देश से पहले दलों में लोकतंत्र आये

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ललित गर्ग

भारत के लोकतंत्र की अजीब विडम्बना यह है कि लोकतंत्र में राजनीतिक दल तो हैं किंतु राजनीतिक दलों में लोकतंत्र नहीं है। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए हमें लोकतंत्र को परिपक्व बनाना है तो राजनीतिक दलों में लोकतंत्र को लाना होगा। निश्चित रूप से एक नया भारत बन रहा है- उदासीन एवं कमजोर राजनेताओं का। इस भारत के बहुत से सकारात्मक पक्ष हैं, पर इसकी एक बड़ी खामी यह है कि इसके सपने बड़े नहीं हैं। छोटे-छोटे सपनों वाला यह भारत अपने सपनों के कोलाज को यदि बड़ा कर सके तो न सिर्फ एक सशक्त-सम्पन्न भारत बन सकेगा, बल्कि एक नई दुनिया के निर्माण में इसकी निर्णायक भूमिका भी होगी।
यह विडम्बना ही है कि एक ओर तो लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारें बीच मझधार में ही बदल जाती है, विचारधारा से लेकर सिद्धांत तक बदल जाते हैं, दल बदल लेते हैं और इधर एक पार्टी अपना अध्यक्ष नहीं बदल पा रही है। 75 वर्षो  की आजादी में राष्ट्र का सर्वोच्च दल यदि लोकतांत्रिक तरीके से अपने दल को परिपक्व  न कर पाया तो यह देश एवं दल दोनों का दुर्भाग्य है, वह अपना अध्यक्ष न चुने और अपनी ही दल की विभिन्न प्रांतों की सरकारों में रातोरात उठापटक कर दें, किस तरह गले उतरे?
अपने मापदंडों के साथ अपना-अपना सच परखने में जुटे विभिन्न राजनीतिक दलों इर्द-गिर्द जो घट रहा है, उसे लोकतांत्रिक तो नहीं कहा जा सकता। फिर किस तरह ऐसे दलों से देश में लोकतंत्र को सफल एवं सार्थक करने की आशा की जा सकती है। अनेक प्रश्न जहन में उभर रहे हैं। सबसे बड़ा प्रश्न तो यही है कि आज भी भारत में राष्ट्रीय भावना और देशभक्ति की भावना को मानकर नहीं चला जा सकता। देश आज जितना विभाजित और संकीर्णता ग्रस्त है उतना शायद ही कभी रहा हो। अगर हम अपनी तुलना उन देशों से करें जहां आजादी संघर्ष के बाद हासिल की गई तो हम देख सकेंगे कि वहां बार-बार देशभक्ति के लिये सरकार को आह्नान नहीं करना पड़ता और जनता स्वयं सरकारों एवं राजनीतिक दलों की देशभक्ति को शंका की दृष्टि से नहीं देखती।
राजनीति शब्द को सुनते ही कानों में अंगुलियां डालने वालों को शायद मालूम नहीं कि यह उनके रक्त में ही नहीं, सांसों में समायी हुई है, जिन्दगी उसी से चलती है, उसी से वे संचालित है। हम जो हर दिन आंख खोलते और बन्द करते हुए चैबीस घंटे की जिन्दगी पूरी करते है, उसमें कुछ भी राजनीति से अछूता नहीं है। हम और हमारा जीवन राजनीति मेें लिप्त है और वही राजनीति हमारे यहां एक अलग तरह का माहौल पैदा कर रही है जिसमें राजनीतिक दल और राजनेता एक दूसरे को मर्यादाएं सिखा रहे हैं, एक तरह से राजनीति में दूसरे को मर्यादा का पाठ पढ़ाने का खेल चल रहा है। जबकि स्वयं की सीमा और संयम किसी को भी याद नहीं है।
सिर्फ दूसरों की कमियों को गिनाना एक खतरनाक खेल है, अपनी अनदेखी करने की यह आदत भारतीय राजनीति की एक ऐसी विडंबना बनती जा रही है जो न केवल राजनीतिक दलों के लिए घातक होगी बल्कि राष्ट्र को भी कमजोर बनाएगी। मर्यादाएं और संयम सबके लिए समान है और यही आदर्श स्थिति भी है। स्पष्ट है कि राजनीति के इस खेल में हर कोई दूसरे को यह दिखाने-समझाने में लगा है कि वह अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा है। कोई यह नहीं देखना चाहता कि उसका स्वयं का पैर कहां है। यही नहीं, यह ऐसा खेल है जिसमें हर खिलाड़ी दूसरे की सीमा अपने ढंग से तय करता है। कोशिश यह दिखाने की रहती है कि दूसरा गलत खेल रहा है। अपने लिए तो सभी यह मानकर चलते हैं कि उनसे गलती हो ही नहीं सकती।
हमारी राजनीति के इस चरित्र को समझने की जरूरत सिर्फ राजनेताओं को ही नहीं है, सामान्य नागरिकों के लिए भी यह समझना जरूरी है कि वह इस खेल को समझें। संभवत भारत के लोग इस खेल को समझने के साथ-साथ एक नये जिम्मेदारीपूर्ण अहसास को भी समझ रहे हैं। यह शुभ लक्षण है कि भारत में यह एहसास उभर रहा है कि तथाकथित राजनेता या ऊपर से आच्छादित कुछ लोगों की प्रगति देश में आनन्द और शांति के लिये पर्याप्त नहीं है, इसलिये संवेदनशील और स्वाभिमानी व्यक्तियों में यह चाह जागे, राजनीति का एक नया एहसास अंकुरित हो, जिसमें राष्ट्र-संघर्ष और राष्ट्र-निर्माण के तत्व समाहित हैं, जो नया भारत के निर्माण में जिम्मेदार भूमिका निभाये। इसमें संदेह नहीं कि किसी भी व्यवस्था में आचरण की सीमाएं हुआ करती हैं। व्यवस्था में रहने वालों को इन सीमाओं का आदर करना सीखना चाहिए, तभी व्यवस्था बनी रह सकती है। हमारे राजनेता एक-दूसरे को अपनी-अपनी मर्यादा का पालन करने की सलाह दे रहे हैं, तो इसमें कहीं कुछ गलत नहीं है। गलत तो यह बात है कि हर कोई दूसरे के आचरण पर निगाह रखना चाहता है, खुद को देखना नहीं चाहता। इससे अराजकता की ऐसी स्थिति बनती है जिसमें न साफ दिख पाता है और न ही कुछ साफ समझ आता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि हर एक को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए। राजनीतिक परिपक्वता और समय का तकाजा है कि हम दूसरों की ही नहीं अपनी मर्यादाएं भी समझें और उसके अनुरूप आचरण करें। यह भी जरूरी है कि हम अपने को दूसरों से अधिक उजला समझने की प्रवृत्ति से भी बचें। हमें यह भी एहसास होना चाहिए कि जब हम किसी की ओर एक उंगली उठाते हैं तो शेष उंगलियां हमारी स्वयं की ओर उठती हैं। हम स्वयं को दर्पण में देखने की आदत डालें। दूसरों को दागी बताने से पहले अपने दागों को पहचानें।
लोकतंत्र की उचित परिभाषा ‘लोकतंत्र जनता का जनता के लिए जनता द्वारा शासन है’, जनता की लोकतंत्र में सामूहिक भागीदार होती है, जबकि देश के सर्वोच्च दल के लोकतंत्र में दल वाले परिवार के प्रति वफादार होते हंै, जनता की भागीदारी वहां नदारद है। कई राज्यों के मुख्यमंत्री बदल गए, एक राज्य में तो सारे मंत्री ही बदल गए, मगर मजाल उन्होंने अपना अध्यक्ष बदला हो। लोगों की पुश्तैनी दुकानें होती हैं, यहां तो एक पुश्तैनी पार्टी हो गई है। पवित्रता का आदि बिन्दु है स्वस्थता। पवित्रता निरावरण होती है। आज राजनीति को पवित्रता की जरूरत है। पवित्रता की भूमिका निर्मित करने के लिए पूर्व भूमिका है आत्मनिरीक्षण। किस सीमा तक विकारों के पर्यावरण से हमारा व्यक्तित्व प्रदूषित है? यह जानकर ही हम विकारों का परिष्कार कर सकते हैं। परिष्कार के लिए खुद से बड़ा कोई खुदा नहीं होता। महात्मा गांधी के शब्दों में-‘‘पवित्रता की साधना के लिए जरूरी है बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो।’’ भगवान महावीर ने संयमपूर्वक चर्या को जरूरी माना है। राजनीतिक पवित्रता का सच्चा आईना है राजनेता का मन, विचार, चिंतन और कर्म। राजनेताओं को सीख देने की जरूरत हैं कि वे सब अपने-अपने आईने में स्वयं को देखें और अपनी कमियों का परिष्कार करें। स्वयं के द्वारा स्वयं का दर्शन ही वास्तविक राजनीति का हार्द है। राजनीति एक व्यवहार है, हमारे भीतर का सच है जिसे नकारने से बेहतर है स्वीकार कर उसे सही दिशा प्रदान करना। भारतीय सन्दर्भ में जीवंत राजनीति का एक संकल्प यह भी हो कि लोकतांत्रिक मूल्यों की जरूरत देश चलाने से ज्यादा राजनीति दल चलाने के लिये हो। 

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