाषा में कहें तो ऐसा देश जिसमें कोई गरीब नहीं है. विराट “पूर्ण” है जिसमें शासनतंत्र एवं प्रजातंत्र वैसे ही हैं जैसे एक परिवार में पति-पत्नि.

  3. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धारणा राष्ट्रीय हितों को सिर्फ आर्थिक सरोकारों से समतुल्य करके नहीं देखती। अपेक्षात्मक तौर पर मानवीय सरोकार और हित इसके लिए अधिक मायने रखते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद राष्ट्र के लिए सिर्फ राजनैतिक व भू स्थैतिक एकता और संप्रभुता को आधार नहीं मानती बल्कि सांस्कृतिक एकता को उसका प्रमुख आधार मानती है। इसके अनुसार सांस्कृतिक भिन्नता राष्ट्र के स्तित्व के लिए कोई खतरा नहीं है जबकि भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक मूल्यों के बीच स्तित्व की भावना के आधार पर यह राष्ट्र मूल्य की बात करता है। बहुत सारे विद्वान भारत को एक राष्ट्र के रूप में मौजूदा स्तित्व के पीछे उसकी द्धैवि शक्ति को मानते है – यह दैविषक्ति कुछ और नहीं बल्कि इसके सांस्कृतिक मूल्य ही हैं जो इसे अखण्ड राष्ट्र के तौर पर पूरब से लेकर पष्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक बनाये हुए हैं।

  4. भारत राष्ट्र और देश एक नहीं
    राष्ट्र या नेशन और देश वा कंट्री समानार्थक नहीं – कंट्री और नेशन समानार्थक नहीं
    हमर राष्ट्र कितना बड़ा ? महाकवि कालिदास ने लिखा –
    “ अस्युत्तरस्याम दिशी हिमालयो नाम नगाधिराज:” – कालिदास मैथिल थे, बेनीपट्टी, मधुबनी के –हिमालय तक राष्ट्र बताया जबकि इसके बहुत उत्तर तक नेपाल की उपत्यका है – यदि अडवानीजी जो जन्मना कराची, सिंध, अधुना पकिस्तान के हैं , सिन्धु उत्सव हेतु लेह जाते हैं वा कोई मानसरोवर जाते हैं जो ब्रह्मपुत्र और सिन्धु का उद्गम है – चूँकियह राष्ट्र एक है – हिमालय भारत का छैक, भारत के उत्तर में नहीं .
    जब महाकवि कालिदास भारत के उत्तर में इसे लिखा तिब्बत loss हो गया –कालिदास वैसे ठीक थे उनके समयमे वहाँ आबादी नहीं थी- आज के दिन में सहारा desert या थार desert में भी लोग रहते हैं ..
    तिब्बत तक यह भारत राष्ट्र था, श्रीलंका तक और अफगानिस्तान से कम्पुचिया के अन्कोरवट तक जो विश्व का सब से बड़ा मंदिर है – बहुत बड़ा बड़ा वैशाली वा चंपारणमे किशोर कुणाल बनाना चाहते हैं
    अन्कोरवट कितना बड़ा हाँ भारत में रह्नेवाले कल्पना नहीं कर सकते हैं – दक्षिण भारत के तमिल महेंद्रवर्मन का वहां राज्य था–लॉस्ट सिटी कहा जाता था जिसे एक फ्रेंच यात्री ने खोजा – इतना बड़ा परिसर आडिटोरियम का जिस में ५० हज़ार लोग एक साथ बैठ सकते थे –अभी तमिलनाडू के तंजावुर के ब्रिह्दीश्वर मंदिरमे कईएक हज़ार बैठ सकते हैं
    यह बड़ा पैघ भूभाग एक राष्ट्र है जिस में तिब्बत से श्रीलंका तक वटवृक्ष की पूजा होती है , अश्वत्थ या पीपल की पूजा होती है , – देश अलग लेकिन राष्ट्र एक है .

  5. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद गलत शब्द प्रयोग है राष्ट्र अपने आप में सांस्कृतिक होता है राष्ट्रवाद की अवश्यकता इसलिए लगती है की राष्ट्र को अराष्ट्रीय तत्तवों से ख़तरा लगने लगता है

  6. एक ऐसी विचार करने की विधा है, जिस में इकाइयों के घटकों को, बारी बारी से, एक एक कर के, संबधित महा-इकाइ में से घटा कर देखा जाता है।
    जैसे संसार से यदि हिंदू अंक निकाल दिए जाए, तो संसार को कैसी कठिनाई झेलनी पडेगी?
    ऐसे चिंतन से उस इकाई का (अंको का) महत्त्व पता चल सकता है।
    अब आज के विषय पर आते हैं।
    प्रश्न: भारत-हिंदू संस्कृति=? क्या उत्तर मिलेगा।
    कृपया, नीचे पढने के पहले सोचिए।
    ==================================
    भारत भूमिसात हो जाएगा।
    (१) यही प्रश्न मैं ने मेरे एक व्याख्यान के अंतमें किसी प्रश्न के उत्तर में, विसकॉन्सीन युनिवर्सीटी के भारतीय छात्रों के सामने रखा, तो दो उत्तर सामने आये थे।
    (२) उत्तर एक (क) भारत-हिंदू संस्कृति= ० (शून्य)
    उत्तर दो (ख) भारत-हिंदू संस्कृति= पाकिस्तान
    सुधी पाठक सोचने में समर्थ हैं।

  7. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सही मायने में अर्थ देखा जाए तो वह भारत के अलावा कहीं नहीं मिल सकता| संस्कृति का निर्माण कुछ वर्षों में नहीं किया जा सकता, जैसा कि हमारे देश में प्रचारित किया जाता है कि भारत का मूल स्वभाव पंथ निरपेक्ष वादी है, जो सही नहीं है, वास्तव में संस्कृति का निर्माण हजारों लाखों वर्षों की तपस्या का परिणाम होती है, भारत की मूल संस्कृति हिंदुत्व पर आधारित है, यानी हिंदुत्व ही भारत है, हिंदुत्व के बिना भारत की कल्पना नहीं की जा सकती, आज के दौर में संकुचित मानसिकता के लोगों ने विदेशी दर्शन से प्रभावित होकर हिंदुत्व के दर्शन को कमजोर बताने का साहस किया है| लेकिन इस बात को पूरा विश्व जानता है कि हिंदुत्व का यह विचार सर्वग्राही है, और हिंदुत्व का दर्शन पूरे जगत को एक नया दर्शन देने के लिए सक्षम है|

    • सुरेशजी प्राचीन काल से ही इस देश की जनता “एकं सत्य विप्रे बहुधा वदन्ति” को मानकर अपना “प्रजा-धर्म” निभाती रही है. उसकी मान्यता रही है कि ईश्वर एक है, परंतू देश, काल, परिस्थितियों के कारण विभिन्न सम्प्रदाय, जातियाँ आदि अपने महापुरुषों, ईश्वर-पुत्रों, अवतारों आदि का अनुसरण कर सच तक पहुँचने का अपना मार्ग तय करने के लिए स्वतंत्र हैं.

      सचिन तिवारी जी ने सभ्यता और संस्कृति की उपमा फूल और उसकी सुगंध से की है. शासनतंत्र का काम क़ानून तथा दंड से फूल की एकता बनाए रखना है. लेकिन अभूतपूर्व ग्रंथों तथा उनमें प्रतिपादित सिद्धांतों से फूल की सुगंध बनाये रखना प्रजातंत्र का काम है. प्रजातंत्र विषय पर और अधिक जानकारी के लिए मेरी वेबसाईट देखें.

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