नेतृत्व के प्रश्न पर गहराता धुंधलका

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New Delhi: AIADMK members protest in the well of Lok Sabha in New Delhi on Thursday. PTI Photo / TV GRAB (PTI4_5_2018_000130B)

ललित गर्ग-
आज जबकि देश और दुनिया में सर्वत्र नेतृत्व के प्रश्न पर एक घना अंधेरा छाया हुआ है, निराशा और दायित्वहीनता की चरम पराकाष्ठा ने वैश्विक, राजनीति, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक नेतृत्व को जटिल दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। समाज और राष्ट्र के समुचे परिदृश्य पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो हमें जिन विषम और जटिल परिस्थितियों से रू-ब-रू होना पड़ता है, उन विषम हालातों के बीच ठीक से राह दिखाने वाला कोई नेतृत्व नजर नहीं आता। न केवल पारिवारिक नेतृत्व अपनी जमीन छोड़ रहा है बल्कि सामाजिक नेतृत्व भी गुमराह की स्थिति में है और राष्ट्रीय नेतृत्व तो रामभरोसे ही है।
हालही में नेतृत्व के प्रश्न पर एक करारा व्यंग्य पढ़ा था-‘देश और ट्रेन में यही अंतर है कि ट्रेन को लापरवाही से नहीं चलाया जा सकता।’ यानी देश के संचालन में की गई लापरवाही तो क्षम्य हैं पर ट्रेन के पटरी से उतरने में की गई लापरवाही क्षम्य नहीं, क्योंकि इसके साथ आदमी की जिंदगी का सवाल जुड़ा है। मगर हम यह न भूलें कि देश का नेतृत्व अपने सिद्धांतों और आदर्शों की पटरी से जिस दिन उतर गया तो पूरी इन्सानियत की बरबादी का सवाल उठ खड़ा होगा।
आज देश में लोकतांत्रिक, सांस्कृतिक, नैतिक जीवन-मूल्यों के मानक बदल गये हैं न्याय, कानून और व्यवस्था के उद्देश्य अब नई व्याख्या देने लगे हैं। चरित्र हाशिए पर आ गया, सत्ता केन्द्र में आ खड़ी हुई। ऐसे समय में कुर्सी पाने की दौड़ में लोग जिम्मेदारियां नहीं बांटते, चरित्र बांटने लगते हैं और जिस देश का चरित्र बिकाऊ हो जाता है उसकी आत्मा को फिर कैसे जिन्दा रखा जाए, चिन्तनीय प्रश्न उठा खड़ा हुआ है। आज कौन अपने दायित्व के प्रति जिम्मेदार है? कौन नीतियों के प्रति ईमानदार है? इस संदर्भ में आचार्य तुलसी का निम्न कथन यथार्थ का उद्घाटन करता है कि ‘‘ऐसा लगता है कि राजनीतिज्ञ का अर्थ देश में सुव्यवस्था बनाए रखना नहीं, अपनी सत्ता और कुर्सी बनाए रखना है। राजनीतिज्ञ का अर्थ उस नीतिनिपुण व्यक्तित्व से नहीं, जो हर कीमत पर राष्ट्र की प्रगति, विकास-विस्तार और समृद्धि को सर्वोपरि महत्व दें, किन्तु उस विदूषक-विशारद व्यक्तित्व से है, जो राष्ट्र के विकास और समृद्धि को अवनति के गर्त में फेंककर भी अपनी कुर्सी को सर्वाेपरि महत्व देता है।’’ राजनैतिक लोगों से महात्मा बनने की उम्मीद तो नहीं की जा सकती, पर वे पशुता पर उतर आएं, यह ठीक नहीं है।
एक सफल, सार्थक, समर्थ एवं चरित्रसम्पन्न नेतृत्व की आवश्यकता हर दौर में रही है, लेकिन आज यह ज्यादा तीव्रता से महसूस की जा रही है। नेतृत्व कैसा हो, उसका अपना साथियों के साथ कैसा सलूक हो? उसमे  क्या हो, क्या न हो? वह क्या करे, क्यों करे, कब करे, कैसे करे? इत्यादि कुछ जटिल एवं गंभीर प्रश्न हैं जिनके जवाब ढ़ूंढ़े बिना हम एक सक्षम नेतृत्व को उजागर नहीं कर सकते। इन प्रश्नों के उत्तरों की कसौटी पर ही हमें वर्तमान दौर के सामाजिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक और राष्ट्रीय नेतृत्व को निर्ममतापूर्वक कसना होगा। जिस नेतृत्व के पास इन प्रश्नों के उत्तर होंगे, जो समयज्ञ होगा, सहिष्णु होगा, तटस्थ होगा, दूरदर्शी होगा, निःस्वार्थी होगा, वैसा ही नेतृत्व जिस समाज या वर्ग को प्राप्त होगा, उसकी प्रगति को संसार की कोई शक्ति बाधित नहीं कर सकेगी। ऐसा ही नेतृत्व नया इतिहास बना सकेगा और भावी पीढ़ी को उन्नत दिशाओं की ओर अग्रसर कर सकेगा। आज देश की सर्वोच्च संस्था संसद एवं विधानसभाओं में जिस तरह की आरोप-प्रत्यारोप की हिंसक संस्कृति पनपी है, एक दूसरे पर जूते-चप्पल फेंके जाते है, माइक, कुर्सी से हमला किया जाता है, छोटी-छोटी बातों पर अभद्र शब्दों का व्यवहार, हो-हल्ला, छींटाकशी, हंगामा और बहिर्गमन आदि घटनाएं ऐसी है जो नेतृत्व को धुंधलाती है। इन हालातों में विडंबना तो यह है कि  किसी जमाने में जहां पद के लिये मनुहारें होती थीं, कहा जाता था – मैं इसके योग्य नहीं हॅूं, तुम्हीं संभालो। वहां आज कहा जाता है कि पद का हक मेरा है, तुम्हारा नहीं। पद के योग्य मैं हॅू, तुम नहीं। नेतृत्व को लेकर लोगों की मानसिकता में बहुत बदलाव आया है, आज योग्य नेतृत्व की प्यासी परिस्थितियां तो हैं, लेकिन बदकिस्मती से अपेक्षित नेतृत्व नहीं हैं। जलाशय है, जल नहीं है। नगर है, नागरिक नहीं है। भूख है, रोटी नहीं है-ऐसे में हमें सोचना होगा कि क्या नेतृत्व की इस अप्रत्याशित रिक्तता को भरा जा सकता है? क्या समाज एवं राष्ट्र के सामने आज जो भयावह एवं विकट संकट और दुविधा है उससे छुटकारा मिल सकता है?

New Delhi: AIADMK members protest in the well of Lok Sabha in New Delhi on Thursday. PTI Photo / TV GRAB (PTI4_5_2018_000130B)

आज के राजनीतिक नेतृत्व की सबसे बड़ी विसंगति और विषमता यह है कि वह परदोष दर्शनहै, चाहे पक्ष हो या विपक्ष- हर कोई अच्छाई में भी बुराई देखने वाले हैं। यह नेतृत्व कुटिल है, मायाबी है, नेता नहीं, अभिनेता है, असली पात्र नहीं, विदूषक की भूमिका निभाने वाला है। यह नेतृत्व सत्ता- प्राप्ति के लिये कुछ भी करने से बाज नहीं आता, यहां तक जिस जनता के कंधों पर बैठकर सत्ता तक पहुंचता है, उसके साथ भी धोखा करता है। जिस दल के घोषणा-पत्र पर चुनाव जीतकर आता है, उसकी पीठ में भी सबसे पहले छुरा भोंकता है। इससे भी अधिक घातक है  इस नेतृत्व का असंयमी और चरित्रहीन होना, जो सत्ता में आकर राष्ट्र से भी अधिक महत्व अपने परिवार को देता है। देश से भी अधिक महत्व अपनी जाति और सम्प्रदाय को देता है। सत्ता जिनके लिये सेवा का साधन नहीं, विलास का साधन है। नेतृत्व का चेहरा साफ-सुथरा बने, इसके लिये अपेक्षित है कि इस क्षेत्र में आने वाले व्यक्तियों के चरित्र का परीक्षण हो। आई-क्यू टेस्ट की तरह करेक्टर टेस्ट की कोई नई प्रविधि प्रयोग में आए।
‘‘द ताओ आॅफ लीडरशिप’’ लाओत्जु ताओ ते चिंग की एक अद्भुत, अद्वितीय एवं अप्रतिम कृति है जो नये युग के लिए नेतृत्व की रचनात्मक व्यूह रचना प्रस्तुत करती है। नेतृत्व की इन अकालग्रस्त स्थितियों में यह पुस्तक एक प्रकाश की भांति अंधेरे को चीरने का काम करती है। यह पुस्तक नेतृत्व की गीता, नेतृत्व की बाइबिल, नेतृत्व की कुरान और नेतृत्व के आगम हैं। यह अशोक के शिलालेख से कम नहीं है। इसमें नेतृत्व कला और नेतृत्व ज्ञान को गहराई में पैठ कर कम से कम शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। वर्तमान नेतृत्व में प्राण का संचार करने के लिए इस तरह की पुस्तकों की जरूरत है। सबसे बड़ी जरूरत है एक नेतृत्व के लिए- वह और कुछ हो न हो- मनुष्य होना बेहद जरूरी है। दुःख इस बात का है कि हमारा तथाकथित नेतृत्व मनुष्यता की कसौटी पर खऱा नहीं है, दोयम है और छद्म है, आग्रही और स्वार्थी है, अकर्मण्य है और प्रवाहपाती है। वही नेतृत्व सफल है जिसका चरित्र पारदर्शी हो। सबको साथ लेकर चलने की ताकत हो, सापेक्ष चिंतन हो, समन्वय की नीति हो और निर्णायक क्षमता हो। प्रतिकूलताओं के बीच भी ईमानदारी से पैर जमाकर चलने का साहस हो। लाओत्जु का भी यही निष्कर्ष है कि एक सच्चे नेतृत्व  में साहस, सामंजस्य एवं संप्रत्यय होना चाहिए, जो दुर्भाग्य से अनुपस्थित है। लेकिन इसकी उपस्थिति को सुनिश्चित करने के लिए हमें ही जागना होगा, संकल्पित होना होगा, तभी नये समाज, नये राष्ट्र का निर्माण संभव है।

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  1. भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर उभर कर युगपुरुष मोदी का आना अपने में परिवर्तन ही है जिसे अकेले केवल उन्होंने नहीं बल्कि १२५ करोड़ भारतीयों ने मिल कर भारतीय समाज में अपने पुरुषार्थ द्वारा संपन्न करना है| भविष्य की ओर बढ़ते प्रत्येक नागरिक के मन में राष्ट्र के प्रति गर्व और कुछ कर पाने की लालसा होनी चाहिए| अन्यथा बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय गाते सदैव की भांति बबूल ही बोते हम आम खाती कांग्रेस के आश्रय में आम ढूंढ़ते रह जाएंगे!

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