दवाइयों में लूट-पाट बंद करें

इस देश में जनता की जेबकतरी के दो बड़े बहाने हैं। एक शिक्षा और दूसरा, चिकित्सा! गैर-सरकारी कालेजों और स्कूलों की लूट-पाट को रोकने के लिए मध्यप्रदेश की सरकार एक कानून शीघ्र ही बनाने वाली है लेकिन दवा और इलाज की लूटपाट तो सबसे भयंकर है। मरता, क्या नहीं करता? अपने मरीज की जान बचाने के लिए अपना सब कुछ लुटाने के लिए तैयार हो जाते हैं।

जो लोग सरकारी अस्पतालों में भर्ती होकर लूटने से बच जाते हैं, उन्हें डाक्टरों की मंहगी दवाइयां दिवालिया कर देती हैं। 2 रु. की दवा मैंने 100 रु. में बिकती देखी है। उस खास दवा के 100 रु. इसलिए झाड़ लिए जाते हैं कि उस पर किसी बड़ी कंपनी का ठप्पा लगा होता है। उसी दवा को आप बिना ठप्पे के खरीदें तो वह आपको इतनी सस्ती मिल जाएगी कि आप हैरत में पड़ जाएंगे कि वह असली है या नकली है?

तो ये ठप्पेदार (ब्रांडेंड) दवा इतनी मंहगी कैसे बिकती है? इसके पीछे पूरा षडयंत्र होता है। इन दवाओं को बनाने वाली कंपनियां इनके विज्ञापनों पर करोड़ों रु. खर्च करती हैं। डाक्टर सिर्फ इन्हीं दवाओं को लिख कर दें, इसके लिए उन्हें नगद कमीशन मिलता है, मुफ्त दवाइयां मिलती हैं, मुफ्त विदेश-यात्राएं मिलती हैं, बहुत मंहगे तोहफे मिलते हैं, उनके बच्चों को विदेशों में पढ़ाने की सुविधाएं मिलती हैं।

ये डाक्टर दवाओं के नाम अंग्रेजी में ऐसे घसीट कर लिखते हैं कि वे मरीज के पल्ले ही न पड़ें लेकिन दवा-विक्रेता उन्हें तुरंत समझ लेता है। इन दवा-विक्रेताओं को भी ये बड़ी कंपनियां पहले से पटा कर रखती हैं। यदि ग्राहक इनसे वैसी ही दूसरी दवा, बिना ठप्पे वाली, मांगे तो वे मना कर देते हैं। ये बिना ठप्पे वाली दवाएं भी उन्हीं तत्वों से बनी होती हैं, जिनसे ठप्पे वाली बनती हैं। इन दवाओं की गुणवत्ता भी वही होती है लेकिन इनसे डाक्टरों और दवा-विक्रेताओं को बहुत कम फायदा होता है। इन सामान्य दवाओं का विज्ञापन और प्रचार भी कम ही होता है। देश में बिकने वाली एक लाख करोड़ रु. की दवाइयों में इन उचित दामवाली सस्ती दवाइयों की बिक्री सिर्फ 9 प्रतिशत है। यदि सरकार डाक्टरों और दवा-विक्रेताओं के साथ सख्ती से पेश आए और दवाओं पर ‘दाम बांधों’ नीति लागू कर दे तो देश के करोड़ों लोग लुटने और पिटने से बच सकेंगे।

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