दाल: जमाखोरों पर नकेल के सार्थक परिणाम

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arharप्रमोद भार्गव

दाल के जमाखोरों और कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ छापा डालकर नकेल कसने की कार्यवाही से जो सार्थक परिणाम निकले हैं, उससे साफ है कि बाजार में महंगी होती दालों का कारण उपज की कमी से नहीं थी। क्योंकि पांच हजार टन दालें आयात कर लिये जाने के बावजूद कीमतें घट नहीं रहीं थीं। जबकि 36 हजार टन दाल के भंडार जप्त करने के साथ ही कीमतें गिरने लगी हैं। इन दालों की कीमत 125 करोड रूपये आंकी गई है। इस जप्ती से पता चलता है कि खाद्य सामग्रियों के भाव इनकी ज्यादा खपत के दिनों में सुनियोजित ढंग से बढ़ा दिये जाते हैं, जिससे जमाखोर चंद दिनों में ही करोड़ो के बारे न्यारे कर लें। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि जब अगस्त-सितंबर में प्याज की कीमतें बढ़ी थीं, तब व्यापारियों ने 8 हजार करोड रूपये उपभोक्ताओं की जेब से झटक लिये थे। नीति आयोग ने एक अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है। जाहिर है जमाखोरी पर निरंतर निगरानी और कार्यवाही की जरूरत है।
हालांकि जमाखोरी के साथ खाद्य सामग्रियों की मंहगाई के लिये गलत नीतियां भी जिम्मेबार हैं। इन नीतियों के चलते किसान को खाद्य वस्तुओं की बजाय,ईंधन,प्लास्टिक और फूलों की फसल उगाने के लिए,कृषि विभाग ने जागरूकता के अभियान चलाए। यही वजह रही कि भूमंडलीकरण के दौर में दालों की पैदावर लगातार कम होती चली गई। बीते चार चाल में दाल का रकबा लगभग 15 हजार हेक्टेयर कम हुआ है। नतीजतन दाल-उत्पादन में दो दशक पहले आत्मनिर्भर रहा भारत,ऊंची कीमत में दालें आयात के लिए विवश हो गया है। हमारे यहां दलहन का कुल उत्पादन 170 लाख टन है,जबकि मांग 270 लाख टन है। मांग और आपूर्ति के इस बड़े अंतर के चलते जमाखोरों और दाल के आयातक व्यापरियों के खूब बारे-न्यारे हो रहे हैं। दाल के क्षेत्र में कृषि दुर्दशा का लाभ बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी धड़ल्ले से उठा रही हैं।
दालें भारत में प्रोटीन का प्रमुख स्त्रोत मानी जाती हैं। लेकिन स्थानीय मांग पूरी करने के लिए दाल उत्पादन में किसान को बड़ी मशकक्त करनी पड़ती है। तुअर दाल की फसल आठ माह में तैयार होती है। बावजूद किसान को उचित दाम नहीं मिलते हैं। गोया,किसान साल में एक फसल उगाने में रुचि कैसे लें ? विदेशों में रहने वाले भारतीय भी सबसे ज्यादा तुअर की दाल खाना पसंद करते हैं। देश में सबसे अधिक चने और अरहर की खेती होती है। चना का उत्पादन 70 लाख टन प्रति वर्ष है,वहीं अरहर की पैदावार 27 लाख टन है। दलहन के कुल उत्पादन में इनका योगदान क्रमश: 41 और 16 प्रतिशत है। इनके अलावा मूंग और उड़द की दालें पैदा होती हैं। देश में 10 राज्यों के किसान दालों की खेती करते हैं। इनमें सबसे अधिक उत्पादक राज्य महाराष्ट्र है। महाराष्ट्र की दालों के कुल उत्पादन में भागीदारी 24.9 फीसदी है। इसके बाद कर्नाटक में 13.5,राजस्थान में 13.2,मध्यप्रदेश में 10 और उत्तर प्रदेश में 8 फीसदी दालें उगाई जाती हैं। दालें मुख्य रूप से खरीफ की फसल हैं,जो वर्षा ऋतु में बोई जाती हैं। इस ऋतु में कारीब 70 प्रतिशत दालों का उत्पादन होता है। किंतु औसत से कम बारिश होने के कारण अधिकतर राज्यों में फसल चैपट हो गई है। इस कारण दालों के दामों में उत्तरोत्तर वृद्धि तो हो ही रही है,आयात की मात्रा भी बढ़ानी पड़ रही है। नतीजतन विदेशी मुद्रा भी बड़ी मात्रा में खर्च हो रही हैं।
वाण्ज्यि एवं उद्योग मंडल का मानना है कि दालों की मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए सरकार को एक करोड़ टन दालें आयात करनी होंगी। वित्तीय वर्ष 2013-14 में 1.9 अरब डाॅलर की दालें आयात की गई थीं। जबकि 2014-15 में आयात की वृद्धि में 36.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई,मसलन 2.6 अरब डाॅलर की दालें आयात की गईं। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 66 करोड़ डाॅलर की दालें आयात की जा चुकी हैं। दूरी तिमाही का आंकड़ा आना शेष है। वर्ष के बांकी छह माह में कितनी दालें आयात होंगी,इसकी जानकारी अप्रैल 2016 में मिलेगी। तय है,दाल के क्षेत्र में डरावनी तस्वीर पेश होनी है। बावजूद गुजरात के पोरबंदर बंदरगाह से आयात दालों के बोरे लावारिश अवस्था में पड़े हाने की खबरे आ रही हैं। प्रशासनिक लापरवाही का यह बेहद चिंताजनक पहलू है।
दालों के भाव 200 रूपए से ऊपर पहुंचने का प्रमुख कारण जमाखोरी और आयात का कुच्रक है। टाटा,मंहिद्रा,ईजी-डे और रिलांइस जैसी बड़ी कंपनियां जब से दाल के व्यापार से जुड़ी हैं,तब से ये जब चाहे तब मुनाफे के लिए दाल से खिलवाड़ करने लग जाती हैं। जब कंपनियां बड़ी तादाद में दालों का भंडारण कर लेती हैं,तो भावों में कृत्रिम उछाल आ जाता है। मीडिया दाल के बढ़ते भावों को गरीब की थाली से जोड़कर उछालता है। तब अक्सर सरकार दाल के आयात के लिए तो विवश हो जाती है, लेकिन जमाखोरों पर शिकंजा कसने की पहल मुश्किल से ही करती है। नतीजतन देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हर हाल में पौ-बारह बने रहते हैं। इन कंपनियों का दबदबा इतना है कि कोई भी राज्य सरकार इनके गोदामों पर छापे डालने का जोखिम उठाने का साहस नहीं जुटा पाती। लिहाजा कालाबाजारी बदस्तूर रहती है। ये कंपनियां मसूर और मटर की दाल कनाडा से,उड़द और अरहर की दाल बर्मा के रंगून से,राजमा चीन से और काबुली चना आस्ट्रेलिया से आयात करती हैं। इनके अलावा अमेरिका,रूस,केन्या,तंजानिया,मोजाबिक,मलावा और तुर्की से भी दालें आयात की जाती हैं। इस वर्ष हालात ये हो गए हैं कि भारत में दालों की बढ़ती मांग के चलते अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी दालों के भाव में उम्मीद से ज्यादा उछाल आ गया है। कनाडा ने मसूर दाल के भाव पिछले साल की तुलना में दोगुने कर दिए हैं। कनाडा एशियाई देशों में सबसे ज्यादा दालों का निर्यात करने वाला देश है।
इस नाते यह कहने में कोई दो राय नहीं कि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियाों की बात तो छोड़िए,देशी कंपनियां भी भारतीय कृषि को बदहाल बनाए रखना चाहती हैं। आयात की जब इन्हें खुली छूट मिल जाती है तो ये जरूरत से ज्यादा दाल व तेल का आयात करके भारत को डंपिंग ग्राउंड बना देती हैं। तय है,कालांतर में भारत की तरह दूसरे देशों में यदि मौसम रूठ जाता है तो दाल और प्याज की तरह खाद्य-तेल के भाव भी आसमान छूने लग जाएंगे। सस्ते तेल का आयात जारी रहने की वजह से ही भारत में तिलहन का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। बावजूद हमारे नेता ऐसी नीतियों को बढ़ावा देने की कोषिषों में लगे रहे हैं कि दलहन और तिलहत के क्षेत्र में भारत पूरी तरह परावलंबी हो जाए। इस परिप्रेक्ष्य में पूर्व कृषि मंत्री बलराम जाखड़ ने सलाह दी थी कि भारत अफ्रीका में दालें उगाए और फिर आयात करे। इसी तरह संप्रग सरकार में कृषि मंत्री रहे शरद पवार म्यांमार और उरूग्वे में दालें पैदा कराकर आयात करना चाहते थे। ये सुझाव समझ से परे हैं। आखिर ऐसे क्या रहस्य है कि हमारे नीति-नियंता विदेशी धरती पर तो दाल उत्पादन को प्रोत्साहित करना चाहतें हैं,किंतु देश के किसानों को लाभकारी मूल्य देना नहीं चाहते ? ऐसी मंशाएं देश की खाद्य सुरक्षा को जान-बूझकर संकट में डालने जैसी लगती हैं।
भारतीय चिकित्सा एवं अनुसंधान परिषद का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को रोजाना 65 ग्राम दाल खाना जरूरी है। लेकिन फिलहाल प्रति व्यक्ति 40 ग्राम ही दाल मिल पा रही है। बढ़ती कीमतों के कारण उसकी मात्रा प्रति व्यक्ति 30 ग्राम प्रति दिन रह गई है। भोजन में दाल का घटना,कुपोषण और सेहत के लिए बेहद हनिकारक है। मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले झाबुआ में 2009 में दाल की कमी के चलते पैदा हुए कुपोषण ने महामारी का रूप ले लिया था। सामाजिक संगठनों के अध्ययनों से पता चला है कि जब दालें गरीब की थाली से लुप्त होने लगती हैं तो आदिवासी बस्तियों में बटला और सूखी दालों का इस्तेमाल बढ़ जाता है। यह दाल अन्य दालों की तुलना में सस्ती तो होती है,लेकिन सेहत पर बुरा असर डालती है। ये हालात खाद्य सुरक्षा को संकट में डालने वाले हैं। पूर्व कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार ने संसद में बताया था कि हर साल 40 फीसदी,यानी 50 हजार करोड़ रूपए के कृषि उत्पाद रख-रखाव की लापरवाही से बर्बाद हो जाते हैं। इसी तरह एफएओ का कहना है कि देश में 40 फीसदी फल-सब्जियां उपभोक्ता तक पहुंचने से पहले नष्टहो जाती हैं। जाहिर है,दालों की कीमतों पर काबू पाने और आम आदमी की थाली में फिर से दालों की वापसी हो,इस हेतु एक कारगर नीति और उस पर सख्ती से अमल की जरूरत है।

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  1. इस सार्थक परिणाम की परिणति कहाँ होगी?दाल दो रूपये प्रति किलोग्राम कम हो जायेगा.बड़ा सा समाचार आएगा दाल के दामों में भारी गिरावट.दाल की कीमत २०००र्पये प्रति टनया २०० रूपये प्रति क्विंटल कम.आंकड़ा दुरुस्त,पर इस पर किसी का ध्यान नहीं जाएगा कि एक साल पहले यही दाल ६० रूपये से ७० रूपये के बीच था. किसी को ही शायद याद रहे,पर एक बात है .जसवंत सिंह के नेतृत्व में हेमा मालिनी का प्रदर्शन शायद इसे भूलने न दे.जब तक वह फेशबुक से नहीं हटेगा,तब तक यह ब्लफ़ नहीं चल पायेगा. क्या उम्मीद की जाये कि अगर भाजपा बिहार में हार भी जाये तो दाल अपने पुराने मूल्य के आस पास आ जाएगा,क्योंकि जीतने के बाद तो भाजपा ने इसे पुराने मूल्य पर लाने का वादा किया है.हो सकता है कि तब तक चुनावी खर्च का हिसाब किताब भी हो जाए.

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