समर्पण बढ़ रहा है प्रभु चरण में!

समर्पण बढ़ रहा है प्रभु चरण में,

प्रकट गुरु लख रहे हैं तरंगों में;

सृष्टि समरस हुई है समागम में,

निगम आगम के इस सरोवर में !

शान्त हो स्वत: सत्व बढ़ जाता,

निमंत्रण प्रकृति से है मिल जाता;

सुकृति हो जाती विकृति कम होती,

हृदय की वीणा विपुल स्वर बजती !

ठगा रह जाता नृत्य लख लेता,

स्वयम्बर अम्बरों का तक लेता;

प्राण वायु में श्वाँस उसकी ले,

परश मैं उसका पा सिहर लेता !

वे ही आए सजाए जग लगते,

संभाले लट ललाट लय ललके;

साथ चल दूर रह उरहिं उझके,

कबहु आनन्द की छटा छिटके !

कराएँगे न जाने क्या मगों में,

दिखा क्या क्या न देंगे वे पलों में;

जहान जादूगरी है झाँकते बस,

मिला कर नयन ‘मधु’ उनके नयन में !

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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