2जी स्पेक्ट्रम स्कैंडल पर पार्लियामेंट डेडलॉक

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प्रभात कुमार रॉय

‘वादे वादे जायते तत्व बोधा’ अर्थात वाद विवाद करते चले जाने से ही तत्व ज्ञान हो जाता है। प्राचीन भारतीय ऋर्षियों मुनियों ने इस वेद वाक्य का अनुसरण करके ही भारत को विश्व गुरु के गौरव से सम्मानित कराया। यही वेद वाक्य वस्तुतः समस्त लोकतांत्रिक जीवन पद्धति का मौलिक मार्ग दर्शक दिशा निर्देश है। विश्व में लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली की सार्थकता सकारात्मक तौर पर खुलकर जारी रहे बहस मुबाहिसे में ही नीहित रही है। संसदीय कार्यप्रणाली से संचालित सरकारें इंगलैंड के अतिरिक्त इटली, स्पेन, ग्रीस, स्वीडन, आस्ट्रेलिया, जापान आदि अनेक देशों में अत्यंत कामयाबी के साथ चल रही हैं। संसदीय कार्यप्रणाली के तहत शासन में संसद की सर्वोच्चता का मूल सिद्धांत नीहित है। भारत ने संवैधानिक तौर पर संसदीय लोकतंत्र को अंगीकार किया। संसदीय कार्यप्रणाली के विषेशज्ञों का कथन है कि भारत का संसदीय इतिहास तो केवल 90 वर्ष पुराना है जबकि 1920 से केंद्रीय विधायिका का गठन हुआ था। आज़ाद भारत का संसदीय इतिहास तो मात्र 58 साल पुराना है और अभी भारत की संसद को अपनी लोकतांत्रिक कार्य प्रणाली में और अधिक दक्ष और सक्षम होना है। इंगलैंड में जहां कि संसदीय कार्य प्रणाली का इतिहास कई सौ साल का अनुभव रखता है, वहां सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के मध्य कहीं अधिक बेहतर तालमेल मुमकिन हुआ है। भारतीय संसद में सत्ता पक्ष का अंहकार प्रबल तौर पर कायम होता है क्योंकि आजादी के दौर में 63 वर्षो के दौरान कांग्रेस दल के नेतृत्व में तकरीबन 54 वर्षो तक केंद्र सरकार संचालित हुई है। मौलिक संवैधानिक अवधारणा के तहत संसद सकारात्मक बहस मुबाहिसों के लिए तशकील की गई है। शोर शराबे, नारे बाजी, धरना प्रदशर्न अथवा बायकाट के लिए इसका निर्माण कदाचित नहीं किया गया है। संसद भली भांति संवैधानिक तौर पर संचालित हो इसकी जिम्मेदारी सत्ता पक्ष पर कहीं अधिक आयद होती है, जोकि बहुमत में विद्यमान होता है। प्रतिपक्ष की संवैधानिक जिम्मेदारी भी संसदीय प्रणाली के तहत कतई कमतर नहीं है, क्योंकि वह भी गर्वन्मेंट इन वेटिंग’ की बाकायदा हैसियत रखता है। नेता प्रतिपक्ष को कैबिनेट मिनिस्टर का दर्जा बाकायदा प्रदान किया जाता है। यहां तक कि इंग्लैंड में तो विपक्ष की शैडो केबिनेट तक फंक्शनल होती है।

भारतीय संसद के भयावह दीर्घ गतिरोध के लिए सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों का बेहद गैरजिम्मेदाराना रवैया निरंतर कायम रहा है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के मध्य डेडलॉक कोई नई बात नहीं है, ऐसे हालात देश के संसदीय इतिहास में अनेक बार निर्मित हुए हैं। सबसे पहले बार्फोस तोप स्कैंडल केस पर 19 दिनों तक संसद की कार्यवाही ठप रही, जोकि एक ऐतिहासिक रिर्काड है। इसके पश्चात ही हुकूमत ने बॉर्फोस केस पर विपक्ष की जेपीसी गठन की मांग को तसलीम किया गया। वर्तमान शीतकालीन सत्र भारत के संसदीय इतिहास में द्वितीय सबसे दीर्घ गतिरोध काल रहा। हर्षद मेहता कांड पर संसदीय कार्यवाही 17 दिन और केतन पारिख स्टाक स्कैंडल पर 14 दिनों तक संसद ठप रही। शीतल पेय में विषैले तत्वों की मिलावट के प्रश्न पर 7 दिनों तक संसदीय कार्यवाही ठप रही थी।

केंद्रीय राजकोष को तकरीबन पौने दो लाख करोड़ की लूट अंजाम देने वाले 2जी स्पैक्ट्रम स्कैंडल केस की जांच के प्रश्न पर संसद की कार्यवाही संपूर्ण शीतकालीन सत्र में बाकायदा ठप रही। केंद्र सरकार और विपक्ष के मध्य जमकर ठन गई। सत्ता पक्ष 2जी स्पैट्रम केस की जांच पब्लिक एकाउंट्स कमेटी (पीएसी) से कराना चाहता है, जबकि विपक्ष इस केस की जांच के लिए ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी (जेपीसी) के गठन करने की मांग पर अड़ा रहा। संसद के शीतकालीन सत्र में कोई भी विधायी कामकाज अंजाम नहीं दिया जा सका। देश के संसदीय इतिहास में यह एक नया रिकार्ड बन गया है, जबकि पूरा एक संसदीय सत्र किसी विधायी काम काज को अंजाम दिए बिना ही समाप्त हो गया । 9 नवंबर को प्रारम्भ हुए शीतकालीन सत्र के दौरान संसद की कुल 24 बैठक संपन्न होनी थी, किंतु प्रथम दिवस के अलावा शेष शीतकालीन सत्र में संसद ठप रही। 30 नवंबर को लोकसभा अध्यक्ष मैडम मीरा कुमार द्वारा सत्ता पक्ष और विपक्ष के मध्य जारी डेडलॉक को खत्म करने के लिए संसद की लाइब्रेरी में एक मीटिंग का आयोजन किया गया। जिसमें केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने सत्ता पक्ष की ओर से मोर्चा संभाला और फरमाया कि पब्लिक एकाउंट्स कमेटी अर्थात पीएसी जोकि 1920 में लैजिस्लेटिव एसम्बली के गठन के साथ अस्तीत्व में आई और जांच पड़ताल के मामलों में पीएसी का ट्रैक रिर्काड बहुत ही शानदार रहा है। पीएसी के पक्ष में अपनी दलीले पेश करते हुए प्रणव दादा ने ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी यानि कि जेपीसी की उपयोगिता पर प्रहार किया। उन्होने कहा कि ऐतिहासिक तौर जेपीसी प्रायः नाक़ाम रही है। सत्ता पक्ष की ओर से प्रणव दादा की इमदाद के लिए नेशनल कांफ्रेंस के जनबा फारुख अब्दुल्ला, तृणमूल के सुदीप बंधोपाध्याय, एनसीपी के संजीव नायक, डीएमके पार्टी के टीआर बालू विद्यमान रहे। विपक्ष के नेताओं ने एकजुट होकर सत्ता पक्ष की दलीलों को बाकायदा अस्वीकार करते हुए, 2जी स्पैक्ट्रम केस पर जेपीसी के गठन की मांग पर अड़े रहने का निर्णय किया।

आखिरकार केंद्र सरकार जेपीसी गठन की विपक्ष की मांग को अस्वीकार करने की हठधर्मिता पर क्यों कायम है? हुकूमत की दलील है कि एक अत्यंत सक्षम जेपीसी कम से कम एक साल का काल केस की जांच में लगा देगी और अक्षम जेपीसी तो केस की संपूर्ण जांच पड़ताल पर चार साल तक लगी रह सकती है। जेपीसी का चेयरपर्सन और बहुमत सदस्य सत्ता दल के ही होते हैं, अतः इस बात की संभावना अधिक है कि जेपीसी रिर्पोट सत्ता पक्ष के हक़ में रहे। केंद्रीय हुकूमत जेपीसी के गठन की मांग को इसलिए भी खा़रिज़ कर रही है, क्योंकि जेपीसी किसी भी केंद्रीय मंत्री महोदय को यहां तक कि प्रधानमंत्री महोदय को भी अपने समक्ष पेश होने का हुक्म जारी कर सकती है। केंद्र सरकार की यह भी दलील है कि जेपीसी के सदस्य गण दलगत तौर पर विभाजित बने रहते हैं, जबकि पीएसी का चेयरपरसन विपक्षी दल का होता, किंतु पीएसी संसदीय कायदे कानून से कहीं अधिक संचालित होती है। केंद्र सरकार की दलील है कि वह 2जी स्पैट्रम केस पर संसद में खुली बहस के लिए तैयार है।

जेपीसी के गठन के लिए एकजुट विपक्ष की दलील है कि हर्षद मेहता केस में जेपीसी ने अत्यंत शानदार अनुशंसाएं अंजाम दी। प्रतिभूति घोटाले पर भी जेपीसी ने शानदार काम अंजाम दिया। प्रतिभूति केस में जेपीसी के रिकमंडेशन्स को हुकूमत ने स्वीकार किया था, जिसका सकारात्मक परिणाम आया कि पुनः कोई प्रतिभूति घोटाला घटित नहीं हुआ। यह ठीक है कि जेपीसी किसी भी हस्ती को अपने समक्ष पेश करने का हुक्म जारी कर सकती है। जैसा कि हर्षद मेहता केस में तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह को जेपीसी के समक्ष पेश होना पड़ा। 2जी स्पैक्ट्रम केस से बड़े बड़े सत्तानशीन राजनेता सीधे संबद्ध हैं, अतः सीबीआई जैसी शासकीय एजेंसी की औकात ही नहीं है कि वह इस केस में ठीक से कारगर जांच पड़ताल कर सके। इस केस की पूर्णतः निष्पक्ष जांच के लिए पीएसी अथवा अन्य कोई शासकीय समिति कारगर साबित नहीं हो सकेगी। इस केस की जांच पड़ताल के लिए केवल जेपीसी ही सक्षम सिद्ध हो सकती है, क्योंकि यह सिर्फ पार्लियामेंट के जूरिडिक्शन में अपना काम अंजाम देती है और भारतीय संविधान के तहत निरुपित ‘सुपरीमेसी आफ पार्लियामेंट’ के कारणवश जेपीसी किसी भी शासकीय ऐजेंसी अथवा किसी भी मिनिस्टर को तत्काल तलब कर सकती है।

भारत की संसदीय प्रणाली पर अभी तक सत्ता के सामंती अहंकार का साया बाकायदा बरक़रार है, जोकि कॉरपोरेट की पूँजीवादी ताकत के साथ मिलकर और अधिक खतरनाक हो चला है। सत्ता में कोई भी एलाइंस आरुढ क्यों न रहे, वह सत्तानशीन होने पर अकसर अंहकार से लबरेज होकर मनमाना आचरण करने पर उतारु हो जाता है। राष्ट्र को लाल बहादुर शास्त्री जैसा गरिमामयी शानदार प्रधानमंत्री अब कहां नसीब है, जिन्होने अपने कार्य काल में सदैव इतिहास रच दिया। भारतीय संविधान द्वारा प्रारुपित और निरुपित समतावादी समाजवादी आचरण से कोसो दूर सत्ता पक्ष सदैव प्रतिपक्ष को नकारता रहा है, जबकि संसदीय कार्य प्रणाली की कामयाबी के लिए दोनों एक दूसरे के प्रतिपक्षी होने के साथ ही पूरक भी हुआ करते हैं। आज आवश्यकता है कि सत्तानशीन काँग्रेस अपने ऐतिहासिक अनुभव से सबक हासिल कर बॉर्फोस कांड की गलतियों को दोहराने से गुरेज़ करे, जबकि संसद के दीर्घतम गतिरोध के पश्चात, उसे जेपीसी गठन की मांग को तसलीम करना पड़ा था और ऐसी ही हठधर्मिता के कारणवश सत्ता को गवांना भी पड़ा था।

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