डा. राधेश्याम द्विवेदी
उत्तर प्रदेश के गांवों में पशु किसानों की फसल चौपट कर देते हैं. किसानों को अपनी फसलों को बचाना पड़ता है. पुलिस के पास गौशाला नहीं होता है. यदि पशुओं के स्थान पर कोई बच्चा या व्यक्ति घायल होता है तो मुकदमा दर्ज कर कार्रवाई की जाती है. बारूद का गैरकानूनी तरीके से उपयोग हो रहा है. इस बारे में ठोस सूचना मिलने पर कार्रवाई की जा सकती है. हथगोले से किसी इंसान की मौत होती है तो वह आईपीसी की धारा 302 के तहत संज्ञेय अपराध का मामला बनता है. लेकिन पशुओं की मौत पर इस धारा के तहत कार्रवाई नहीं हो सकती है. पुलिस इसे एक दुर्घटना मान लेती है. बारूद की उपलब्धता पर पुलिस को नियंत्रण करना चाहिए. बारूद मिलेगा ही नहीं तो इस तरह की घटनाएं भी नहीं होंगी. बिना लाइसेंस बारूद बेचना अपराध है. इसके खिलाफ अभियान चलाया जाना चाहिए. कई बार ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई भी की गई है. वाहन चेकिंग के दौरान कई बार विस्फोटक पदार्थ पुलिस बरामद करती है.
इस तरह गाय मारना या गाय के मांस की तस्करी करते हुए पाए जाने पर 5/8 गोवध अधिनियम के तहत कार्रवाई होती है. इस धारा में पांच से 11 वर्ष तक की सजा होती है. दूसरी तरफ हथगोले से किसी पशु की मौत होती है तो पशु क्रूरता अधिनियम-11 के तहत कार्रवाई की जाती है. इसमें पुलिस सूचना दर्ज करके हथगोले रखने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार करती है.
उत्तर प्रदेश के गांवों में फसलों को पशुओं से बचाने के लिए बड़े पैमाने पर हथगोलों का इस्तेमाल हो रहा है. बड़ी तादाद में गायें व अन्य पशु बुरी तरह जख्मी होकर मर रहे हैं, ऐसी हरकतों के बारे में पुलिस को भी पता है और राजनीतिक दलों को भी जानकारी है, लेकिन इस मामले में वोट संलग्न नहीं है, तो उनकी दिलचस्पी भी संलग्न नहीं है. इसका खामियाजा पशुओं को अपनी जान देकर भुगतना पड़ रहा है.
फसलों को गायों से बचाने के लिए हथगोलों के इस्तेमाल का फैशन उत्तर प्रदेश के अलग-अलग इलाकों से होता हुआ लखनऊ तक पहुंच चुका है. लखनऊ के ग्रामीण इलाकों में भी खेतों के किनारे-किनारे खाद्य पदार्थों में लपेट कर हथगोले रख दिए जा रहे हैं और गायों को लहूलुहान कर फसलें बचाई जा रही हैं. गायों के मुंह में ही हथगोले फट जाते हैं जिससे दर्दनाक दृश्य खड़ा हो जाता है, लेकिन ऐसा करने वाले किसानों को केवल फसलें बचाने का दर्द है. फसलें बचाने का अन्य कोई तरीका उन्हें समझ में नहीं आ रहा. विडम्बना यह है कि लावारिस कुत्तों को बचाने के लिए सड़कों पर सक्रिय दिखने वाले एनिमल-लवर्स में भी पशुओं का जख्म देख कर पशु-प्रेम जाग्रत नहीं होता.
धरना-प्रदर्शन करने पर उतारू रहने वाले संगठन भी इस मसले पर मुखर नहीं हो रहे. हथगोले रखने के मामले में दोषी को सलाखों के पीछे होना चाहिए था, यह बात पुलिस को भी समझ में नहीं आ रही है. पालतू पशुओं और गायों की मौत पर पूरा तंत्र चुप है. कारण स्पष्ट है कि तंत्र की रुचि ऐसे मामलों में नहीं है. भाषण देना हो तो पक्ष-विपक्ष में तमाम राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी फेंटा कस कर कूद पड़ेंगे. लेकिन इस तरह विस्फोटक लगा कर मारे जा रहे पशुओं पर बात भी करना उन्हें औचित्यहीन लगता है. इस तरह की अमानवीय घटनाएं कई स्थानों पर हो रही हैं. पशुओं से फसल बचाने के लिए ऐसे कई बर्बर उपाय किए जा रहे हैं, जिसे देख-सुनकर आपके होश उड़ जाएं. इसके खिलाफ अभियान चलाया जाना चाहिए. ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई भी होना चाहिए .
कई किसानों ने खेतों के किनारे बिजली के तारों का जाल बिछा रखा है. उन तारों में रात में करंट दौड़ता है. बिजली के झटके से कुछ दिनों के अंतराल में ही दर्जनों पशुओं की मौत हो चुकी है. पुलिस और वनविभाग से बचने के लिए किसान इन पशुओं को नदी में फेंक देते हैं या रेत में दफना देते हैं. इस तरह जानवरों को करंट लगने की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं, लेकिन प्रशासन कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है. जबकि स्थानीय अधिकारियों और वनविभाग के अधिकारियों को इस बारे में बाकायदा सूचित किया जा जाता है.
अहम बात यह है कि हथगोले में इस्तेमाल किया जाने वाला बारूद भी बड़ी आसानी से गांवों में उपलब्ध है. कम दाम पर हर गांव में बारूद मिल जाता है, जहां उसे किसी खाने में मिलाकर हथगोला बना दिया जाता है. गैरकानूनी रूप से इस बारूद की बिक्री हो रही है. पुलिस को रिश्वत दिखती है, लिहाजा बारूद नहीं दिखता. पुलिस को न बारूद बेचने वाले मिलते हैं और न खरीदने वाले. गायों या अन्य पशुओं के साथ हो रही इस तरह की घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण हैं. किसी पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जाती है. मामला संवेदनशील है और यही घटनाएं कभी साम्प्रदायिक तनाव का रूप भी ले सकती हैं.