दलित हित के बगैर सामाजिक समरसता असंभव

-गोपाल प्रसाद-
Atrocities-on-Dalits

दलितों पर अत्याचार कोई नई बात नहीं है. आए दिन ऐसी घटनाएं पढ़ने/ सुनने को मिलती रहती है की दलित दूल्हे को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया गया, इसके अतिरिक्त नाबालिग दलित बालिकाओं के साथ छेड़छाड़ या बलात्कार की घटनाएं भी होती रहती है. इस तरह की घटनाओं पर तब तक अंकुश नहीं लग सकता जब तक की समाज की दलित समुदाय के प्रति मानसिकता नहीं बदलती. पढ़ाई-लिखाई से अनुसूचित जाति समाज में जाग्रति आई है, पहले जहां अत्याचार को अपनी नियति मानकर चुप बैठ जाते थे, वहीं अब इसके खिलाफ आवाज उठाई जाने लगी है. मुकदमों की बढ़ती संख्या यही दर्शाती है. समाज में यह चेतना किसी हद तक नकारात्मक भी है. कई लोगों ने दलित अत्याचार रोकने के नाम पर धंधा शुरू कर दिया है. कई बार तो यह देखने में आया है कि लोगों को धमकाने, प्रताड़ित करने के लिए भी एट्रोसिटी के मुकदमे दर्ज करवा दी जाते हैं. कुछ शातिर दिमाग लोगों ने इसको अपने विरोधियों को निपटाने का हथियार बना लिया है. छिटफुट मारपीट में भी एट्रोसिटी का मुक़दमा दर्ज करवा दिया जाता है. कई ऐसे उदहारण हैं, जिसमें लोगों ने तरह-तरह के खेल खेले. कई लोगों के तो वारे-न्यारे हो गए, कई लोग रातों-रात स्टार हो गए. जिन लोगों ने उस स्थिति को भोगा, उनको कोई पूछने वाला नहीं है.

इसमें कोई शक नहीं की राजस्थान के गांव में आज भी सामंतवादी सोच कायम है. दलितों को मूल मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं है. सदियों से जो व्यवस्था कायम है उसमें रतीभर भी बदलाव नहीं आ सका है. फिल्म “गुलामी” में इसको सही रूप से चित्रित किया गया है. कुंआरी या ब्याही दलित स्त्रियों को विपरीत परिस्थितियों में जीवन जीना पड़ रहा है. यदि परिवार में लठैत है तो उनकी अस्मत बची रह सकती है. गांव में एक घर है तो उनके साथ बदतमीजी होना स्वाभाविक है. कई बार अपराधी प्रवृति के दबंग इनके साथ बलात्कार कर देते हैं. अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ ये यदि आवाज उठाती हैं तो न्यायलय की लंबी और थका देनेवाली प्रक्रिया से इतनी हताश हो जाती है कि वह इससे पिंड छुड़ाने की कोशिश करती है, नतीजा यह होता है की वह खुद यह स्वीकार कर लेती है की उसके साथ कुछ नहीं हुआ. बलात्कार के ज्यादातर मामलों में गांव और प्रभावशाली लोगों का इतना दबाब होता है की समझौता करना पड़ता है.मजबूरी यह होती है की गांव में ही रहना है और यदि अपने बयान पर कायम रहना है तो गांव छोड़ना पड़ेगा. ऐसे हालत में अत्याचारियों को सजा नहीं मिल पाती है. इस तरह के मामलों में यह देखा गया है की पुलिस का रवैया भी रफा-दफा करने का होता है. पुलिस भी प्रायः लंबी कानूनी प्रक्रिया का हवाला देते हुए समझौता की ही सलाह देती है.

यहां एक चीज देखने में आती है वह यह है कि दलित समुदाय में भाईयों में खून खराबा हो जाने पर उतना हल्ला नहीं होता, जितना किसी सवर्ण द्वारा दलित को भला -बुरा कहने का. किसी से तू-तू, मैं-मैं हो जाने पर भी एट्रोसिटी का मुक़दमा दर्ज करा दिया जाता है. दलित समुदाय को भी इस मानसिकता में बदलाव करना होगा. समाज में रहते हुए छोटे-मोटे झगड़े आम बात है. घर-परिवार के झगड़े भी ज्यादा नहीं खीचे जाते तो इन सवर्ण समुदाय के लोगों के साथ हुए झगड़े को भी ज्यादा नहीं खींचा जाना चाहिए. दलित इस बात पर बड़ा गर्व करते हैं की उनके समुदाय में कई महापुरुष पैदा हुए जिस पर वे गर्व कर सकते हैं. दलितों में वही नेता माना जाता है जो सवर्णों को ऊंची आवाज में गाली देता हो. दलित वर्ग पर अत्याचार हुए हैं, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन दूसरे समुदाय को गाली देते रहने से तो किसी का भला नहीं हो सकता. दलित समुदाय को चाहिए की वह अपनी मानसिकता का विस्तार करे और सवर्ण समुदाय को चाहिए की अपना दिल बड़ा करे. समय बदल रहा है, यदि अभी नहीं बदले तो समय बदल देगा. देश, समाज एवं समुदाय का हित इसी में है की समाज में सामाजिक समरसता कायम रहे, सभी वर्ग एक दूसरे से जुड़े रहें और महसूस करें की दलितों का भी अपना सम्मान है. आज यह पहल समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है.

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