‘लोकतंत्र’ की तलाश में ‘आम आदमी’

-आशीष कुमार ‘अंशु’

बात थोड़ी पुरानी है भाई जान। एक बार आम आदमी भारत में लोकतंत्र को तलाशता हुआ आया।

आम आदमी का नाम सुनकर आप भ्रमवश इसे प्रेमचंद का आम आदमी ना समझ लीजिएगा। चूंकि वह आम आदमी आज के दौर में सिर्फ प्रेमचंद सरीखे साहित्यकारों की चिन्ता में ही शामिल है। ना यह कांग्रेस का आम आदमी है। जिसके साथ अपने चुनाव चिन्ह ‘हाथ’ के होने का दावा (याद कीजिए: कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ) कांग्रेस करती है। लेकिन सच्चाई यह है कि इस पार्टी का हाथ या तो उद्योगपतियों की पीठ पर धरा मिलेगा या एनरॉन जैसे मुद्दे पर अमेरिका की जेब में। भाजपा ने भी कौन सा आम आदमियों का भला किया है। वह तो घोषित तौर पर व्यावसायियों और पैसे वालों की पार्टी है। इसलिए समझिए यह आम आदमी भाजपाई भी नहीं था। बसपा, लोजपा, सपा, झामुओ आदि-आदि से भी इस आम आदमी का कोई ताल्लुक नहीं था। चलते-चलते एक बात और साफ कर दूं कि इस आम आदमी का किसी विदेशी साजिश से भी कुछ लेना-देना नहीं था। इसके आईएसआई से भी संबंध होने की कोई संभावना नहीं थी। यह खालिश स्वदेशी इलीट एंटिलेक्चुअल किस्म का आम आदमी था। जो भारत में लोकतंत्र को तलाश रहा था। उसने इतिहास और समाज शास्त्र की किताबों में पढ़ रखा था कि भारत एक लोकतांत्रिक-प्रजातांत्रिक देश है। बताया जाता है, इस तंत्र में लोक, लोक द्वारा लोक पर शासन करते हैं। लेकिन आम आदमी ने देखा कुछ और, उसने अपनी डायरी के किसी पन्ने पर लिखा है, ‘लोकतत्र में खास आदमी पैसों के दम पर – और पैसा और शक्ति कमाने/बनाने के लिए- आम आदमी का रक्त चूसता है।’

आम आदमी के लोकतंत्र की तलाश को समझने के लिए पहले आम आदमी को समझना बहूत जरूरी है। आम आदमी भारतीय लोकतंत्र का एक ऐसा चेहरा है, जिसके सब चाहने वाले हैं लेकिन उसका कोई नहीं है। यह सभी राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्रों में तो दाखिल है लेकिन इसके जीवन का स्तर कैसे ऊपर उठे यह बात किसी पार्टी की चिन्ता में शामिल दिखाई नहीं देता। सब आम आदमी की बात करते हैं, भाजपा हो या कांग्रेस। लेकिन इन पार्टियों में आम चुनाव के समय जब टिकट देने की बारी आती है, चुन-चुनकर उन लोगों को तलाशा जाता है, जो पैसे वाले हों, बाहुबली हों। आम आदमी का प्रतिनिधित्व करने के लायक क्या अब इस देश के आम आदमियों (गरीब वर्ग) में कोई बचा ही नहीं? क्यों जनप्रतिनिधि बनने की पहली शर्त पैसा वाला होना बनता जा रहा है? भाजपा या कांग्रेस ऐसी सूची जारी कर सकती हैं, जिसमें ऐसे व्यक्तियों के नाम हों, जो साइकिल पर चढ़ता हो या पैदल चलता हो, उसके बावजूद चुनावों में पार्टी उम्मीदवार हो। क्यों भारतीय लोकतंत्र में चुनाव लड़ने के लिए करोड़पति होना पहली जरूरत बन गई है? क्यों सभी राजनीतिक पार्टियां उम्मीदवारों को टिकट बाद में देती है और उनकी जेब पहले टटोलती है?

वास्तव में लोकतंत्र के नाम पर इस देश में सपाई, बसपाई, कांग्रेसी, भाजपाई और आदि आदि नोटतंत्र चला रहे हैं। टिकट से लेकर वोट तक सबकुछ नोट से मैनेज हो जाता है। व्यावसायिक बुद्धि वाले धनिकों के लिए चुनाव एक इन्वेस्टमेंट है और ‘जीत’ देश को पांच साल तक लूटने का लाइसेंस जैसा। मध्यावधि चुनाव हो जाए तो समझिए कारोबार में घाटा हो गया। एक बार मध्यावधि चुनाव घोषित हुए और एक सांसद जी अपने मित्र को फोन पर बताते हुए मिले, ‘भाई अभी तो लागत भी नहीं निकाल पाए थे। चुनाव फिर आ गया।’

ऐसे माहौल में ‘ईमानदारी’ और ‘साफ छवि’ को अपनी ताकत समझने वाले लोग टिकट पाने वाली कतार में पीछे खड़े रह जाते हैं। वहीं हत्या-बलात्कार के आरोपियों और दंगे के अनुभवियों को टिकट आसानी से मिल जाती है। पार्टी भी समझती है, ऐसी ‘प्रतिबद्धता’ के साथ काम करने वाला आदमी ही समय आने पर पार्टी के लिए जान दे भी सकता है और जान ले भी सकता है। पार्टी यह भी भली भांति जानती है कि यदि इस प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया, उसके बावजूद जान लेने और देने वाली कार्यवाही को यह ‘डाइरेक्शन’ बदल कर अंजाम दे सकता है। इसलिए टिकट वितरित करने वाले ऐसे लोगों को टिकट देने में ही अपनी भलाई समझते हैं। वैसे भी इस कलिकाल में ईमानदारी, चरित्र और साफ छवि जैसे निरर्थक मूल्यों का पार्टी क्या करेगी? पार्टी के अलंबरदार जानते हैं कि इस युग के अंदर भारत जैसे देश में चरित्रवान लोगों को तो सरकारी कार्यालयों में चरित्र का प्रमाण्ापत्र तक आसानी से नहीं मिलता। उन्हें बाबू कम से कम पांच-सात बार दफ्तर के चक्कर कटवाता है और उसके बाद भी चाय-नाश्ता के बाद ही यह प्रमाण पत्र बनाकर देता है। जबकि आप कैरेक्टर से जरा से गिरे हुए हैं तो आपका काम वही बाबू विदाउट चाय-पानी विदिन टेन मिनट करके देता है। पार्टी से टिकट की उम्मीद लगाए उम्मीदवारों को भी पता है कि यहां बर्थ से लेकर डेथ सर्टिफिकेट तक बनवाने के लिए सरकारी बाबू को ‘खुश’ करना होता है। मानों ईमानदारी तो अब बस इस देश में सिर्फ ‘बेईमानी’ में बची है। ईमान से। वरना कोई कैसे कह सकता था कि फलाना ऑफिस के चिलाना अधिकारी बड़े ईमानदार हैं। पैसा तो जरूर लेते हैं लेकिन काम समय पर पूरा करके देते हैं। कोई कह दे, साहब ने पैसा लेकर काम ना किया हो। सुनने को नहीं मिल सकता। यह ‘ईमानदारी’ की नई परिभाषा है। अब आप ही कहिए इस जमाने में खालिस ईमानदारी दिखाकर किसी को पार्टी का टिकट क्या खाक मिलेगा?

मोटी रकम लेकर बहनजी टिकट देती हैं, यह बात तो जगजाहिर है। लेकिन बहनजी तो नाहक ही बदनाम हुई हैं। वरना बाकि पार्टियों के भाई साहबों, अम्माओं, आंटियों और बाबूजीओं का रिकार्ड भी बहुत अच्छा नहीं है। खैर, आम आदमी ने लोकतंत्र की तलाश में कन्याकुमारी से जम्मू-कश्मीर तक की खाक छान मारी। लेकिन उसे लोकतंत्र नहीं मिला। कहीं-कहीं उसे मतदान होता जरूर दिखा। मतदान भाईजान लोकतंत्र थोड़े ही ना है। यह तो लोकतंत्र का ‘लक्षण’ मात्र है। क्या आपमें से कोई आम आदमी को लोकतंत्र से मिला सकता है। आम आदमी लोकतंत्र से पूछना चाहता है, जब सभी राजनीतिक दल आम आदमी के साथ होने का विश्वास दिला रहे हैं। आम आदमी के पक्ष में इतनी सारी योजनाएं बन रही है। फिर इस देश में आम आदमी का इतना बुरा हाल क्यों है? आम आदमी इस मुल्क में कंगाल क्यों है?

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