वर्गतंत्र में परिवर्तित होता लोकतंत्र

               *केवल कृष्ण पनगोत्रा

प्रजातंत्र पर इतराते-ऐंठते सात दशक गुजर गए। ..और जब कोई न्यायाधीश या नौकरशाह सत्ता की चाकरी से पिंड छूटते ही व्यवस्था की खामियों की तल्ख़ परतें उधेड़ने लगे तो यकीन करना पड़ता है न? 
सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने अपनी नौकरी के अंतिम दिन विदाई भाषण में जूडिशरी पर तीखी टिप्पणी की। बुधवार (06 मई) को सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल द्वारा आयोजित वर्चुअल फेयरवेल पार्टी में जस्टिस गुप्ता ने कहा कि देश का कानून और न्याय तंत्र चंद अमीरों और ताकतवर लोगों की मुट्ठी में कैद में है। उन्होंने कहा, “यदि कोई व्यक्ति जो अमीर और शक्तिशाली है, वह सलाखों के पीछे है, तो वह मुकदमे की पेंडेंसी के दौरान बार-बार उच्चतर न्यायालयों में अपील करेगा, जब तक कि किसी दिन वह यह आदेश हासिल नहीं कर लेता कि उसके मामले का ट्रायल तेजी से किया जाना चाहिए।” उन्होंने कहा, “वर्तमान समय और दौर में न्यायाधीश इससे अनजान होकर ‘आइवरी टॉवर’ में नहीं रह सकते कि उनके आसपास की दुनिया में क्या हो रहा है? उन्हें इसके बारे में जरूर पता होना चाहिए।”
जस्टिस गुप्ता ने कहा, ऐसा, गरीब प्रतिवादियों की कीमत पर होता है, जिनके मुकदमे में और देरी होती जाती है क्योंकि वह धन के अभाव में उच्चतर न्यायालयों का दरवाजा नहीं खटखटा सकते। जस्टिस गुप्ता यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा, “अगर कोई अमीर शख्स जमानत पर है और वह मुकदमे को लटकाना चाहता है तब भी वह उच्चतर न्यायालयों का दरवाजा खटखटाकर, मामले का ट्रायल या पूरी सुनवाई प्रक्रिया तब तक बार-बार लटकाएगा, जब तक कि विपक्षी पार्टी परेशान न हो जाय।”
जस्टिस गुप्ता ने जोर देकर कहा कि ऐसी स्थिति में बेंच और बार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो समाज के वंचितों और गरीबों को न्याय दिलाने में मदद करें। वो इस बात पर नजर रखें कि कहीं गरीबी की वजह से उनके मुकदमे पेंडिंग बॉक्स में पड़े न रह जाएं। उन्होंने कहा, “यदि वास्तविक न्याय किया जाना है, तो न्याय के तराजू को वंचितों के पक्ष में तौलना होगा।”(jansatta.com, 7may, 2020)
अगर देश की न्याय व्यवस्था चंद अमीरों और शक्तिशाली लोगों की मुट्ठी में कैद है तो विधायिका, कार्यपालिका की दशा पर क्या संतोष महसूस किया जा सकता है? …और आवाम की कठिनाइयों को परवाज देने वाला मीडिया? शुक्र मना सकते हैं कि जस्टिस दीपक गुप्ता सरीखा कोई अपवाद बाकी है अभी!
चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में जैसे राजा का उल्लेख किया है, आज के युग में राजा अपवाद रूप में ही बचे हैं और उनका स्थान अधिकांश जनप्रतिनिधियों ने ले लिया है जिन्हें आम जनता शासकीय व्यवस्था चलाने का दायित्व सोंपती है । कौटिल्य की बातें तो उन पर अधिक ही प्रासंगिक मानी जायेंगी क्योकि वे जनता के हित साधने के लिए जनप्रतिनिधि बनने की बात करते हैं । दुर्भाग्य से अपने समाज में उन उद्येश्यों की पूर्ति करने वाले जनप्रतिनिधि अपवाद स्वरूप ही देखे जा सकते हैं। चाणक्य कहते हैं:
प्रजा-सुखे सुखम् राज्ञः प्रजानाम् तु हिते हितम्, न आत्मप्रियम् हितम् राज्ञः प्रजानाम् तु प्रियम् हितम् ।
(कौटिल्य अर्थशास्त्र, अध्याय 18)
यानि प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है, प्रजा के हित में ही राजा को अपना हित नजर आना चाहिए। जो स्वयं को प्रिय लगे उसमें राजा का हित नहीं होता है, राजा का हित तो उसमें है जो प्रजा को अच्छा लगे।
यह तो तब की बात है जब प्रजातंत्र का बोलबाला नहीं था। राष्ट्र राजशाही के अधीन हुआ करते थे और व्यवस्था सामंती थी। विश्व भर में वर्तमान समय लोकतंत्र का है। 19वीं सदी में ऑटोमन अंपायर (उस्मानी साम्राज्य) के विघटन और यूरोप में राष्ट्रवादी संघर्षों के परिणाम स्वरूप लोकतांत्रिक और समाजवादी व्यवस्था का उदय हुआ। जैसे 1789 की फ्रांसीसी क्रांति का यूरोपीय देशों पर प्रभाव पड़ा, उसी प्रकार भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में रूसी क्रांति का विशेष प्रभाव रहा। 1917 में USSR (यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक)  के गठन के पश्चात भारत में जिस व्यवस्था की परिकल्पना क्रांतिकारी समूहों ने की थी, उसे उसी प्रकार से मूर्तरूप तो नहीं मिला, अलबत्ता पूंजीवाद और समाजवाद के मिश्रित संस्करण से ओत-प्रोत लोकतांत्रिक व्यवस्था भारत ने ग्रहण कर ली।
1950 में संविधान लागू होने के लगभग 25 वर्ष तक हमारी लोकतंत्र व्यवस्था ने शायद ही जनमानस को निराश किया हो, परन्तु उसके बाद परिस्थितियां बदलने लगी। लोकतांत्रिक भावनाओं का ह्रास होने लगा और वर्गतंत्र लोकतंत्र को चिढ़ाने लगा। मानव मूल्यों और देशभक्ति की जगह प्रतीकात्मक कवायद ले रही है। मुझे स्मरण है 29 अगस्त 2001 को जब सांसदों के वेतन-भत्ते में बढ़ोतरी पर विधेयक पारित हुआ था तो सिवाए एक आदमी के किसी भी राजनैतिक दल की ओर से विधेयक पर नकारात्मक गर्दन नहीं हिली थी। कुछ सांसदों ने विधेयक के पक्ष में तर्क दिया था कि  अन्य देशों की तुलना में भारत में संसद सदस्यों का वेतन बहुत ही कम है। इसके विरोध में जाने-माने समाज सेवक और राज्यसभा के मनोनीत सदस्य नानाजी देशमुख ने कहा था कि जिन देशों में सांसदों का वेतन भारत से अधिक है वहाँ लोग भूख से भी नहीं मर रहे हैं। वर्तमान का सबसे दु:खद अनुभव तो यही है कि संविधान की धाराओं का लाभ केवल सत्ताधारी और शासन-प्रशासन में पहुंच रखने वाले लोगों को ही मुख्यतः मिल रहा है। हमारे देश की सरकारें यह क्यों भूल रही हैं कि स्वतंत्रता के सात दशकों बाद भी संविधान की भावनाओं की पूर्ति नहीं हो रही है।•
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