नये इतिहास सृजन की भोर

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 ललित गर्ग
नरेन्द्र मोदी सरकार ने लगातार भारतीयता को समृद्ध एवं शक्तिशाली बनाने के लिये नागरिकता संशोधन विधेयक जैसे साहसिक कदम उठाये हैं, जो स्वागतयोग्य है। इस तरह के कदमों के जरिये सरकार ने एक संदेश दिया है कि वह जिन बातों को देशहित में समझती है, उसे करने के लिए वह राजनीतिक नफा-नुकसान की चिंता नहीं करती। सरकार और भाजपा पर आरोप है कि नागरिकता संशोधन विधेयक और एनआरसी भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की ओर ले जा रहे हैं। वास्तविकता इससे इतर है। दरअसल देश भारतीय जड़ों की ओर लौट रहा है, भारतीय संस्कृति समृद्ध हो रही है, अतीत की बड़ी गलतियों को सुधारा जा रहा है, विभिन्न धर्मों, संस्कृति और परम्पराओं की विविधता की सांझा संस्कृति को मजबूत किया जा रहा है। देश उन तथाकथित शक्तियों के प्रभाव से मुक्त हो रहा है, जिन्होंने देशवासियों को भारतीय संस्कृति से दूर रखने का षड्यंत्र किया एवं कट्टरपंथियों ने इसकी मूलभूत भावना को विद्रूप किया है। इस दृष्टि से नागरिकता संशोधन विधेयक- 2019 का पहले लोकसभा में फिर राज्यसभा में बहुमत से पारित होना, एक ऐतिहासिक एवं अनूठी घटना है। जिन राजनीतिक दलों ने इसे काला दिवस की संज्ञा दी है, संभवतः वे इसे राष्ट्रीयता की दृष्टि से नहीं, बल्कि अपने वोट बैंक की दृष्टि से देख रहे हैं। यह काला दिवस नहीं, बल्कि भारतीयता के अभ्युदय का पावन दिवस है नई भोर का उजाला है।
देश बदल रहा है, वह सकारात्मक दिशाओं की ओर अग्रसर हो रहा है, देश का त्रुटिपूर्ण संविधान और भ्रमित इतिहास बदल रहा है। विरोधी बार-बार ऐसे मुद्दे उठाते रहते हैं, जिससे लगे कि उनके आरोप में दम है। विपक्ष का सारा ध्यान संविधान और इतिहास की किताबों, प्रतीकों पर है। उन्हें अब पता चल रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह न केवल देश बदल रहे हैं, बल्कि नया इतिहास भी रच रहे हैं, इतिहास की त्रुटियों का परिमार्जन-परिष्कार कर रहे हैं। भाजपा और संघ परिवार के एजेंडे को आज जैसी राष्ट्रीय स्वीकृति पहले कभी नहीं मिली। आज मोदी सरकार के काम का विरोध करने वालों को पहले सफाई देनी पड़ती है कि वह राष्ट्रहित के खिलाफ नहीं है। क्योकि आमजनता राष्ट्रहित को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रही है। हालत यह है कि पिछले करीब छह साल से सांप्रदायिकता शब्द राष्ट्रीय विमर्श से गायब हो गया है, अब बात भारतीयता की ही हो रही है।
मोदी सरकार देश का मन और मानस बदल रही है। खुशी की बात यह है कि यह बदलाव अधिसंख्य लोगों में स्वतः उपज रहा है, लोग इस बदलाव के लिए तैयार हैं। वास्तव में यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि वह भारतीय समाज को उसकी जड़ों की ओर वापस ले जाने का महासंग्राम है। जो काम आजादी के बाद ही शुरू हो जाना चाहिए था, वह अब हो रहा है। इस देश की आत्मा भारतीय संस्कृति में बसती है। पिछले सात दशकों में हिंदू विरोध और धर्म-निरपेक्षता पर्यायवाची बन गए थे। नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध करने वाले पता नहीं क्यों बांग्लादेश और पाकिस्तान से अवैध रूप से आए मुसलमानों के हक के लिए खड़े हैं? जनता अब समझदार हो गयी है, वह विरोध एवं राष्ट्रहनन के बीच के संबंधों को भलीभांति समझने लगी है। जो लोग देश को लगातार कमजोर कर रहे थे, उनके मनसूंबों एवं षडयंत्रों को वह समझ रही है।
नागरिकता संशोधन विधेयक कैसा भी हो, सकारात्मक या नकारात्मक, पर अगर देश को एक बनाए रखना है, भारत को मजबूती देनी है, सौहार्द एवं सद्भाव बनाए रखना है, तो सभी धर्मावलम्बियों को दूसरे धर्म के प्रति आदर भाव रखना होगा। अन्यथा परिवर्तन लाने के बहाने चेहरे बदलते रहेंगे, झण्डे बदलते रहेंगे, नारे बदलते रहेंगे, परिभाषाएं बदलती रहेंगी, मन नहीं बदल सकेंगे। अतः बहुत आवश्यक है कि हम भारत की वीणा के तारों को ‘झंकृत’ करें और उससे निकलने वाले ‘सुर’ की ‘लय’ को समझें। कानून बनते रहते हैं मगर देश इनमें रहने वाले लोगों से ही बनता है और इनकी आपसी एकता ही राष्ट्रीय एकता में परिवर्तित होती है।
नागरिकता संशोधन विधेयक के कानून बनने, एनआरसी लागू होने और अयोध्या में राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश के बहुसंख्यक समाज के मन में अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक होने का दंश निकल रहा है, वे अपने ही देश में बेगानों की बदतर स्थिति से बाहर आ रहे हैं। इन कदमों का विरोध करने वालों कोे एक बात समझ लेनी चाहिए कि इस देश में बहुसंख्यक समाज की भावनाओं की उपेक्षा करके धर्म-निरपेक्ष समाज की स्थापना नहीं हो सकती।
नागरिकता संशोधन विधेयक से समाज एवं राष्ट्र का सारा नक्शा बदलेगा, परस्पर समभाव या सद्भाव केवल भाषणों तक सीमित नहीं होगा, बल्कि जनजीवन में दिखाई देगा। ये हालात जो सामने आ रहे हैं, वे आजादी के पहले से ही अन्दर ही अन्दर पनप रहे थे, लेकिन तथाकथित संकीर्ण एवं स्वार्थी राजनीतिक शक्तियों ने उनको आकार नहीं लेने दिया गया। धर्मान्धता एवं साम्प्रदायिक कट्टरता को उभारा जाता रहा, उस सीमा तक लोगों की भावना को गर्माया गया- जहां इसे सत्ता में ढाला जा सके।
धर्म तो पवित्र चीज है। इसके प्रति श्रद्धा हो। अवश्य होनी चाहिए। पूर्ण रूप से होनी चाहिए। परन्तु धर्म की जब तक अन्धविश्वास से मुक्ति नहीं होगी तब तक वास्तविक धर्म का जन्म नहीं होगा। धर्म विश्वास में नहीं, विवेक में है। यही कारण है कि अन्धविश्वास का फायदा राजनीतिज्ञ व आतंकवादी उठाते रहे, देश कमजोर होता रहा। आज मोदी एवं शाह काश्मीर में जिस चीज की रक्षा कर रहे हंै, वह सिर्फ जमीन ही नहीं अपितु भारतीयता एवं धर्मनिरपेक्षता का वह सिद्धांत भी है, जो देश के बहुविध और लोकतांत्रिक ढांचे को कायम रखे हुए हैं। साढ़े पांच साल में इस सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी, सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक, आईबीसी, रेरा, तीन तलाक, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 एवं 35ए हटाने और अब नागरिकता संशोधन विधेयक जैसे बहुत से कदमों से उसने आम-भारतीय में घर कर गये अविश्वास के अंधेरों एवं धुंधलकों को हटाया है। विश्वास की जमीं को मजबूती दी है। यह वातावरण एकाएक नहीं बना, लम्बा इंतजार एवं संघर्ष के बाद यह सूर्योदय हुआ है। इससे जुडे़ अनेक सवाल निरन्तर खडे़ रहे हैं, जैसे कि पाकिस्तान से आने वाले हिंदुओं-सिखों को भारतीय नागरिकता देने के लिए 19 जुलाई 1948 को कट ऑफ डेट क्यों तय किया गया है? इसके बाद पाकिस्तान में जिन हिंदुओं-सिखों का उत्पीड़न होगा, उनके लिए भारत के दरवाजे क्यों बंद किए गए हैं? अफगानिस्तान, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के अल्पसंख्यक शरणार्थी-हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी एवं ईसाई को भारत की नागरिकता मिलनी ही चाहिए, बात इन तीन देशों की नहीं बल्कि ये जहां भी हों, अगर किसी और देश के नागरिक न हों तो उन्हें भारत की नागरिकता मिलनी चाहिए। क्योंकि भारत मानवीयता के संस्कारों से ‘जुड़ा’ हुआ ऐसा देश है जिसमें किसी व्यक्ति का धर्म इसकी राष्ट्रीय पहचान में आड़े नहीं आता। यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ एवं ‘सर्वधर्म सद्भाव’ का उद्घोष करने वाला देश है। लेकिन भारत में ये उद्घोष जिस बहुसंख्यक हिन्दुओं की आबादी ने दिये, उनकी उपेक्षा को कैसे जायज माना जाए, उन हिन्दूओं के षडयंत्रपूर्वक लगातार प्रतिशत घटने को कैसे औचित्यपूर्ण ठहराया जाये? कश्मीर से हिन्दू गायब कर दिए गए, केरल में जनसांख्यिकी पूरी तरह से बदल गई है, और उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी कमोबेश यही हाल है। मतलब साफ है कि भारत में मुसलमानों को इस लिहाज से कोई समस्या नहीं हुई है। इसलिए उनका विलाप अनुचित तो है ही, साथ ही पुरी तरह से मजहबी उन्माद और राजनीति से प्रेरित भी है। यह कैसा प्रपंच गढ़ा गया था कि हिन्दू हमेशा प्रताड़ित होता रहा – कभी दुर्गा विसर्जन के लिए कोर्ट की शरण लेता देखा गया तो कभी उसके काँवड़ यात्रा पर मुसलमान पत्थरबाजी करते रहे, कभी रामनवमी के जुलूस पर मुसलमान चप्पल फेंकते थे, कभी दुर्गा की मूर्तियों को मुसलमान और ईसाई विखंडित कर के उन्हें परेशान करते थे, उनके मंदिरों को हजार साल पहले से भी तोड़ा जाता रहा है, और आज भी अपने को अल्पसंख्यक मानने वाले उसे तोड़ ही रहे हैं। ये खेल खूब खेला गया और इतना खेला गया कि कश्मीरी पंडित इसी देश में, शंकर और शारदा की धरती कश्मीर से ऐसे निकाले गए, कि आज वहाँ इंटरनेट बंद होने पर मानवाधिकारों की बात उठती है, और बेघर हुई पीढ़ी और बहुसंख्यक हिन्दू की बात भी कोई नहीं करता जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। कहते है पाप का घड़ा एक दिन फूटता ही है। इसलिए, यह कहना या सोचना कि हिन्दू प्रताड़ित हो ही नहीं सकता, उसे गलत ठहराने के लिए जब इस देश में ही काफी प्रमाण हैं, तो पूरे विश्व में इस्लामी हुकूमतें बहुसंख्यक होने पर अपने देश के हिन्दुओं, बौद्धों, जैनों, ईसाईयों, सिखों, पारसियों का क्या हाल करती होगी, वो समझना जटिल नहीं है।

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