लोकतंत्र की मरम्मत भीतर से ही हो सकती है, उसे बुलडोजर से ढहाकर नहीं

सुनील कुमार

डॉ. विनायक सेन को मिली उम्र क़ैद ने देश और दुनिया के बहुत से सामाजिक आंदोलनकारियों को हिला कर रख दिया है और छत्तीसगढ़ के एक जिले की अदालत के इस फ़ैसले को बहुत से क़ानूनी जानकार ख़ारिज़ ही कर दे रहे हैं कि यह एक कमज़ोर फ़ैसला है।

क़रीब सौ पेज के इस फ़ैसले को बुलवाकर पढऩे में वक़्त लगा, और इसलिए मैं इन दिनों देश से बाहर रहते हुए इस पर आनन-फ़ानन कुछ लिख नहीं पाया। एशिया से गाजा जा रहे कारवां में पिछले 20 से अधिक दिन हो गए और अभी सीरिया के एक बंदरगाह-शहर पर इजिप्त जाने की इज़ाज़त का रास्ता देखते हम पड़े हैं। हमारे साथ हिंदुस्तान के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताओं और वामपंथी रूझान रखने वाले लोग भी हैं, और विनायक सेन पर आए फ़ैसले से सभी के चेहरों पर तकलीफ़ दिखती है। अदालत के इस नतीजे को लोग बेइंसाफ़ी मानते हैं कि विनायक ने राजद्रोह का कोई काम किया है। ऐसे में इतनी दूर बैठे आज की यह बात मैं अपनी निजी समझ की ही लिख रहा हूँ, इससे अधिक यहाँ रहते मुमकिन नहीं है।

डॉ. विनायक सेन पर जब नक्सलियों की मदद का मुकदमा शुरू हुआ, तो छत्तीसगढ़ में कुछ लोगों को हैरानी थी कि ग़रीबों का इलाज करने वाला यह मानवाधिकार आंदोलनकारी कैसे यह ग़लती कर बैठा कि नक्सलियों की चिट्ठी जेल से बाहर पहुँचाते फँस गया। लेकिन बहुत से लोगों को यह भी लगा कि छत्तीसगढ़ में कुछ सामाजिक आंदोलनकारी, देश के बाक़ी बहुत से बड़े सामाजिक आंदोलनकारी लोगों के साथ मिलकर जिस तरह देश-प्रदेश के सरकारों पर हमला बोलते हैं, और जिससे नक्सलियों के हाथ मज़बूत होते हैं, उसके चलते ये लोग ऐसा काम कर भी सकते हैं। डॉ. विनायक सेन की गिरफ़्तारी के पहले ही हिन्दुस्तान में बहुत से सामाजिक कार्यकर्ताओं के इस रूख पर आम लोग हैरान-परेशान थे, कि नक्सली हिंसा के ख़िलाफ़ उनका मुँह नहीं खुलता था, और सरकारी हिंसा के आरोपों पर भी मानवाधिकार संगठन उबल पड़ते थे। जिस तरह पिछले महीनों में अरुंधति राय ने खुलकर नक्सलियों की तारीफ़ में लिखा और कहा है, कुछ वैसा ही बहुत से और सामाजिक आंदोलनकारी समझते हैं। उनकी हताशा के पीछे भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं की नाकामयाबी है, जिनके चलते ग़रीब और उनका देश लुट रहे हैं, और सभी किस्म के ताक़तवर तबक़े लूट रहे हैं। ऐसे माहौल में बहुत से संवेदनशील लोगों को नक्सली एक विकल्प लगते हैं, लोकतंत्र का ना सही, लोकतंत्र को और अधिक तबाह होने से बचाने के इलाज की तरह का विकल्प।

लोकतांत्रिक संस्थाओं की विफलता के बावजूद हमारा मानना है कि इलाज जम्हूरियत के भीतर से ही निकल सकता है, और ना कि इसे तबाह करके। लेकिन अदालत ने यह पाया है कि डॉ. विनायक सेन ने नक्सलियों की चिट्ठी जेल से बाहर लाकर उनके हरकारे का काम किया और इसलिए उन्हें उम्रक़ैद की सज़ा दी। यह पहली बात हमें सही लगती है कि उन्होंने किसी तरह से नक्सलियों की मदद की होगी, लेकिन इसके लिए राजद्रोह के जुर्म के तहत उन्हें उम्रक़ैद देना जायज़ नहीं लगता। पाठकों को याद होगा कि कुछ महीनों पहले जब अरुंधति राय ने कश्मीर को लेकर एक बयान दिया था और जिसे लेकर उनके ख़िलाफ़ राजद्रोह का मुकदमा चलाने की शुरुआत हो चुकी है, तब भी हमने राजद्रोह को लेकर सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले की याद दिलाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने तय किया था कि जब कोई व्यक्ति देश की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए लोगों को हथियारबंद बगावत की नीयत से भडक़ाए, तो ही उसे बहुत ही दुर्लभ मामलों में राजद्रोह माना जाए। हमारे साथ चल रहे एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडे भी एक दूसरे प्रदेश में राजद्रोह का मुकदमा झेल रहे हैं, जो कि आगे ही नहीं बढ़ रहा है बरसों से।

लेकिन छत्तीसगढ़ की अदालत के फ़ैसले को कमज़ोर मानते हुए भी हमें लगता है कि दुनिया के बहुत से हिस्सों से उठती यह माँग सही नहीं है कि सरकार डॉ. विनायक सेन को तुरंत रिहा करे। दूसरे देशों में बैठे, और भारत में भी बसे बहुत से लोगों का यह मानना है कि यहाँ की अदालतें सरकारी दबाव के तहत काम करती हैं। मैं यह तो मान सकता हूँ कि बहुत सी अदालतें इंसाफ़ से परे एक अंदाज़ में किसी दबाव में काम कर सकती हैं, लेकिन आम तौर पर तो यह गैरसरकारी ताकतवर तबके का दबाव अधिक होता है, ना कि सरकार का। अदालतों के तो बहुत से फ़ैसले सरकारों के ख़िलाफ़ ही जाते हैं, और छत्तीसगढ़ में नक्सल मोर्चे की बात करें, तो विनायक से साथी सामाजिक कार्यकर्ताओं की पिटीशन पर अदालती फ़ैसले या अदालती हुक्म तो सरकार के ख़िलाफ़ ही जाते दिखते हैं। सरकार की जाँच एजेंसियाँ ज़रूर मामला अदालत में पेश करती हैं, लेकिन पूरा देश गवाह है कि किस तरह आए दिन अदालतें जाँच एजेंसियों के ख़िलाफ़ फ़ैसले देती हैं।

लेकिन विनायक सेन के मामले पर लौटें तो इस पर अदालती फ़ैसला अभी ट्रायल कोर्ट का है, निचली अदालत का। ऐसी निचली अदालतों के नज़रिए की एक सीमा होती है, और ये अपने सामने रखे गए सबूतों के आगे-पीछे कुछ नहीं देखतीं/देख सकतीं। ऐसे में विनायक सेन के हाथों नक्सलियों की मदद होने का सुबूत मौजूद बताए जाते हैं। 100 पेज के क़रीब के अदालती फ़ैसले में बहुत सी दूसरी कमज़ोरियाँ दिखाई पड़ती हैं, लेकिन ट्रायल कोर्ट में उनसे विनायक सेन को मदद नहीं मिल सकता। अभी विनायक और सरकार, दोनों के सामने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जाने के रास्ते खुले हैं और यह लड़ाई आख़िर तक चलेगी ही।

जो लोग सोचते हैं कि विनायक सेन को सरकार को अभी छोड़ देना चाहिए, ऐसे एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संगठनों को भारत के क़ानून की जानकारी कुछ कम दिखाई पड़ती है। छत्तीसगढ़ की सरकार इस मामले में सिर्फ़ इतना कर सकती है कि वह हाईकोर्ट में इस मामले को मजबूती से ना लड़े और विनायक सेन के वकीलों को जीत जाने का मौक़ा दे दें। लेकिन क्या कोई सरकार तब ऐसा कर सकती है जब उसके निहत्थे लोग हर बरस सैकड़ों की गिनती में मारे जा रहे हों, सैंकड़ों जवान मारे जा रहे हों, नक्सलियों के हाथों? ऐसे में अगर डॉ. विनायक सेन और कुछ दूसरे लोगों की किसी भी दर्जे की भागीदारी नक्सलियों के साथ पकड़ाती है, तो कोई भी सरकार उसे अनदेखा कैसे कर सकती है? अपनी जनता को कोई सरकार क्या जवाब दे सकती है कि मुश्किल से निचली अदालत तक पहुँच पाए इस मामले में वह उन सामाजिक आंदोलनकारियों पर रहम क्यों कर रही है जो रोज़ नक्सलियों की मदद करते बयान, सरकार के ख़िलाफ़ देते हैं?

मैं तो अभी हिन्दुस्तान से परे बैठा हूँ, इसलिए इंटरनेट पर जाने-पहचाने लोगों और संगठनों के बयानों से परे बहुत अधिक इस मामले पर आए इस फ़ैसले के बारे में लोगों की प्रतिक्रिया पता नहीं है। मैंने हमारे दोस्त संदीप पांडे से भी बार-बार पूछा कि क्या वे विनायक सेन पर कुछ लिख पाए हैं, तो अब तक वे भी कुछ लिख नहीं पाए। ऐसे में अपनी पुरानी जानकारियों और अपनी पिछले की सोच को लेकर ही यह लिख रहा हूँ।

जिन लोगों के मानवाधिकारों को लेकर डॉ. विनायक सेन और उनके जैसे बाक़ी साथी आंदोलन करते हैं, उन्हीं की तरह की न्याय-प्रक्रिया से उन्हें भी गुज़रना ही है। हिन्दुस्तान के लोकतंत्र में जब तक कोई सरकारों और अदालतों को प्रभावित करने की ताक़त न रखे, उसे तो कटघरे और जेल के लिए तैयार रहना ही पड़ता है। विनायक सेन के बारे में इतना ज़रूर है कि उन्हें देश के सबसे दिग्गज वकील नसीब थे और हैं भी आगे की लड़ाई के लिए। जिन लोगों के हक़ों के लिए विनायक और उनके साथी अक्सर सडक़ों पर रहते हैं, उनमें से शायद ही किसी को इतनी वकीली मदद नसीब हो पाती हो। विनायक सेन को मैं ख़ुद बरसों से जानता हूं, और मुझे ख़ुशी होगी गर वे ऊपर की अदालतों से बरी होकर निकलें। लेकिन भारत के लोकतंत्र का जो ढाँचा है, उसके तहत यह सिलसिला इतना लंबा चलता ही है। विनायक के मामले में तो उनके वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट तक कई बार दौड़ लगाकर उनके हक़ हासिल करने की कोशिश भी की थी।

फिलहाल छत्तीसगढ़ में और ऐसे बहुत से दूसरे प्रदेशों में मानवाधिकार आंदोलनकारियों के सामने का वक़्त है, लेकिन यह वक़्त लोगों को यह समझाने का भी है कि लोकतंत्र की अपनी सीमाएं होती हैं और जिन लोगों का भरोसा शांति पर है, उन्हें सावधान भी रहना चाहिए। दरअसल लोकतंत्र से नाराज़गी और बगावत के बीच कई बार बहुत बारीक़ फ़ासला रह जाता है। ऐसे में लोगों को इस सरहद को पार नहीं करना चाहिए। भारत जैसे देश में लोकतंत्र की नाकामयाबी के कुछ मामलों को देखकर कई लोगों का ख़ून कई बार उबल सकता है, और ऐसे बहुत से लोगों से मेरी मुलाक़ात इन दिनों हो भी रही है, लेकिन लोकतंत्र की मरम्मत भीतर से ही हो सकती है, उसे बुलडोजर से ढ़हाकर नहीं।

फ़िलहाल दूर बैठे इतनी सी आधी-अधूरी ही।

(लेखक दैनिक छत्तीसगढ़ समाचार-पत्र के संपादक हैं)

1 COMMENT

  1. sunil bhai,
    aapka yah sampadkiya chhattisgarh me bhi padha hain.khushi ki bat hi hain ki aap ek aise antrrastriya andolan me sath hain aur yatra kar rahe hain.hamare desh ke prmukh vipachi dal ke adyakch isrial ki sansad me samman prapt kar rahe hain, ye vahi sisrial hain jisne filastniyo ke desh par kabja kar liya hain aur unhe jine nahi de raha hain,amrika aur isrial ka gathbandhan hi apradhi hain jiske khilaf duniya ki shanti priya takte ladai lad rahi hain aur binayak unme se ek hain.

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