जयराम विप्लव
लाल आतंकवाद ( माओवाद ) समर्थक बताएंगे कि दलितों/ वंचितों /आदिवासियों की हत्या कैसा “वर्ग-संघर्ष” है ? एक दशक पहले हुए दंगों पर हर रोज गला साफ़ करने वाले दिल्ली में जमे कुबुद्धिजीवी लोग माओवादियों द्वारा किये जा रहे सामूहिक नरसंहारों के ऊपर चुप्पी क्यों साधे रहते हैं ? इस तरह की घटनाओं पर कुछ तो बोलो , कभी तो जंतर-मंतर आओ धरना देने ! या फ़िर इतना ही कह दो कि माओवादी हिंसा हिंसा ना भवति : | लाल आतंक के समर्थक कुबुद्धिजीवियों तुम्हारी इस खामोश मिजाजी के पीछे की सुर्ख सच्चाई समय के साथ जनता के सामने आ रही है | और ये सच्चाई किसी और की कोशिशों से नहीं बल्कि तुम्हारे हथियारबंद दस्तों के कुकर्मों से सामने आ रही है |
बीते सोमवार को बिहार के मुंगेर जिले के दरियापुर में माओवादियों ने बिना कारण अनुसूचित जाति-जनजाति संघ के प्रखंड अध्यक्ष बजरंगी पासवान (55) तथा पश्चिमी रमनकाबाद पंचायत के वनवर्षा गांधी टोला निवासी (40) मदन दास सहित 5 दलितों की नृसंश हत्या कर दी | वहीं मोहनपुर निवासी संजय पासवान, खंडबिहारी निवासी प्रमोद पासवान व असरगंज निवासी सौरव दास को अगवा कर लिया । लेकिन स्थानीय मीडिया में प्रकाशित इस खबर को किसी राष्ट्रीय चैनल /अखबार / पत्रकार ने उल्लेखित करके प्रतिकार करने की कोशिश नहीं की | तो क्या यह मानकर चला जाए कि इनकी नजर में लाल झंडे के नीचे किसी की भी हत्या जायज है ?
गौरतलब है कि बिहार -झारखण्ड में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब माओवादियों ने दलितों /वंचितों /आदिवासियों के लिए लड़ाई के नाम पर उन्ही की हत्या की है | 17 फरवरी 10 को नक्सलियों ने जमुई जिले के फुलवड़िया गांव पर धावा बोलकर 11 आदिवासियों की हत्या कर दी थी। 2 जुलाई 2011 को मुंगेर जिले में धरहरा प्रखंड के बंगलवा पंचायत के करेली गांव में आदिवासी और घटवार जाति के 6 लोगों को माओवादियों ने गोलियों से भून दिया था ।
वैसे लाल क्रांति से लाल आतंकवाद का यह बदलाव एक दिन में नहीं हुआ है | बिहार की धरती पर 1980 से 2000 के कालखंड में माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर और पीपुल्स वार ग्रुप जैसे माले समर्थित हथियारबंद दस्तों ने दर्जनों हत्याकांड करके अनर्गल हिंसा और आतंक का उदाहरण प्रस्तुत किया था जिसकी वजह से कई निजी जातीय सेनाओं को प्रतिहिंसा के लिए खड़ा करने का मौका मिला और माओवादी हिंसा से प्रभावित किसानो-जमींदारों का समर्थन भी हासिल हो पाया | हालाँकि हिंसा हो या प्रतिहिंसा दोनों निंदनीय और सभ्य समाज में अस्वीकार्य होने चाहिए |
दरअसल,1967 में बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ नक्सलवादी आंदोलन बिहार तक पहुँचते-पहुँचते अपने मूल स्वरूप और उद्देश्य से भटकने लगा था | नक्सलबाड़ी की मिटटी चेहरे पर पोत कर अपना असली चेहरा छुपाने की कोशिश की जाती रही जिसे शुरूआती दो दशकों में बिहार के वंचित लोग पहचान नहीं पाए और उनका साथ देते रहे | 80 का दशक खत्म होते -होते वाम विचारधारा के चरमपंथी / नक्सली कार्यकर्ताओं का चरित्र बदल चूका था | इनके कुकर्मों से लोगों के मन में इनके नैतिकता /इमानदारी का भय कम होने लगा था | ये वही दौर था जब भूस्वामियों और किसानों के गठजोड़ से इनके विरुद्ध निजी सेनाओं का गठन हो रहा था और हिंसा के प्रत्युत्तर में हिंसा की जा रही थी | भूमि सुधार और शोषण से मुक्ति के नाम पर लाल क्रांति का स्वप्न देखने और दिखाने वाले माओवादियों ने बड़े जमींदारों के बाद माध्यम और छोटे जोत के किसानों की जमीनों पर नाकेबंदी और चंदा उगाहना शुरू कर दिया था | हमले के बाद मारे गए व्यक्ति की चेन ,घडी ,घर का सामान लूट लेना अब माओवादियों की आदत बन गयी थी | सालों पहले पीपुल्स वार ग्रुप से जुड़े एक अहिंसक संगठन ‘बिहार मजदूर किसान संग्रामी परिषद ‘ ने भी अपने पर्चे में आरोप लगाया था कि ” माले का दस्ता रंगदारी टैक्स वसूलने के लिए विभिन्न गांव में मनगढंत आरोप लगाकर साधारण किसानों की आर्थिक नाकेबंदी कर रहा है और फर्जी जन अदालतें लगा रहा है |”
माओवादी जब बिहार में लाल क्रांति के नाम पर जमींदारों ,किसानों और मठों की जमीनों पर कब्ज़ा कर रहे थे तो कुछ भूमिहीनों में आस जगी थी की शायद वो जमीन इनके बीच वितरित की जायेगी | लेकिन ये लाल आतंकी ‘ विनोबा ‘ नहीं थे ! अक्सर कब्ज़ा की गयी जमीन माओवादी कैडरों , नेताओं और उनके सगे-सम्बन्धियों के बीच बाँट दी जाती थी | माओवादी दस्ते के भीतर भी जमकर जातिवाद था | बड़े नेता अपने जाति के बिगडैल और जनविरोधी कमांडरों का खुलकर संरक्षण करते थे |
शुरुआत से ही माले या एमसीसी कैडरों का व्यवहार आम लोगों के साथ गुंडे और माफियों जैसा ही रहा है | रात को किसी दलित /आदिवासी के गांव में रुकने के बाद दारु ,मुर्गा और औरत की मांग लंबे समय से की जाती रही है | अक्सर माओवादी नेताओं द्वारा रात में वहाँ सोने की जिद की जाती है जहाँ औरतें सोई रहती है और बहाना होता सुरक्षा का | महिलाओं के साथ जबरन बलात्कार की घटना और फिर मुंह बंद रखने की हिदायत माओवादियों के लिए आम बात है | पिछले कुछ सालों में इनके ऊपर पुलिसिया कार्यवाई के दौरान दर्जनों पैकेट कंडोम का मिलना इनकी हकीकत को प्रमाणित करता है |
वहीँ रक्षा करने के नाम पर हथियार उठाने वालों के हाथों बेमौत मारे जा रहे दलितों और आदिवासियों का मानना है कि लाल दस्ते वाले उनकी तरक्की देखना नहीं चाहते हैं, माओवादियों को शक है कि तरक्की करने के बाद आदिवासी और दलित समुदाय के लोग उसके पीछे नहीं चलेंगे। यही कारण है कि आगे बढ़ने वाले और नेतृत्व क्षमता रखने वाले आदिवासियों को नक्सलियों द्वारा समाप्त कर दिया जाता रहा है। बहरहाल , शोषित-वंचित सामाजिक समूहों और सुरक्षा बल के जवानों के खिलाफ माओवादी हिंसा की घटना पर दिल्ली के तथाकथित बुद्धिजीवियों की ख़ामोशी इनके दोहरेपन को उजागर करता है |