मायावती से दलितों का मोहभंग

0
181

MAYAWATI
प्रमोद भार्गव
सवर्ण नेतृत्व को दरकिनार कर दलित और पिछड़ा नेतृत्व दो दशक पहले इसलिए उभरा था, जिससे लंबे समय तक केंद्र व उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय के जो लक्ष्य पूरे नहीं कर पाई थीं, वे पूरे हों। सामंती, बाहूबली और जातिवादी कुच्रक टूटें। किंतु ये लक्ष्य तो पूरे हुए नहीं, उल्टे सामाजिक शैक्षिक और आर्थिक विषमता उत्तोत्तर बढ़ती चली गई। सामाजिक न्याय के पैरोकारों का मकसद धन लेकर टिकट बेचने और आपराधिक पृष्ठभूमि के बाहुबलियों के दलों को अपने दल में विलय तक सिमट कर रह गए हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश की राजनीति में दो ऐसे घटनाक्रम घटित हुए हैं, जो इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं।
मायावती की बहुजन समाजवादी पार्टी के राष्ट्रिय महामंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने यह कहते हुए बसपा छोड़ दी है कि ‘मायावती दलित की नहीं दौलत की बेटी हैं। धन लेकर टिकट बेचती है।‘ दूसरी तरफ सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी ने बाहुबली मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का सपा में विलय करके यह जता दिया कि सत्ता में बने रहने के लिए वह किसी भी अनैतिक सीमा को पार कर सकती है। साफ है, सामाजवादी विचारक राममनोहर लोहिया के समतामूलक सिद्धांत से न तो सपा का कोई बास्ता रह गया है और न ही बसपा में दलित हित सरंक्षण से जुड़े कोई सरोकार शेष रह गए हैं। लिहाजा उत्तर प्रदेश में 2017 की शुरूआत में होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता किसी भी दल के हाथ लगे दलित, गरीब और वंचितों के हित साधने के प्रति कोई दल फिलहाल तो प्रतिबद्ध दिखाई नहीं दे रहा है।
बसपा को वजूद में लाने से पहले कांशीराम ने लंबे समय तक दलितों के हितों की मुहिम डीएस-4 के जरिए लड़ी थी। इसीलिए तब बसपा के कार्यकर्ता इस नारे की हुंकार भरा करते थे, ‘ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर चोर, बाकी सारे डीएस-फोर।‘ इसी डीएस-4 का सांगठनिक ढांचा खड़ा करने के वक्त बसपा की बुनियाद पड़ी और पूरे हिंदी क्षेत्र में बसपा की सरंचना तैयार किए जाने की कोशिशें ईमानदारी से शुरू हुईं। कांशीराम के वैचारिक दर्शन में डाॅ भीमराव अंबेडकर से आगे जाने की सोच तो थी ही दलित और वंचितों को करिश्माई अंदाज में लुभाने की प्रभावशाली शक्ति भी थी। यही वजह थी कि बसपा दलित संगठन के रूप में मजबूती से स्थापित हुई, लेकिन कालांतर में मायावती की पद व धनलोलुपता ने बसपा के बुनियादी ढांचे में विभिन्न जातिवादी बेमेल प्रयोगों का तड़का लगाकर उसके मूल सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ कर डाला। इसी फाॅर्मूले को अंजाम देने के लिए मायावती ने 2007 के विधानसभा चुनाव में दलित और ब्राह्मणों का गठजोड़ करके उत्तरप्रदेश का सिंहासन जीत लिया था। लेकिन 2012 आते-आते ब्राह्मण व अन्य सवर्ण जातियों के साथ मुसलमानों का भी मायावती की कार्य-संस्कृति से मोहभंग हो गया। नतीजतन सपा ने सत्ता की बाजी जीत ली थी।
अब एक बार फिर मायावती को उम्मीद बंधी है कि उनकी पार्टी सपा के सत्तारूढ़ होने के कारण जो स्वाभाविक विरोध है, उसके चलते ब्राह्मण, मुस्लिम और दलितों की सोशल इंजीनियारिंग करके एक बार फिर से सत्ता में आ जाएगी। दरअसल उत्तर प्रदेश में दलित, मुस्लिम और यादवों के बाद ब्राह्मण बड़ी संख्या में हैं। दलित 22, मुस्लिम 19, यादव 18 और ब्राह्मण करीब 14 फीसदी मतदाता हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य ने फेसबुक पर ब्राह्मणों के खिलाफ अशोभनीय टिप्पणी की थी। इस वजह से मायावती स्वामी से नाराज थीं। माया स्वामी को बाहर का रास्ता दिखातीं, इससे पहले खुद स्वामी ने पार्टी छोड़ दी। पार्टी छोड़ने के साथ ही मायावती पर करारा हमला बोलते हुए स्वामी ने कहा कि‘ मायावती विधानसभा व लोकसभा के टिकट बेचती हैं। उन्होंने 2012 में विधानसभा और 2014 में लोकसभा के टिकट बेचे। इसी का परिणाम है कि उन्हें जहां विधानसभा में हार का मुंह देखना पड़ा, वहीं लोकसभा में मायावती एक भी प्रत्याशी को नहीं जिता पाईं।‘ लिहाजा 2017 में बसपा के सामने करो या मरो की स्थिति है।
मायावती पर टिकट बेचने के आरोप पहली बार लगे हों, ऐसा नहीं है। ये आरोप पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन इस बार ऐसे राजनेता ने मायावती पर आर्थिक लेन-देन के आरोप लगाए हैं, जो उत्तर प्रदेश की राजनीति के साथ, दलित वोट बैंक पर भी अच्छी-खासी पकड़ रखते हैं। हालांकि मायावती ने इन आरोपों पर यह कहकर खंडन किया है कि स्वामी प्रसाद वंशवाद को बढ़ावा दे रहे थे। उन्हें खुद के साथ बेटे और बेटी को भी टिकट चाहिए था। जब मना कर दिया तो वे पार्टी छोड़ गए। यहां सच यह भी है कि स्वामी वंशवाद को आगे लाने का दबाव मायावती पर बना रहे थे और यह भी सही है कि मायावती टिकट बेचती हैं।
अब यह उम्मीद जताई जा रही है कि स्वामी जल्द ही सपा की साइकिल पर सवार हो जाएंगे। 27 जून को अखिलेष यादव सरकार के मंत्रीमण्डल में होने वाले फेरबदल में उन्हें मंत्री परिषद में लिए जाने की अटकलें तेज हैं। ऐसा होता है तो यह मायावती के लिए बड़ा झटका होगा। राजनीति के जो पर्यवेक्षक आज की तारीख में बसपा की जीत की अटकलें लगा रहे हैं, बदले परिदृश्य में उन्हें भी अनुमान बदलने होंगे। दरअसल इस बार मायावती ब्राह्मणों को ज्यादा तरजीह देने की बजाय दलित और मुस्लिम गठजोड़ को आजमाने पर उतावली हैं। यदि 22 प्रतिशत दलित और 19 फीसदी मुस्लिम एक हो जाते हैं तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि मायावती उत्तर प्रदेश फतह कर लेंगी। इसी बेमेल मंसूबे को हकीकत में बदलने के नजरिए से वे 100 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारने की तैयारी में हैं। इसी आधार पर सियासी हलकों के जानकार यह दावा कर रहे हैं कि प्रदेश में बसपा का पलड़ा भारी है।
लेकिन पिछले दिनों सपा, बसपा और भाजपा में जो समीकरण बने व बिगड़े हैं, उनमें बासपा को सबसे ज्यादा नुकसान होता लग रहा है। भाजपा ने चुनावी रणनीति चलते हुए की फूलपुर से सांसद केशव प्रसाद मौर्य को उत्तर प्रदेश की कमान सौंपकर बड़ा दांव खेला है। मौर्य होने को तो ‘कोरी‘ जाति से हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में कुर्मी, कोरी, कोइरी और कुशवाह पिछड़ा वर्ग में आते हैं। दरअसल भाजपा की यह चाल गैर यादव और पिछड़ों को एकजुट करने की अहम् रणनीति है। पिछले लोकसभा चुनाव के साथ-साथ अन्य चुनावों में भी भाजपा को गैर यादव जातियों में इन जातियों का समर्थन मिलता रहा है। इसी के परिणाम स्वरूप भाजपा ने मौर्य को अध्यक्ष बनाकर इन जातियों के समक्ष अपने समर्थन की पुष्टि की है। अगर राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो भाजपा को उप्र की सत्ता में पहुचने के लिए अगड़े-पिछड़े दोनों का समर्थन जरूरी होगा। गोया, जातीय संतुलन बिठाने के नजरिए से भाजपा मुख्यमंत्री के रूप में सवर्ण उम्मीदवार का नाम घोषित कर सकती है। ऐसा होता है तो उप्र की राजनीति में तेजी से समीकरण बदलेंगे। इसके लिए अमित शाह पहले ही जिला और मंडल स्तर पर बड़ी संख्या में पिछड़े व सपर्ण नेताओं को कमान सौंप कर कूटनीतिक पहल कर चुके हैं। हिंदुत्व और राम मंदिर निर्माण के मुद्रदों में उछाल भी इसी रणनीति का सोचा-समझा हिस्सा है।
दरअसल उप्र में राजपूत संख्याबल की दृष्टि से भले ही अधिक न हों, लेकिन राजनीतिक रूप से नवें दशक तक ब्राह्मणों के बाद उन्हीं का वर्चस्व रहा है। वीर बहादुर सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह और राजनाथ सिंह उ्रप के मुख्यमंत्री रहे हैं। यहां भाजपा के राजनाथ, योगी आदित्यनाथ और संगीत सोम की अभी भी तूती बोलती है। हालांकि ठकुरास के इसी प्रभाव को कम करने के लिहाज ने सपा ने रूठे अमर सिंह और राजा भैया को मना लिया है। लेकिन लंबे समय तक न्यूज वैल्यु से बाहर रहने के कारण इनकी चमक धुंधला गई है। हालांकि सपा ने बाहुबली मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का सपा में विलय करके मुस्लिमों को यह संदेश जरूर दिया है कि उनकी सबसे बड़ी हित सरंक्षक सपा ही है। इस विलय से जहां बसपा से मुस्लिम छिटकेंगे, वहीं सवर्णों और गैर यादवों का रूझान भाजपा की ओर बढ़ेगा। ऐसे में उप्र की राजनीति का ऊंट किस करबट बेठैगा एकाएक कुछ कहा नहीं जा सकता है। लेकिन हाल ही में जो बदलाव देखने में आए हैं, उनसे इतना जरूर अहसास होने लगा है कि भाजपा अपना कोर वोट बैंक यादवों, दलितों औेेर मुस्लिमों को छोड़ सवर्णों समेत अन्य हिंदू समाज के जातीय घटकों को एक करने की ओर आगे बढ़ रही है। ऐसे में स्वामी प्रसाद मौर्य का बसपा से टूटना मायावती के लिए बड़ा झटका है।
हांलाकि मायावती इस कमी की पूर्ति के लिए कांग्रेस से गठबंधन की पैरवी कर सकती हैं। यह उम्मीद इसलिए भी है, क्योंकि उत्तराखंड में कांग्रेस विधायकों की बगावत से अल्पमत में आई हरीष रावत सरकार को जीवनदान मायावती के इशारे पर बसपा विधायकों ने ही दिया था। इसी कारण से अटकलें तेज हैं कि बसपा और कांग्रेस का गठबंधन हो सकता है। इस गठबंधन के बावजूद अभी यह इकतरफा नहीं कहा जा सकता कि उत्तर प्रदेश की चुनावी तराजू पर किसका पलड़ा भारी है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here