वर्तमान राजनीतिक तंत्र आपातकाल से भी ज्यादा खौफनाक है

लालकृष्ण आडवाणी

पिछले साठ वर्षों से भारत स्वतंत्र है। नागरिक आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन के संदर्भ में, मैं आपातकाल की अवधि 1975-77 को सर्वाधिक खराब मानता हूं।

लेकिन राजनीतिक व्यंग्यकार और भ्रष्टाचार विरोधी संघर्षकर्ता असीम त्रिवेदी के साथ जो कुछ हुआ उससे मुझे आश्चर्य होने लगा: क्या आज का राजनीतिक तंत्र आपातकाल से भी ज्यादा खराब है? असीम त्रिवेदी को गिरफ्तार किया गया, और देशद्रोह का अभियोग लगाया गया। एक ऐसा अपराध है जिसकी सजा आजीवन कारावास है। त्रिवेदी का अपराध यह है कि अन्ना आंदोलन के दौरान उन्होंने ऐसे कुछ कार्टून प्रकाशित किए जिन्हें सरकार अपमानजनक मानती है। त्रिवेदी को गत् सप्ताह मुंबई में, नवम्बर, 2011 में बनाए और प्रदर्शित किए गए कार्टूनों के लिए गिरफ्तार किया गया। यह गिरफ्तारी मुंबई स्थित एक गैर सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) के विधि सलाहकार द्वारा दायर एक शिकायत के आधार पर की गई।

त्रिवेदी ने कहा है: ”संविधान में मेरा पूर्ण विश्वास है। मैं तब तक ‘बेल‘ नहीं मांगूगा जब तक देशद्रोह का अभियोग वापस नहीं लिया जाता।”

वास्तव में, मेरे सामने आपातकाल में बनाए गए दो कार्टून हैं, जिनमें से एक प्रख्यात कार्टूनिस्ट अबू अब्राहम ने बनाया था, एक श्रीमती गांधी द्वारा राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद से आपातकाल की घोषणा सम्बन्धी पत्रों पर हस्ताक्षर लेने के तुरंत बाद प्रकाशित हुआ और दूसरे में दिखाया गया था कि एक आम आदमी एक बोर्ड पकड़े हुए है जिस पर बीस नुकीली कीलों की आकृतियां बनी हुई थीं जो तबकी सरकार के बीस सूत्री कार्यक्रम की नकल थी।

यदि वर्तमान राजनीतिक शासन 1975-77 में होता, तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि असीम त्रिवेदी की तरह अबू अब्राहम को भी सींखचों के पीछे डाल दिया गया होता! आपातकाल ने सरकार को असाधारण शक्तियों से लैस कर दिया था। लेकिन वर्तमान शासकों की डरावनी मानसिकता, असफलता और हताशा से जन्मी है।

अपने बंदीकाल की अवधि में अधिकांश समय मैं बंगलौर सेंट्रल जेल में था। लेकिन दो महीने (17 जुलाई, 1975 से 22 सितम्बर, 1975) मैं रोहतक में था। 26 जून 1975 जब मुझे बंगलौर में बंदी बनाया गया से 18 जनवरी, 1977 तक जब मुझे बंगलौर जेल से रिहा किया गया, तो एक मीसा बंदी के रुप में, मैं आपातकाल के दौरान घट रही घटनाओं, जिनके बारे में मुझे जेल के भीतर पता चलता था कि प्रतिदिन डायरी लिखता था।

दिनांक 31 अगस्त, 1975 दिनांक के तहत, रोहतक जेल में, मैंने जो दर्ज किया वह निम्न है:

”आज भारतीय पत्रकारिता के लिए एक दु:खद दिन है। देश का एकमात्र व्यंग्य चित्र साप्ताहिक ‘शंकर्स वीकली‘ ने अपना प्रकाशन बंद कर देने का निर्णय किया है। अगर श्री शंकर और उनके साप्ताहिक को किसी मत के रूप में देखना ही हो तो यह वही शिविर होगा, जिसमें श्रीमती गांधी हैं। लेकिन वह भी आज के माहौल में दम घुटता हुआ महसूस करते हैं। और उन्होंने अपना साप्ताहिक बंद करने का निर्णय कर डाला। 31 अगस्त के अंतिम अंक में उन्होंने ‘फेयरवेल‘ (अलविदा) शीर्षक से संपादकीय लिखा। आपातस्थिति के विरूध्द इससे अधिक प्रताड़क शायद ही कुछ लिखा जा सकता हो। श्री शंकर ने लिखा है-

‘हमने अपने प्रथम संपादकीय में लिखा था कि हमारा उद्देश्य पाठकों को दुनिया पर, आडंबरी नेताओं पर, छल-कपट पर, कमजोरियों पर और स्वयं पर भी हंसना है। हमने लोगों हंसी-मजाक की चेतना पैदा की।

लेकिन तानाशाहियां हास्य को बरदाश्त नहीं कर सकतीं, क्योंकि लोग तानाशाह पर भी हंस सकते हैं और यह हो नहीं सकता। हिटलर के पूरे राज्यकाल में कोई भी बढ़िया कॉमेडी, यहां तक कि कोई भी बढ़िया व्यंग्य चित्र, कोई भी पैराडी वगैरह नहीं रची गई।‘

इस दृष्टि से यह दु:ख और परेशानी की स्थिति है कि भारत भी ज्यादा दु:खमय हो गया है। हंसी-मजाक जहां कहीं भी है, डिबिया की सीमा में बंद है। भाषा भी कामचलाऊ व औपचारिक हो गई है। हर धंधे में अपनी लफ्फाजी पैदा हो गई है। अर्थशास्त्रियों की दुनियां से बाहर अर्थशास्त्री अजनबी बन गया है। अनजान क्षेत्रों में लड़खड़ाता हुआ, गैर-अर्थशास्त्रीय भाषा से वह डरता हुआ चल रहा है। यही बात वकीलों, डॉक्टरों, पत्रकारों, अध्यापकों आदि पर लागू होती है।

आज के माहौल में असहज और टूटे हुए अनुभव करनेवाले पत्रकार अकेले शंकर ही हों, ऐसी बात नहीं है। श्री दुर्गादास द्वारा चलाया गया पत्र ‘स्टेट्स‘ भी बंद कर दिया गया है। मुझे निश्चित तौर पर लगता है कि सन् 1975-76 की समाचार-पत्र पंजीयन अधिकारी की रिपोर्ट में दु:खद या महत्वपूर्ण जानकारियां होंगी। हिटलर ने जब सत्ता हथिया ली थी तो पत्र-पत्रिकाओं की संख्या चार हजार सात सौ थी। जब नाजी राज खत्म होने को हुआ तो यह संख्या हजार से भी कम हो गई थी। यह प्रवृत्ति चलती रही तो यहां भी यही होगा।

2 COMMENTS

  1. पिछले दिनों माननीय श्री वैद्य जी द्वारा श्री राम बहादुर राय के भाषण को प्रवक्ता में दिया था.श्री आडवानी जी का लेख भी इसी की पुष्टि कर रहा है. भारत का मीडिया अब कोई चुभते हुए सवाल नहीं उठाता और केवल मजबूरी में ही सरकार विरोधी विचारों को स्थान देता है.ये वास्तव में ही एक खतरनाक ट्रेंड है. देश के बुद्धिजीवियों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और जितना अधिक हो सके उभरते हुए वेब मीडिया का प्रयोग करना चाहिए. आने वाले समय में वेब मीडिया ही अधिक प्रभावी हो पायेगा क्योंकि आज का इंटरनेट प्रेमी युवा वेब मीडिया से अपने को अधिक जोड़ता है और सरकार छह कर भी इस विधा पर पूरा नियंत्रण नहीं लगा सकती. अतः अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता के लिए वेब मीडिया का भरपूर प्रयोग करना चाहिए.

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