जलवायु परिवर्तन से जुड़े हैं चक्रवाती तूफ़ान

-डॉ. ललित कुमार
पिछले कुछ वर्षों से चक्रवाती तूफ़ान की मार भारत के समुद्री तटवर्तीय क्षेत्रों में ज्यादा देखने को मिल रही है। इसके चलते इन इलाकों में भयंकर तबाही का कहर राज्यों के बजट पर सीधा असर डाल रहा है। जलवायु परिवर्तन की वजह से देश के समुद्री क्षेत्रों या मैदानी भागों में बेमौसम बरसात का पैटर्न भी बदलता दिख रहा है। इससे किसानों की फसलों को नुकसान तो हो ही रहा है, साथ ही लोगों के जन-जीवन पर भी बुरा असर देखा जा रहा है। खासकर मध्यमवर्ग और मजदूर वर्ग इससे काफी हताहत है। करोड़ों रुपये की संपत्ति का नुकसान और लोगों की मौतें इन चक्रवाती तूफ़ानों के कारण अब आम होती जा रही हैं। देश के पूर्व क्षेत्र में हिंदी महासागर और पश्चिमोत्तर में अरब सागर का तापमान सामान्य से तीन से चार डिग्री बढ़ता जा रहा है, जिससे देश बार-बार ऐसे चक्रवाती तूफानों का सामना कर रहा है।
‘काउंसिल ऑन एनर्जी एनवायरनमेंट एंड वॉटर’ (सीईईडब्लू) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 75 फीसदी से अधिक जिले और हर साल देश की आधी से ज्यादा आबादी सूखे, बाढ़, गर्मी और शीत लहर की चपेट में आती जा रही है। वर्ष 2005 के बाद से मौसम की घटनाओं में बढ़ोतरी और बदलते मौसम के रुख के कारण ये जिले भारी नुकसान का सामना कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण पर प्रोग्राम की उत्सर्जन रिपोर्ट बताती है कि 2020 की इस सदी में तीन डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने की चेतावनी जारी की गई है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि पिछले सदी के मुकाबले जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत देश तापमान में 0.6 डिग्री सेल्सियस तापमान की वृद्धि से मौसमी घटनाओं का सामना कर रहा है। वर्ष 1970 से 2005 के बीच जहां मौसमी घटनाओं की 250 बड़ी घटनाएं हुईं, वहीं 2005 के बाद से अब तक ऐसी 310 घटनाएं हो चुकी हैं। इनमें लैंडस्लाइड, बाढ़, बादल फटना, सूखा, मूसलाधार बारिश, चक्रवाती तूफ़ान, टिड्डी-दल का हमला, सूखे, ओले पड़ना, तापमान वृद्धि, उल्का पिंड गिरना और ग्लेशियर्स पिघलना इत्यादि शामिल हैं।
कोरोना काल में हमने देखा कि इस तरह की घटनाओं में आई तेजी जलवायु परिवर्तन के बदलते पैटर्न का एक स्वरूप है, जहां 40 फीसदी जिलों में हर वर्ष बाढ़ की आशंका बनी रहती है। सीईईडब्लू की रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि मौसम में यह बदलाव 0.6 डिग्री सेल्सियस तापमान में वृद्धि के चलते हो रहा है। यही वजह है कि भारत विश्व के 5वें सबसे अधिक संवेदनशील देशों की श्रेणी में शामिल है। इसके चलते जिस कारण भारत ‘फ्लड कैपिटल’ बनता जा रहा है। रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया गया है कि पिछले 50 सालों में बाढ़ के मामलों में 8 गुना वृद्धि हुई है। वर्ष 1970 से 2005 तक हर वर्ष औसतन तीन मौसमी घटनाएं हुई हैं। जबकि 2005 के बाद से इनकी संख्या 11 हुई है। इस तरह से मौसमी घटनाओं से प्रभावित जिलों का औसत 19 था, जबकि 2005 में बढ़कर यह 55 तक जा पहुंचा। वर्ष 2019 में 16 मौसमी घटनाओं के कारण भारत के 151 जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। सीईईडब्लू की रिपोर्ट के अनुसार, देश में समुद्र के तटीय इलाकों में चक्रवात का कहर कुछ ज्यादा ही बढ़ा है। जिनमें 2005 के बाद से दोगुनी वृद्धि देखी गई है, यानी इन चक्रवाती तूफानों से प्रभावित जिलों की संख्या में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है। साथ ही पिछले एक दशक में 58 गंभीर तूफान के कारण 258 जिले प्रभावित हुए हैं।
खेती-किसानी पर असर
किसानों की चिंता सबसे ज्यादा यह है कि अप्रैल-मई का महीना गेहूं, तिलहन व दलहन की दृष्टि से सबसे अहम् होता है। इस महीने में गेहूं की फसल खेतों में पकी होती है, जिसे काटकर घर में लाना होता है लेकिन अब ऐसे समय पर बेमौसम बारिश की मार फसलों को ज्यादा नुकसान पहुंचा रही है। पिछले कुछ वर्षों से गेहूँ की पैदावार वालों राज्यों में किसानों की फसलों का काफी नुकसान हो रहा है। गेहूँ की फसलों का नुकसान किसानों की उम्मीदों पर पानी फेर दे रहा है। इसी मौसम में ओलावृष्टि और तेज हवाओं के साथ बारिश का होना, जो रबी की फसल (गेहूं, सरसों, चना, मटर, मसूर व आलू) को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है, जलवायु परिवर्तन का एक बड़ा कारण माना जा रहा है।
पेरिस समझौते से बने नियमों को ताक पर रखकर अमेरिका जैसा देश ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने में लगा है, तो ऐसे में भारत सहित अन्य विकासशील देशों से कैसे उम्मीद की जा सकती है ? जबकि ऐसे देशों को अपनी औद्योगिक इकाईयों के ज़रिए बदलते जलवायु परिवर्तन के साथ कदम ताल करके चलना है। इसलिए इन देशों के पास एक बड़ी चुनौती तो है ही। वर्ष 2020 की क्लाइमेट चेंज की इंडेक्स के अनुसार, भारत पहली बार 10 देशों की सूची में शामिल हुआ है। भारत कार्बन उत्सर्जन के मामले में 9वें स्थान पर है, बाकी 8 देशों की तुलना में भारत का कार्बन उत्सर्जन बहुत कम है। ऐसे में भारत पेरिस समझौते के नियमों का पालन करके अपनी औद्योगिक गतिविधियों को जारी करके इस लक्ष्य को छू सकता है। बदलते मौसम की मार इस समय गरीब देशों के ऊपर ज्यादा है। अप्रैल 2021 में ‘अर्थ साइंस रिव्यूज’ जर्नल में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर में यह बात सामने आई है कि पश्चिम एशिया के रेगिस्तानों के कारण वायुमंडल में पहुंचने वाले धूल के कण इतने गर्म होते हैं कि वे अरब सागर के ऊपर समुद्र पर दबाव बनाते हैं, जो एक तरह का गर्म पंप जैसा बनता है। साथ ही वे महासागर के ऊपर से समुद्र की नमी को खींचता है और भारतीय उपमहाद्वीप के ठीक ऊपर जाकर सीजनल बारिश वाला मानसून बनने लगता है, जो तेज हवाओं के जरिए धूल की कणों को ऊपर है फेंक देता है।
इसी प्रकार ‘अर्थ सिस्टम डाइनेमिक्ट’ जर्नल और जर्मनी के ‘पोट्सडाम इंस्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपेक्ट’ के रिसर्च में यह भी बात निकलकर सामने आई है कि जलवायु परिवर्तन के चलते तापमान में बढ़ोतरी और मानसून की बारिश में 5 फीसदी का इजाफा हुआ है। साथ ही औद्योगिक क्रांति के आने से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, यह वैश्विक गर्मी दोगुनी रफ्तार से बढ़ रही है। इस मामले में सबसे कम जिम्मेदार देश भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश हैं, जो गरीब देशों की सूची में शामिल हैं। ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के मामले में अन्य देशों की तुलना में ये देश कृषि पर ज्यादा निर्भर हैं और जो मौसम की मार से भी सबसे ज्यादा पीड़ित हैं।
मानसून बनाम मौसम का मिजाज
मानसून (अरबी भाषा) का मतलब हवाओं की दिशाओं में दो बार होने वाले परिवर्तन से है, जो गर्मी में जमीन पर उष्ण वर्षा (वार्म रेन) लाती है और सर्दियों में ठंडी सूखी हवाओं को समुद्र की ओर भेजती है। इन्हीं कारणों से भारत के कुछ हिस्सों में समर मानसून की आवाजाही से बड़े बदलाव देखे जा रहे हैं। हर साल किसानों की चावल और गेहूं की फसलों पर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन द्वारा बदलते मौसम के कारण धूप रुकने लगती है और धरती ठंडी-गर्मी होने लगती है। इन्हीं कारणों को मानकर मौसम वैज्ञानिक इस मौसम को अस्त-व्यस्त मानकर चल रहे हैं, जिसे एक बदलते मौसम का पैटर्न समझा जा रहा है। जलवायु परिवर्तन वैसे तो धरती को गर्म कर रहा है, लेकिन इस भू-उपयोग में होने वाले बदलाव और वाहनों से निकलने वाले धुएं और फसल को जलाने से होने वाले ऐरोसोल उत्सर्जन ठंडक पहुंचाने वाला एक फैक्टर है। वैज्ञानिक मानते हैं कि वर्ष 1950 से भारत में समर मानसून बारिश में कमी आई है और ऐसा ऊर्जा को सोखने वाले ऐरोसोल्स के धूप के प्रभाव को कम करने की वजह से हो रहा है।
ग्लोबल वार्मिंग की चुनौती
‘यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी’ सेटेलाइट की तस्वीरों से यह पता चला है कि धरती के दक्षिण ध्रुव पर अंटार्कटिका के पश्चिमी हिस्से में सोन्ने आइस सेल्फ से बर्फ का एक विशालकाय पहाड़ टूटकर अलग हो गया है। वैज्ञानिक इसे ग्लोबल वार्मिंग की एक चुनौती के रूप में देख रहे हैं। दुनिया के सबसे बड़े हिमखंड की लंबाई 170 किमी और चौड़ाई 25 किमी है, जिसके कारण आने वाले कुछ सालों में समुद्र का जलस्तर बढ़ सकता है। ए-76 नाम के इस विशालकाय हिमखंड का आकार 4,320 किमी है। धरती के क्षेत्रों पर नजर रखने वाली यूरोपियन यूनियन के सेटेलाइट ‘कॉपरनिक्स सेंटिनल’ ने यह तस्वीर खींची है। ब्रिटेन के अंटार्कटिका दल ने सबसे पहले इस हिमखंड के अलग होने की जानकारी दुनिया के सामने रखी है। ‘नेशनल स्नो एंड आइस डाटा सेंटर (एनएसआईडीसी) के अनुसार, हिमखंड टूटने से समुद्र में सीधे तौर पर वृद्धि तो नहीं होगी, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से जल स्तर बढ़ सकता है, जो ग्लेशियर के बहाव और बर्फ के टुकड़ों की धारा को कम कर सकता है। साथ ही एनएसआईडीसी की रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि अंटार्कटिका धरती के कुछ हिस्सों की तुलना में तेजी से गर्म हो रहा है, जहां बर्फ के रूप में इतना पानी जमा है, जो पिघलने पर दुनिया भर के समुद्र का स्तर 200 फीट तक बढ़ा सकता है। ‘नेचर’ पत्रिका के मुताबिक 1880 के बाद से समुद्र का स्तर 9 इंच तक बढ़ गया है।
बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस के संदर्भ में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि पूरी दुनिया में 2016 से 2020 के बीच पर्यावरण को लेकर चिंता जताने वाले नागरिकों में 16 फीसदी की जागरुकता बढ़ी है। अब विकासशील देशों में भी नागरिक ज्यादा सचेत होने लगे हैं, जिसे ‘इको अवेकनिंग’ नाम दिया है, यानि जागरुकता बढ़ने पर प्रकृति के खतरे अभी भी बने हुए हैं। अमेजिन बेसिन में रोजाना 150 एकड़ वन काटे जा रहे हैं। पृथ्वी पर जहां करीब 80 लाख जीव-जंतु रहते हैं, वहां अगले कुछ दशकों में 10 लाख से ज्यादा प्रजातियां खत्म होने को है। भारत में प्रकृति से जुड़े विषय पर 190% ज्यादा गूगल सर्च किया जा रहा है। ट्विटर पर 2016 से 2.32 लाख ट्वीट के मुकाबले 2020 में 15 लाख जैव विविधता विषय पर सर्च किया गया है। जबकि अखबारों में 2016 से 1,33,888 लेख प्रकाशित हुए, वहीं 2020 में यह आँकड़ा 1,68,556 तक जा पहुंचा। अक्टूबर 2020 में इसका ताजा उदाहरण हमने तब देखा, जब महाराष्ट्र सरकार ने आरे जंगलों को संरक्षित घोषित किया। यह एक अच्छी पहल है, जिसमें सरकार और आम जनता की एक अहम भूमिका बहुत जरूरी है।

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