कांगे्रस के वरिष्ठ नेता शिव डहरिया साहब से अपनी ना तो दोस्ती है और ना ही दुश्मनी। जब वे विधायक थे तब एक-दो बार विधानसभा में हैलो-हॉय जरूर हुआ। पेशाई होड़ भी नही है। कहां वे सुघड़ राजनीतिज्ञ और कहां अपन टुच्चे से पत्रकार लेकिन दोनों गुरूघासीदास बाबा के इस सिद्धांत पर भरोसा करते हैं कि हमेशा सच बोलो। अब तक के अपने जीवन में पहली बार देखा है कि कोई नेता चंद दिनों पूर्व अपने परिवार के साथ घटे हत्याकाण्ड को इस कदर राजनीतिक अवसरवाद में तब्दील कर सकता है? आप समझ गए होंगे कि मैं कांग्रेस नेता शिव डहरिया जी के उस आरोप की बात कर रहा हूं जिसमें उन्होंने अपने परिवार के साथ हुए दु:खद हादसे के पीछे पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का हाथ होने का इजारेदाराना प्रहार किया है। हालांकि जिस तरह की बातें हो रही हैं या पुलिस जांच में जो संकेत मिले हैं, उसके मुताबिक हत्यारा उन्हीं के घर-गांव में है?
छत्तीसगढ़ की राजनीति में तेजी से उभरे चेहरों में हमन शिव डहरिया ला जानते हैं। जमीन से जुड़े सतनामी समुदाय से हैं और जोगी सरकार में वे संगठन और पार्टी में खासी पहुंच भी रखते थे। डहरिया के साथ-साथ पार्टी के दिगगज भी मानते हैं कि उन्हें फर्श से उठाकर अर्श तक पहुंचाने में जोगी परिवार का आर्शीवाद रहा। फिर क्या वजह रही होगी कि सतनामी समाज के इस धरातलीय नेता के मुंह से हाई-फाई आरोप निकला? डहरिया साहब ने तर्क रखा कि जोगी परिवार ने अपनी नई पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस में शामिल होने के लिए मुझ पर दबाव बनाया था, जिसे मैंने नहीं माना इसलिए शक है कि मुझ पर दबाव बनाने के लिए यह साजिश रची गई। अपने-अपने आकाओं की चापलूसी करने वाले कांग्रेसियों को छोड़ दें तो अधिकांश इसे डहरिया का महज पब्लिसिटी पाने और प्रदेश कांग्रेस के आलाकमान के समक्ष वफादारी प्रगट करने की असफल हाँक भर कह रहे हैं। मैंने प्रदेश कांग्रेस के सर्वोच्च नेताओं से चर्चा की तो उनने साफ कहा कि यह आरोप लगाने के पूर्व उन्होंने हमसे कोई सलाह नही ली। अगर लेते भी तो वे इस तरह के गटर-लेवली बयान का समर्थन हरगिज नही करते।
साफ है कि जोगी जी की छाप लेकर जी रहे डहरिया साहब ने आलाकमान के प्रति स्वामीभक्ति प्रगट करने के उद्देश्य से यह आरोप लगाया। जनता के बीच भी दस में से सात लोगों ने यही रॉय रखी। न्याय मांगना और किसी को षड्यंत्री करार देने में बड़ा फर्क है। पता नही, डहरिया साहब समझ पाए कि नही मगर हत्याकाण्ड के बाद उनके प्रति जनता की जो सहानुभूति उमड़ी थी, वह भी इस बयान से धुल गई है। यह भारतीय राजनीति का फिनोमिना बन चुका है कि राजनीतिक आकाओं के प्रति वफादारी साबित करने के लिए आप किसी भी स्तर तक जा सकते हैं मगर वह परिवार में घटी दुर्घटना और उससे हुई मौत को भुनाने के स्तर पर कदापि स्वीकार नही हो सकता। इसे बेहतर ढंग से साबित किया खुद गांधी परिवार ने। बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस जैसी बेचारी और नामुराद पार्टी में राजनीति के लिए क्या यही बचा है कि आप अपनी मां की मौत या पिता पर हुए हमले को राजनीतिक हथियार बना लें?
हालांकि यह परिपाटी सालों से चली आ रही है। कभी सोनिया गांधी के समक्ष यह नारा लगा करता था कि सोनिया हम शर्मिंदा हैं-राजीव के कातिल जिंदा हैं क्योंकि मैडम के सामने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहा राव या केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह जैसे नेता खड़े रहते थे जिन पर राजीव गांधी के हत्यारों को जल्द से जल्द सजा दिलवाने का दबा व बनाया जाता था। वैचारिक प्रतिबद्धता को फिलहाल भूल जाऊं तो मैं सोनिया गांधी का उस समय मुरीद हुआ था जब वे प्रधानमंत्री जैसा सर्वोच्च पद ठुकराकर भारतीय राजनीति की दधीचि साबित हुई थीं। उनकी बिटिया और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की नई उम्मीद नजर आ रही प्रियंका गांधी ने भी एक बार बड़ा दिल दिखाते हुए कहा था कि मेरे पिता के हत्यारे तो उनके साथचले गए लेकिन षड्यंत्र रचने के आरोप में जो लोग सजा काट रहे हैं, उन्हें रिहा कर देना चाहिए।
संस्कार की गहराई देखिए कि डहरिया के इस आरोप पर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने बड़प्पनभरा बयान दिया कि शिव के परिवार से उनके पारिवारिक संबंध हैं। छोटे जोगी ने भी गुस्से को जब्त करते हुए कहा : हमारे पारिवारिक रिश्ते इस कदर रहे कि मेरी शादी में उनके माता-पिता ने एक एकड़ जमीन दान में दी। और जब उनके माता-पिता पर प्राणघातक हमला हुआ तो जो चुनिंदा लोग डहरिया के पास सबसे पहले पहुंचे, उनमें से एक मेरे पिताजी भी थे। भगवान ऐसा दु:ख किसी को ना दे। यहां दरवाजे पर खड़ा गंभीर सवाल यह भी है कि बिना हाथ-पैर के इस आरोप से डहरिया जी को क्या मिला या मिलेगा?
साफ कर दूं कि मैं जोगी परिवार को बचाने की कोशिश नही कर रहा। वे तो मुझे दक्षिणपंथी विचारों वाला पत्रकार समझकर कन्नी काटते रहे हैं मगर जब हमारे राजनीतिक जीवन में सत्य-निष्ठाएं या बेसिर-पैर के आरोपों से राजनीतिक शुचिता को धूमिल करने की कोशिश हो तब पत्रकार नही लिखेगा तो कौन कहेगा? परिपाटी सी हो गई है कि कोई बुरा राजनीतिक घटनाक्रम घटा नही कि शक की सुई जोगी परिवार की ओर फेर दी जाती है। यह ठीक है कि बोए पेड़ बबूल के तो आम कहां से होय? साीनियर-जूनियर जोगी भलीभांति जानते हैं कि सन् 2000 से 03 तक के उनके शासनकाल में जो पाप हुए, उससे प्रभावित लोगों के श्रॉप से वे या उनकी पुरानी पार्टी कांग्रेस, आज तक नही उबर सकी। फिर एक बार जो छबि जोगीद्वय की बनी, वह बीच-बीच में उठते निराधार आरोपों से और मजबूत होती चली गई।
हालांकि जोगी विरोधियों के षडयंत्र या आरोप जोगीद्वय का बाल बांका तक नहीं कर सके। अगर आप भुलुंठित नही हुए होंगे तो जगगी हत्याकाण्ड से छोटे जोगी बाइज्जत बरी हो चुके हैं। जूदेव-जोगी सीडी काण्ड में भी वे पाक साफ निकले। और यदि झीरम घाटी काण्ड की बात करें तो इस मामले में भी शक की उंगलियां नक्सली या सरकार से ज्यादा जोगीद्वय पर उठाई गई, लेकिन 10 साल के कांग्रेसी शासन यूपीए सरकार में उनसे पूछताछ तक नही हुई। एनआईए ने भी जोगीद्वय की तरफ आंख तक नही फेरी। काश शिव डहरिया जी समझ पाते कि ऐसे आरोपों से सहानुभूति नही मिलती बल्कि लोग आपके विवेक-कौशल पर ठहाके लगाते हैं, जैसे मैं लगा रहा हूं।
अनिल द्विवेदी