पाकिस्तान में लाहौर की कोटलखपत जेल में कैद सरबजीत की जिन्ना अस्पताल में हुई मौत को भारत सरकार की हार कहा जाए या पाकिस्तान का अजमल आमिर कसाब तथा अफज़ल गुरु की फांसी का तथाकथित बदला? ४९ वर्ष के सरबजीत की लगभग आधी उम्र भारत सरकार की ओर से मदद के इंतजार में बीत गयी और उसे मौत भी नसीब हुई तो इसी इंतजार में कि इस पड़ाव पर तो उसके देश की सरकार उसकी वतन वापसी की कोशिशों को परवान चढ़ायेगी। पर हाय री किस्मत, प्रधानमंत्री के मौन और विदेश नीति की कमजोरी सरबजीत की जान पर भारी पड़ गयी। गौरतलब है कि बीते शुक्रवार को लाहौर की कोट लखपत जेल में नफरत से भरे खूंखार कैदियों के सुनियोजित हमले में मरणासन्न हुए सरबजीत ने जिन्ना अस्पताल में बुधवार आधी रात के बाद भारतीय समयानुसार डेढ़ बजे इस बेरहम दुनिया से विदा ले ली। १९६४ में पंजाब के भिखीविंड, तरनतारन में जन्मे सरबजीत में कभी लाहौर नहीं देखा होता यदि वह २८ अगस्त १९९० को सीमापार पाकिस्तान में गिरफ्तार नहीं होता। पाकिस्तानी सेना ने सरबजीत पर भारतीय जासूस होने का आरोप लगाया पर शायद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक भारतीय नागरिक को अपने यहां कैद कर रख पाना कठिन होता लिहाजा १९९१ जासूसी के अलावा लाहौर व फैसलाबाद बम धमाकों के आरोप में लाहौर की एक अदालत में मुकदमा चलाकर पाकिस्तान सैन्य कानून के तहत मौत की सजा सुना दी गयी। मामले को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी सही ठहराते हुए उनकी सजा बरकरार रखी। कुछ वर्षों तक मामले को कूटनीति के तहत दोनों देशों की सरकारों ने दबाकर रखा किन्तु मार्च २००६ में एक बार पुनः पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने उनकी समीक्षा याचिका खारिज की। समीक्षा याचिका खारिज करने का कारण सुनवाई के दौरान सरबजीत के वकील की गैरमौजूदगी को बताया गया। मौत की सज़ा पाए सरबजीत को एक और झटका तब लगा जब तीन मार्च २००८ को तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने उनकी दया याचिका वापस कर दी। हालांकि तब तक भारत सहित अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की सहानुभूति भी सरबजीत के साथ जुड़ चुकी थी लिहाजा मई २००८ में पाक सरकार ने सरबजीत की फांसी पर अनिश्चितकालीन रोक लगा दी। इस बीच सरबजीत की रिहाई के लिए कई बार भारत-पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय वार्ताएं हुईं और एकायक २६ जून २०१२ को पाकिस्तान सहित अंतरराष्ट्रीय मीडिया में खबरें आईं कि पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने सरबजीत की मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया है। हालांकि यह ख़ुशी अधिक समय तक नहीं टिक सही और कुछ घंटे में ही पाक ने इसका खंडन कर दिया। २६ अप्रैल २०१३ को जेल में छह कैदियों के हमले में बेहद गंभीर रूप से घायल सरबजीत ने खुद कई बार खुद की जान को खतरा बताया था और कसाब तथा अफज़ल की भारत में फांसी ने सरबजीत पर अनहोनी होने के अंदेशे को पुख्ता कर दिया था। पाकिस्तान में सक्रिय आन्तंकी संगठनों ने भी कसाब तथा अफज़ल का बदला सरबजीत से लेने की धमकी दी थी। ऐसे में भारत सरकार की अनजान खतरे के प्रति सवेदनहीनता और पाकिस्तान में कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय वर्ताव पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की अनदेखी, दोनों ही कटघरे में हैं। सबसे अधिक शर्म तो भारत सरकार को करनी चाहिए जो सरबजीत के मामले से जुडी राष्ट्रीय अस्मिता और जनता की भावनाओं को नहीं समझ पायी। अब तो यह कहने में भी किसी को कोई गुरेज नहीं होगा कि इससे अधिक निकम्मी और कमजोर सरकार भारतीय लोकतंत्र में कभी नहीं रही।
पाकिस्तान की जहां तक बात है तो उससे किसी भी तरह की संवेदनशीलता की उम्मीद बेमानी ही है। जिस सरबजीत को पाकिस्तान ने जीते जी रहम की भीख देने से इनकार किया, उसी ने उनके शव की सुरक्षा में तमाम तामझाम दिखाया। उन्हें सुरक्षा तब दी गयी जब उनके प्राण पखेरू हो चुके थे। सबसे बड़ी विडंबना तो देखिये कि सरबजीत का इलाज जहां चार डॉक्टरों की टीम ने किया वहीं पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों का बोर्ड छह सदस्यीय था। खैर अब जबकि सरबजीत का पार्थिव शरीर भारत लाया जा चुका है और पूरे राजकीय सम्मान से साथ उसकी अंतेष्टि भी कर दी गयी है, देखना होगा कि भारत सरकार का रुख इस पूरे मामले को लेकर पाकिस्तान के विरुद्ध क्या रहता है? क्या भारत पाकिस्तान से अपने सभी कूटनीतिक, आर्थिक, सामाजिक संबंधों को विराम दे देगा? क्या पाकिस्तान भारत को सरबजीत से जुडी सच्चाई बताएगा? सरबजीत की मौत से जुड़े मामले में संभावनाओं को न तो नकारा जा सकता है और न ही कुछ साबित किया जा सकता है। हां, इतना अवश्य है कि भारत सरकार ने सरबजीत मामले पर जिस तरह की संवेदनहीनता का प्रदर्शन किया है वह देश के नागरिकों को कतई बर्दाश्त नहीं है। संवेदनाओं के नाम पर पीड़ित परिवार के समक्ष आंसू बहाने भर से किसी सरकार की नाकामी को नहीं छुपाया जा सकता। सरबजीत की मौत भारत-पाकिस्तान के लिए इतिहास भले ही बन जाए मगर दोनों देशों के मध्य उपजी वैमस्यता की लकीर को ही आगे बढ़ाएगी। खैर; अब कम से कम भारत सरकार पाकिस्तान की जेलों में बंद अन्य सरबजीतों की रिहाई के प्रयास करे तो हो सकता है इस सरबजीत की आत्मा को शान्ति मिले और यही इस शहीद की शहादत को सच्चा सम्मान होगा।
सिद्धार्थ शंकर गौतम
प्रश्न करना फालतू है,हमारे देश में ऐसा ही चलेगा क्योंकि एक नहीं अनेक कारण हैं ,सबसे बड़ा तुष्टिकरण निति,वोह कत्ल करता रहेगा, हम हाथ जोड़ कर बात करने के लिए मन्मनोवल करते रहेंगे.l हम बिरयानी,मेग्गी चिकन खिलाएंगे,वह भूखों मारेगा ,और वह सर कलम कर सैनिको के शव देता रहेगा ,हम कहेन्गे कोइ बात नहि कलम कर दिया,पर सर तो दे दो,वह हन्स कर रह जायेगा ,सोचेगा कित्ने नादान है,ये हिन्दुस्तनि.