हमारे देश की आर्थिक दुरवस्था / मा. गो. वैद्य

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 मा. गो. वैद्य

हमारा देश आर्थिक संकट में फंसा है. विकास दर, जो, दो-तीन वर्ष पूर्व ९ प्रतिशत थी, वह ५.३ प्रतिशत तक कम हुई है. औद्योगिक उत्पादन में तो चिंताजनक गिरावट हुई है. वह ०.१ प्रतिशत तक गिरा है. एक वर्ष पूर्व वह पांच प्रतिशत से अधिक था. रुपये का आंतरराष्ट्रीय बाजार में गिरा मूल्य जनता को अस्वस्थ करने वाला है. १ जनवरी २०११ को एक डॉलर के लिए ४४ रुपये ६१ पैसे देने पड़ते थे. अब ५६ रुपयों से अधिक देने पड़ते हैं. ताजा समाचार है कि, रुपया कुछ मजबूत हुआ है. कितना मजबूत? तो एक डॉलर के लिए अब ५५ रुपये देने पड़ेंगे! कहॉं ४४-४५ रुपये, और कहॉं ५५ रुपये?

सोने का आयात क्यों?

हमारा आयात बहुत बढ़ा है और निर्यात कम हुआ है. व्यापाराधिक्य (बॅलन्स ऑफ ट्रेड) मतलब आयात का निर्यात के साथ का अनुपात बहुत व्यस्त हुआ है. हमें, हमारी आवश्यकता के लिए खनिज तेल आयात करना पड़ता है यह सच है. लेकिन सोने का आयात क्यों? और वह क्यों हो रहा है? २०१० – २०११ वर्ष में हमने २५ बिलियन डॉलर मतलब २५०० करोड़ डॉलर का सोना आयात किया. यह आयात २०११-२०१२ के वर्ष में दुगना मतलब करीब पांच हजार करोड़ डॉलर का हुआ है. मोटे तौर पर एक डॉलर मतलब ५० रुपये मान ले तो भी यह कीमत डाई लाख करोड़ रुपये होती है. यह अप्रत्यापित वृद्धि क्यों हुई है? एक तर्क है – और जो मुझे सही लगता है – कि, टू जी स्पेक्ट्रम, आदर्श, राष्ट्रकुल क्रीडा स्पर्धा आदि प्रकरणों के आर्थिक भ्रष्टाचार में, जिन्होंने मोटी कमाई की, वे लोग अपने पाप की कमाई सोने में निवेश कर रहे हैं; और सरकार शक्तिहीन के समान केवल देख रही है या जान बुझकर इसे अनदेखा कर रही है. उसे यह भी नहीं सुझता की, सोने के आयात पर नियंत्रण लगाए. मैं तो कहता हूँ कि, कम से कम पॉंच वर्ष सोने के आयात पर पूर्णतः बंदी लगाएं. काले धन के विरोध में जनआंदोलन शुरू हुआ है. इस आंदेालन का झटका काला धन जमा करनेवालों को न लगे, इसलिए पहले ही व्यवस्था के रूप में सोने की आयात की जा रही है, ऐसा कोई कहे, तो उसे दोष नहीं दिया जा सकता.

अमेरिका का दबाव

ऊपर खनिज तेल के आयात का उल्लेख किया है. यह सही है कि, हमारी आवश्यकता पूरी हो सके इतना खनिज तेल हमारे पास नहीं है. उसका आयात करना ही पड़ता है. उस क्रूड ऑईल की कीमत तय करना हमारे हाथ में नहीं है. फिर भी किस देश से क्रूड ऑईल आयात करें, इसका निर्णय तो हम कर सकते है या नहीं? हमारा यह दुर्भाग्य है कि, हम इसका निर्णय नहीं कर सकते. फिलहाल हम इरान से ९ प्रतिशत क्रूड ऑईल आयात करते है – करते थे, ऐसा कहना अधिक योग्य होंगा. कारण अब अमेरिका के दबाव से कहे या आपसी समझौते के कारण, हमें उसमें कटौती करनी होगी. इरान से आयात का एक लाभ यह है कि, कुल आयात के ४५ प्रतिशत राशि हम रुपयों की मुद्रा (करंसी) में दे सकते है. अन्य स्थानों से जो आयात होता था और आज भी हो रहा है, उसके लिए डॉलर देने पड़ते है. और रुपयों की तुलना में डॉलर महंगा हुआ है, यह हमने ऊपर देखा ही है. आयात मूल्य बढ़ने का यह कारण है. हम अमेरिका का दबाव क्यों सहें? यह बड़ा प्रश्‍न है.

और एक चिंता की बात यह है कि, चीन से भी हम बहुत बड़ी मात्रा में आयात करते है. उस प्रमाण में चीन का निर्यात बढ़ा नहीं. इस कारण, हमारे देश में मध्यम और लघु उद्योगों की बहुत हानि हो रही है.

विलासिता का खतरा

यह मान्य करना ही होगा कि, आर्थिक अनवस्था केवल हमारे ही देश में है, ऐसा नहीं. यूरोप में के अनेक देशों में वह है. ग्रीस, पोर्तुगाल उसके ठोस उदाहरण है. लेकिन अमीर फ्रान्स और जर्मनी भी उससे अस्पृश्य नहीं. फ्रान्स के पराभूत राष्ट्रपति सरकोजी ने, लोग खर्च में कटौती करे, इसलिए कुछ निर्बंध लगाने का निर्णय लिया था, यह बात फ्रेन्च जनता को पसंद नहीं आई. उसने सरकोजी का पराभव किया. ग्रीक की सरकार ने भी ऐसी ही उपाय योजना की. तो वहॉं की सरकार को भी जनता ने पदच्युत किया. इसका कारण स्पष्ट है. वह यह कि, वहॉं के लोगों को वर्षों से विलासिता का जीवन जीने की आदत लगी है. उस पर उन्हें नियंत्रण नहीं चाहिए. अति समृद्धि के साथ विलासिता बढ़ेगी ही. हम हमारे देश में भी देखते है कि, नव अमीरों के बच्चें कैसे कारनामे करते है. अनिर्बंध मोटारकार चलाते है. फूटपाथ पर सोए हुए लोगों को कुचलने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता. शराब की पार्टियॉं तो उनकी खास विशेषता बन गई है. संपत्ति बढ़ी; लेकिन उसके साथ संस्कृति और सभ्यता नहीं बढ़ी तो यह होगा ही. इतिहास के समय हमारे देश के ऊपर दूसरों के आक्रमण क्यों हुए? देश अति समृद्ध था. सोने की चिड़ियां था और लोग तथा शासक सुस्ताए थे. एक बार यह विलासिता भिन गई और वह सभ्य जीवन का आदर्श बन गई तो फिर नैतिक अध:पतन की सीमा नहीं रहती, यह इतिहास का सार्वकालिक सबक है.

अतिअमीरी के परिणाम

इसका अर्थ हमारे देश में गरीबी नहीं ऐसा कहने का कारण नहीं. बहुत बढ़ी संख्या में लोग गरीब है. लेकिन २५ से ३० करोड़ लोग अतिअमीर बने है. १९९१ से, मतलब विद्यमान प्रधानमंत्री, पी. व्ही. नरसिंह राव के मंत्रीमंडल में अर्थमंत्री बनने के बाद से, उन्होंने जो आर्थिक नीतियॉं अपनाई, ‘परमिट लायसेन्स राज’ को तिलांजली दी और उदारीकरण की नीति अपनाई, तब से देश में अमीरी बढ़ी; और उसमें से विलासिता को ब़ढ़ावा मिला. औरों की ओर न देखकर, केवल हमारें लोकप्रतिनिधि यों को ही देखें. ‘गरीब’ भारतीयों ने चुनकर दिए हुए अधिकांश प्रतिनिधि करोड़पति है. यह कपोलकल्पित नहीं. उम्मीदवारी पर्चा दाखिल करते समय, अपनी आय का जो विवरण, वे चुनाव आयोग को प्रस्तुत करते है, उसीसे यह स्पष्ट होता है. यह तो उन्होंने स्वयं घोषित किये आय के आँकड़े हैं. छिपाकर रखी आय का आँकड़ा कितना होगा, इसका अंदाज कौन करेगा? महाराष्ट्र में, महानगर पालिका के चुनाव के दौरान अमरावती में, एक मोटर में, एक करोड़ रुपये मिले थे. अमरावती के विधायक शेखावत, जो राष्ट्रपति के चिरंजीव है, उन्होंने स्वयं आगे आकर दावा किया कि यह राशि हमारे चुनाव प्रचार के लिए भेजी गई थी! झारखण्ड भारत में का शायद सबसे गरीब राज्य होगा, वहाँ भी चुनाव के समय मोटर में लाखों रुपये नगद मिले थे! बिकाऊ माल खरीदने के लिए ही यह बेहिसाबी संपत्ति थी, इस बारे में किसी के मन में संदेह होगा?

एक भ्रष्ट त्रिकुट

केवल जनप्रतिनिधियों ने ही अमाप संपत्ति इकट्ठा कर रखी है, ऐसा समझने का कारण नहीं. नौकरशाहों के पास भी अमाप अवैध संपत्ति है. बड़े उद्योगपति और उच्चपदस्थ नौकरशाहों की मिलीभगत होती ही है. घूस दिए बिना, उद्योगपति का काम होता ही नहीं. इसलिए राडिया जैसी महिला की मध्यस्थी और दलाली खुलेआम चल सकती है. हमारे देश में, व्यापारी/उद्योगपति, नौकरशाह और राजनीतिज्ञों का एक भ्रष्ट त्रिकुट बन गया है. फोर्ब्स नामक मासिक पत्रिका ने भारत में के ४९ लोगों के नाम दिए हैं, जिनके पास अरबों (करोड़ों नहीं) डॉलर की संपत्ति है. मेरे मतानुसार अरबोंपति राजनीतिज्ञों की संख्या इससे कम रहने का कारण नहीं. बात इतनी ही है कि, व्यापारी/उद्योगपतियों की संपत्ति दिखाई देती है; राजनीतिज्ञों की दिखती नहीं. इसलिए ही व्यापारियों की अपेक्षा राजनीतिज्ञ और उसमें भी सत्तारूढ राजनीतिज्ञ अण्णा हजारे और रामदेव बाबा के आंदोलन से भयभीत हैं. यह भय भी, सोने की खरीदी में हुई विशेष वृद्धि का कारण है.

उदाहरण चाहिए

ऐसा लगता है कि, केन्द्र सरकार इस दुरवस्था की गंभीरता भांप गई है. यह गिरावट ऐसी ही जारी रही तो चंद्रशेखर की सरकार को जिस तरह मानहानि स्वीकार कर अपने पास का सोना गिरवी रखकर विदेशों से पैसा लाना पड़ा था, वहीं स्थिति इस सरकार के सामने भी निर्माण हो सकती है. लेकिन आज तो वैसी संभावना नहीं है. हमारे पास अभी भी काफी राशि जमा है. यूरोपीय देशों में के आर्थिक संकट के कारण, वहॉं के नागरिकों ने डॉलर खरीदने की मुहीम शुरू की है, इस कारण रुपये की कीमत गिरी है, यह सच है, फिर भी यूरोप, इस संकट से मार्ग निकाले बिना नहीं रहेगा. सौभाग्य की बात यह है कि, अपना खर्च कम करें, ऐसा सरकार को भी लगने लगा है. उसने कटौती के उपाय शुरू किए है ऐसा दिखाई दे रहा है. मंत्रियों और नौकरशाहों के विदेश दौरों पर बंधन लगाए गएं हैं. लेकिन इतना काफी नहीं है. यह केवल सांकेतिक है. प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किए जाने चाहिए. सब सांसदों ने एक मत से प्रस्ताव पारित कर अपना मानधन २० प्रतिशत कम करना चाहिए. बताया जाता है कि आज उनका मानधन प्रतिमाह ५० हजार रुपये है. वह ४० हजार हुआ तो कुछ नहीं बिगडेगा. अधिकांश संपन्न वर्ग के लोग ही सांसद बने है. मंत्रियों ने भी अपना तामझाम कम करना चाहिए; और उन्होंने भी अपने वेतन में कटौती करनी चाहिए. उत्तर प्रदेश की भूतपूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने केवल अपने बंगले की दुरुस्ती पर ८६ करोड़ रुपये खर्च करने का समाचार प्रकाशित हुआ है! महात्मा गांधी ने, पहली बार कॉंग्रेस के मंत्रिमंडल बने, उस समय मंत्री पॉंच सौ रुपये प्रति माह वेतन लें ऐसा सुझाया था और उन मंत्रियों ने उस सूचना का पालन किया था. आज कोई भी यह नहीं कहेंगा कि, मंत्री इतना कम वेतन लें. लेकिन आज जो वेतन है उसमें कमी करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए. परिवर्तन करना होगा, तो यह करना आवश्यक ही है. केवल व्यवस्था बदलने से काम नहीं चलता. प्रत्यक्ष उदाहरण आवश्यक होते है.

भ्रष्टाचार में ही रस

दूसरा विचारबिंदु भ्रष्टाचार का है. भ्रष्टाचार फैला होगा, तो विकास दर कितनी भी बढ़े कोई लाभ नहीं. दक्षिण कोरिया ने १९९० के दशक में भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कठोर कदम उठाए थे. उसका उस देश को लाभ मिला. लेकिन विद्यमान संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा सरकार की नीयत इस बारे में ठीक नहीं. इस सरकार को भ्रष्टाचार जारी रखने में ही रस है, ऐसा लगता है. टीम अण्णा ने १४-१५ भ्रष्ट मंत्रियों के नाम दिये थे, सरकार की प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए? क्या सरकार ने उन मंत्रियों की जॉंच के आदेश दिये? नहीं. टीम अण्णा पर प्रति हमला करने की नीति उन्होंने अपनाई. प्रधानमंत्री कार्यालय में के राज्यमंत्री नारायणस्वामी ने कहा, ‘‘अण्णा राष्ट्रद्रोही लोगों से घिरे हैं.’’ फिर उनके ऊपर कारवाई करो. और अण्णा ‘राष्ट्रद्रोही’ लोगों से घिरे है, क्या इसलिए सरकार में भ्रष्ट मंत्रियों का बने रहना समर्थनीय सिद्ध होता है? इस मंत्रिमंडल के और एक मंत्री व्यालार रवि ने तो और आगे बढ़कर, अण्णा के आंदोलन को विदेशी शक्तियों का समर्थन है, ऐसा आरोप किया है! कारण? – टीम अण्णा की किरण बेदी और केजरिवाल को मॅगासायसे पुरस्कार मिले थे और इन पुरस्कारों का रॉकफेलर फाऊंडेशन से संबंध है. ऐसे जोकरछाप मंत्री केन्द्र में है, तो उस सरकार से क्या अपेक्षा करे?

तात्पर्य यह कि, हमारा देश दुरवस्था से गुजर रहा है. यह अधोगति रोकना आवश्यक है और संभव भी है. कुछ बातें तुरंत करने की है. पहली यह कि, सोने के आयात बर बंदी लगाए. यह संभव नहीं होंगा, तो वर्ष भर में कितना सोना आयात किया जाएगा इसकी मर्यादा निश्‍चित करें. दूसरी यह कि, भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रभावी अभियान आरंभ करें; तीसरी विलासिता पर नियंत्रण लगाएं और मितव्ययता का वातावरण निर्माण करें. पेट्रोल पर की सबसिडी समाप्त कर उसकी किमत बढ़ाए, तत्त्वत: इसमें अनुचित कुछ नहीं. दी जाने वाली सभी सबसिडीयों का पुनर्विचार किया जाना चाहिए. महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना जैसी योजना चलानी चाहिए या नहीं, इसका भी विचार किया जाना चाहिए. आज भी, देश की बहुसंख्य जनता बचत का महत्त्व जानती है. लेकिन उसके सामने वैसे उदाहरण दिखने चाहिए. वह उदाहरण स्वाभिमान, स्वावलंबन और स्वदेशी की भावना को उत्तेजना देने वाले होने चाहिए. इससे ही देश में सकारात्मक वातावरण निर्माण हो सकेगा. दुर्भाग्य से, आज सर्वत्र निराशा और उत्साहहीनता दिखाई दे रही है. और अंत में भ्रष्टाचार की जननी, हमारी सियासी व्यवस्था में ही आमूलाग्र परिवर्तन किए जाने चाहिए. सब राजनीतिक पार्टियों का केवल पंजीयन ही आवश्यक नहीं होना चाहिए, तो उनके आय-व्यय का तटस्थ यंत्रणा की ओर से अंकेक्षण (ऑडिट) करने का प्रावधान आवश्यक है. कुल मिलाकर चुनाव पद्धति में सुधार की आवश्यकता है. लेकिन वह एक स्वतंत्र विषय है. दुर्भाग्य से विद्यमान सरकार स्वयं के अस्तित्व की शंका से इतनी भयभीत है कि, अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए वह कोई ठोस कदम नहीं उठाएगी. कम से कम २०१४ तक तो, अनिश्‍चित नीति रखने वाली, दिशाहीन और स्वयं के अस्तित्व के संकट से भयग्रस्त इस सरकार के भोग हमें भोगने ही होंगे.

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

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