हिंसक होती आरक्षण की मांग

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kapu samajसंदर्भः-आंध्र प्रदेश के कापू समाज की ओबीसी कोटे में आरक्षण की मांग

प्रमोद भार्गव

हमारे देश में आरक्षण एक ऐसा नाजुक मुद्दा है,जिसे चिंगारी दिखाना आसान होता है। यही कारण है कि हर साल इस मुद्दे की दबी चिंगारी सुलगकर हिंसक और विस्फोटक रूप ले लेती है। पिछले साल पटेल समुदाय के लोग आरक्षण की मांग को लेकर पूरे गुजरात में हिंसक हो उठे थे और अब कमोवेश यही स्थिति आंध्र प्रदेश में कापू समुदाय की है। कापूओं ने आरक्षण की मांग को लेकर गोदावरी जिले में आंदोलन को इतना अधिक हिंसक बना दिया कि रत्नाचल एक्प्रेस,रेलवे का दफ्तर और एक पुलिस थाने में आग तक लगा दी। साफ है,इस दबी चिंगारी को पहले तो तेलुगू देशम पार्टी के नेता चंद्रबाबू नायडू ने यह कहकर हवा दी कि यदि उनका दल सत्ता में आता है तो वे कापू समुदाय को पिछड़े वर्ग के कोटे में आरक्षण का लाभ देंगे। इस भरोसे के चलते नायडू को लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों में लाभ मिला। किंतु मुख्यमंत्री बनने के बाद आरक्षण की दिशा में उन्होंने कोई पहल नहीं की तो समुदाय ने अपने को ठगा सा अनुभव किया। इसका लाभ विपक्षी दल वाइएसआर कांग्रेस ने उठाया और उसने पूरे मुद्दे को राजनीतिक रंग देकर इसे भुनाने की कवायद शुरू कर दी। जिसका परिणाम यह आंदोलन है।

आर्थिक रूप से सक्षम माने जाने वाले कापूओं की संख्या  समुद्र तटीय आंध्र प्रदेश में 23 फीसदी हैं। यह समुदाय पटेल,जाट और गुर्जरों की तरह ही आर्थिक रूप से सक्षम है। जमीन-जायदाद,खेती-किसानी के कारोबार से लेकर राजनीति में भी उनकी मजबूत पकड़ है। इसीलिए नायडू को लगा था कि यदि कापू उनके समर्थन में आ जाते हैं,तो उन्हें चुनाव जितना आसान होगा। इस मंशापूर्ति के लिए ही नायडू ने आरक्षण का चुनावी वादा कापू समाज के मुखियाओं से किया था। साथ ही भरोसा दिया था कि छह माह के भीतर कापुओं को पिछड़े वर्ग के कोटे से आरक्षण का लाभ दे दिया जाएगा। किंतु सत्ता पर काबिज होने के बाद नायडू वादे पर अमल से मुकरने लगे। लेकिन समुदाय द्वारा ज्यादा दबाव बनाने के बाद उन्होंने इसी साल जनवरी में मुद्दे की हल की दिशा में पहल करते हुए एक न्यायिक आयोग गठित कर दिया। किंतु आंदोलनकारी आयोग की कछुआ चाल से रुश्ट हो गए और सरकार की तरफ से लिखित कोई अष्वासन नहीं मिलने पर उन्होंने कड़ा रूख अपनाकर आंदोलन को उग्र और हिंसक रूप दे दिया।

आर्थिक रूप से सक्षम व दबंग जातियां जिस तरह से एक-एक करके आरक्षण के मुद्दे को हिंसक रूप दे रही हैं,उससे ये सवाल उठना लाजिमी है कि क्या हिंसक तरीके से ही आरक्षण की मांग उठाना उचित है,दूसरे क्या आर्थिक,शैक्षिक और राजनीतिक रूप से सक्षम कापू जैसे समुदायों आरक्षण उचित है ? और क्या ऐसी मांगों को एकाएक राज्य सरकार मान ले ? मान भी ले तो क्या सर्वोच्च न्यायालय में ऐसी मांगों को संविधान सम्मत ठहराना संभव होगा ? क्योंकि अब तक जिन राज्यों ने भी पिछड़े वर्ग के कोटे में नए जाति समूहों को आरक्षण की सुविधा दी है,वह न्याय की कसौटी पर खरी नहीं उतरी है। नतीजतन आरक्षण के ज्यादातर नए उपाय यथास्थिति में बने हुए हैं। बावजूद हैरानी यह है कि राजनैतिक दल अपनी तात्कालिक स्वार्थपूर्ति के लिए नई-नई जाति समूहों को आरक्षण देने का भरोसा देते हैं और समूह भरोसे में आ भी जाते हैं। आखिर में जाकर राजनेताओं की वादाखिलाफी जाति समुदायों को हिंसा के लिए उकसाने का काम करती है। लिहाजा नेताओं को इस तरह के वादा करके तात्कालिक हित साधने की मानसिकता से मुक्त होने की जरूरत है।

जाट जाति को जब राजस्थान और उत्तरप्रदेश में पिछड़े वर्ग की आरक्षण सूची में शामिल कर लिया गया था,तब उसका अनुसरण 2008 में गुर्जरों ने राजस्थान में किया था। तब वसुंधरा सरकार ने हिंसक हो उठे आंदोलन को शांत करने की दृष्टि से पिछड़ा वर्ग के कोटे में गुर्जरों को 5 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण देने का प्रावधान किया था। किंतु आरक्षण का यह लाभ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण की निर्धारित की गई सीमा से अधिक था,इसलिए इस फैसले पर अमल नहीं हो पाया था। बावजूद पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले वोट की राजनीती के चलते, जाटों की आरक्षण संबंधी मांग को लेकर अधिसूचना जारी कर दी थी। लेकिन अदालत ने इस अधिसूचना को खारिज करते हुए साफ कर दिया था कि ‘जाटों को आरक्षण की जरूरत नहीं है। क्योंकि किसी भी जाति समूह को पिछड़ा वर्ग का दर्जा देने में सामाजिक पिछड़ेपन की अहम् भूमिका होती है। इस संबंध में केवल जाति को अधार नहीं बनाया जा सकता है।‘ कमोवेष यही स्थिति कापू जाति की है। आरक्षण के कमोवेष ऐसे ही संकट से महाराष्ट्र सरकार दो चार हो रही है। यहां की सत्ताच्युत हुई कांग्रेस और राकांपा गठबंधन सरकार ने विधानसभा चुनाव के ऐन पहले वोट-बटोरने की दृष्टि से मराठों को 16 फीसदी और मुसलमानों को 5 फीसदी आरक्षण दे दिया था। इसे तत्काल प्रभाव से शिक्षा के साथ सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में भी लागू कर दिया गया। इस प्रावधान के लागू होते ही महाराष्ट्र में आरक्षण की सीमा 52 प्रतिशत से बढ़कर 73 फीसदी हो गई थी। यह व्यवस्था भी संविधान के उस बुनियादी सिद्धांत के विरूद्ध थी,जिसके अनुसार 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता।

वैसे मौजूदा परिदृष्य में कापू,गुर्जर,जाट,मराठा और पटेल समुदाय ऐसे गए गुजरे नहीं रह गए हैं कि उन्हें आर्थिक उद्धार के लिए आरक्षण की वाकई जरूरत है ? गुजरात,राजस्थान,हरियाणा और उत्तरी उत्तर प्रदेश में ये जाति समुदाय न केवल राजनीतिक दृष्टि से बल्कि आर्थिक,सामाजिक व शैक्षिक नजरिए से भी उच्च व धनी तबके हैं। महाराष्ट्र में यही स्थिति मराठों की है। सत्तर के दषक में आई हरित क्रांति ने भी इन्हीं समुदायों के पौ-बारह किए और पंचायती राज में आरक्षण के लाभ से इन्हीं समुदायों की आर्थिक,सामाजिक और राजनैतिक ताकत बढ़ी,लिहाजा ये तबके हर स्तर पर सक्षम हैं।       हालात ये हो गए हैं कि आरक्षण का अतिवाद अब हमारे राजनीतिकों में वैचारिक पिछड़ापन बढ़ाने का काम कर रहा है। नतीजतन रोजगार व उत्पाद के नए अवसर पैदा करने की बजाय,हमारे नेता नई जातियां व उप-जातियां खोज कर उन्हें आरक्षण के लिए उकसाने का काम कर रहे हैं। यही वजह थी कि मायावती ने तो उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों तक को आरक्षण देने का षगूफा छोड़ दिया था। आरक्षण के टोटके छोड़ने की बजाय अच्छा है सत्तारूढ़ नेता रोजगार के अवसर उपलब्ध नौकरियों में ही तलाषने की शुरूआत कर दें तो शायद बेरोजगारी दूर करने के कारगर परिणाम निकलने लगें ? इस नजरिए से तत्काल नौकरी पेशाओं की उम्र घटाई जाए,सेवानिवृतों के सेवा विस्तार और प्रतिनियुक्तियों पर प्रतिबंध लगे ? वैसे भी सरकारी दफ्तरों में कंप्युटर व इंटरनेट तकनीक का प्रयोग जरूरी हो जाने से ज्यादातर उम्रदराज कर्मचारी अपनी योग्यता व कार्यक्षमता खो बैठे हैं। लिहाजा इस तकनीक से त्वरित प्रभाव और पारदर्षिता की जो उम्मीद थी,वह इसलिए कारगर नहीं हो पाई,क्योंकि तकनीक से जुड़ने की उम्रदराज कर्मचारियों में न तो कोई जिज्ञासा ही नहीं है ?

साथ ही यह प्रावधान सख्ती से लागू करने की जरूरत है,कि जिस किसी भी व्यक्ति को एक मर्तबा आरक्षण का लाभ मिल चुका है,उसकी संतान को इस सुविधा से वंचित किया जाए ? क्योंकि एक बार आरक्षण का लाभ मिल जाने के बाद,जब परिवार आर्थिक रूप से संपन्न हो चुका है तो उसे खुली प्रतियोगिता की चुनौती मंजूर करनी चाहिए। जिससे उसी की जाति के अन्य युवाओं को आरक्षण का लाभ मिल सके। इससे नागरिक समाज में सामाजिक समरसता का निर्माण होगा,नतीजतन आर्थिक बद्हाली के चलते जो शिक्षित बेरोजगार कुंठित हो रहे हैं,वे कुंठा मुक्त होंगे। जातीय समुदायों को यदि हम आरक्षण के बहाने संजीवनी देते रहे तो न तो जातीय चक्र टूटने वाला है और न ही किसी एक जातीय समुदाय का समग्र उत्थान अथवा कल्याण होने वाला है। स्वतंत्र भारत में ब्राह्मण,क्षत्रीय,वैष्य और कायस्थों को निर्विवाद रूप से सबसे ज्यादा सरकारी व निजी क्षेत्रों में नौकरी के अवसर मिले,लेकिन क्या इन जातियों से जुड़े समाजों की समग्र रूप में दरिद्रता दूर हुई ? यही स्थिति अनुसूचित जाति व जनजातियों की है। दरअसल आरक्षण को सामाजिक असमानता खत्म करने का अस्त्र बनाने की जरूरत थी,लेकेन हमने इसे भ्रामक प्रगति का साध्य मान लिया है। नौकरी पाने के वही साधन सर्वग्राही व सर्वमंगलकारी होंगे,जो खुली प्रतियोगिता के भागीदार बनेंगे। अन्यथा आरक्षण के कोटे में आरक्षण को थोपने के उपाय तो जातिगत प्रतिद्वंद्विता को ही बढ़ाने का काम करेंगे।

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